मोदी एक्‍सप्रेस से हमें क्‍या लेना हमें तो….

निर्मल रानी

आस्ट्रेलिया में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम से एक आलीशन ट्रेन चलाई गई है जिसका नाम मोदी एक्सप्रेस रखा गया है। भारतवासियों को यह खबर मुबारक हो। रेल से जुड़ी एक और दूसरा शुभ समाचार यह भी सुनाई दे रहा है कि भारत में भविष्य में बुलेट ट्रेन चलती दिखाई देगी। यह भी हम भारतवासियों के लिए बहुत अच्छी खबर है। परंतु दरअसल उपरोक्त दोनों ही सुखद समाचार हम भारतीय रेल यात्रियों के लिए महज़ लुभावने समाचार होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं। हमारे देश के रेलयात्रियों का तो वर्तमान समय में अपने देश में चल रही समस्त रेलगाडिय़ों के सुरक्षित,सुचारू,आरामदायक तथा निर्धारित समय पर पहुंचने वाली रेलगाडिय़ों से ही सीधा संबंध है।

फिलहाल तो हमें अपने देश के रेलवे स्टेशन के रखरखाव तथा उनपर मिलने वाली सुविधाओं से ही वास्ता है। न कि आस्ट्रेलिया की मोदी एक्सप्रेस से और भविष्य में चलने वाली बुलेट ट्रेन से। हालांकि भारतीय रेल विभाग की ओर से स्वच्छता व खानपान को लेकर कोई न कोई क़दम ऐसे ज़रूर उठाए जा रहे हैं जिससे रेलयात्रियों को कुछ न कुछ राहत पहुंच रही है। परंतु इसी विभाग में लूट-खसोट,भष्टाचार व अधर्म का अभी भी ज़बरदस्त बोलबाला है। यात्रियों के अधिकारों व उनकी सुरक्षा व सुविधाओं की अनदेखी कर रेल कर्मियों द्वारा अपनी जेबें भरने के लिए भ्रष्टाचार का सरेआम सहारा लिया जा रहा है। रेल प्रशासन अपनी हरामखोरी की खातिर रेल यात्रियों को प्यासा मारने से भी नहीं चूक रहा है। कल तक देश की पूर्व यूपीए सरकार जिस लूट-खसोट व भ्रष्टाचार का लांछन सहते हुए सत्ता से हटा दी गई वर्तमान भाजपा सरकार के दौर में भी यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। गोया सत्ता परिवर्तन का कोई प्रभाव इस भ्रष्ट व्यवस्था पर पड़ता दिखाई नहीं दे रहा है। और नई सरकार का प्रभाव भ्रष्ट रेल कर्मियों अथवा भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन देने वालों पर पड़े भी तो कैसे? क्या देश यह नहीं देख रहा है कि मोदी सरकार के पहले ही रेलमंत्री सदानंद गौड़ा ने रेलमंत्री बनने के पहले ही दो महीनों में अपनी घोषित संपत्ति को बढ़ाकर दस गुणा कर लिया हैे?

रेलवे में व्याप्त भ्रष्टाचार को यदि अपनी आंखों से देखना हो तथा स्वयं इससे रूबरू होना हो तो आपको इसके लिए कम से कम एक मध्यम दूरी की रेल यात्रा करना बहुत ज़रूरी है। पिछले दिनों एक बार फिर मुझे अपने परिवार के साथ अंबाला -दरभंगा-अंबाला की लगभग 2800 किलोमीटर की यात्रा करने का अवसर मिला। शहीद एक्सप्रेस के वातानुकूलित कक्ष में हमारे दो टिकट थे। जिसमें एक टिकट तो कन्फर्म था जबकि एक टिकट आरएसी 1 की स्थिति में था। अंबाला से अपने कोच बी1 में सवार होने के बाद एक टिकट निरीक्षक ने आकर मोबाईल में सुरक्षित टिकट का एसएमएस व आई कार्ड की जांच की। उससे हमने आरएसी 1 वाली टिकट को भी कन्फर्म करने का निवेदन किया। ट्रेन अभी कुछ ही दूर चली थी कि टीसी बाबू मेरे पास पुन: वापस आए और उन्होंने हमें दूसरा बर्थ नंबर बताते हुए यह खुशखबरी सुनाई कि आपको अमुक बर्थ आबंटित कर दी गई है। परंतु इसके बदले में उन्होंने मुंह खोलकर सेवा शुल्क तलब किया। मैंने उनसे बताया कि हम लिखने-पढऩे वाले लोग हैं और आरएसी 1 का कन्फर्म होना हमारा अधिकार है। इसके बावजूद उसके चेहरे की खिसियाहट देखने योग्य थी। हालांकि आजकल बर्थ नाजायज़ तरीके से आबंटित करने के लिए टिकट निरीक्षक साहिबान पांच सौ से लेकर हज़ार तथा दो-दो हज़ार रुपये यात्रियों से झाड़ रहे हैं। परंतु उन्होंने बड़ी बेशर्मी के साथ मुझसे सौ रुपये वसूल करके ही मेरा पीछा छोड़ा। जबकि आरएसी 1 लगभग शत-प्रतिशत कन्फर्म होती है। और इसके लिए किसी प्रकार की रिश्वत देने अथवा मांगने की कोई ज़रूरत नहीं पड़ती। परंतु जिनके मुंह हरामखोरी के पैसे लग चुके हों वह जायज़ काम के लिए भी पैसे मांगने से गुरेज़ नहीं करते।

इसी ट्रेन से वापसी के दौरान हमने यह देखा कि वातानुकूलित व स्लीपर क्लास के कक्ष को जोडऩे वाला बीच का भाग जिसमें शटर रूपी दरवाज़ा लगा होता है वह शटर यात्रियों द्वारा अपनी सुरक्षा के मद्देनज़र बार-बार बंद किया जा रहा है। परंतु उस शटर को कोई यात्री नहीं बल्कि स्वयं टिकट निरीक्षकों द्वारा बार-बार सिर्फ इसलिए खोला जा रहा था ताकि वे वातानुकूलित कंपार्टमेंट में से होते हुए स्लीपर व सामान्य श्रेणी के डिब्बों में आसानी से आ-जा सकें तथा रेलयात्रियों की जेबें झाड़ सकें। टिकट निरीक्षकों के इस स्वार्थ का परिणाम यह होता था कि स्लीपर क्लास के यात्री धड़ल्ले से वातानुकूलित कक्ष में प्रवेश करने लगते थे। वातानुकूलित श्रेणी का शौचालय प्रयोग में लाते थे। यहां तक कि स्लीपर क्लास के एक यात्री को एसी क्लास में खड़े होकर अपना हाथ-पैर और मुंह धोते हुए देखा गया। जिसके चलते कई घंटों तक फर्श पर पानी भरा रहा। अब यदि टिकट निरीक्षक की गलती के चलते वातानुकूलित कंपार्टमेंट में आए हुए उस अवैध यात्री से कोई बहस करे तो गोया यह लड़ाई-झगड़े को दावत देने जैसा काम है। यही नहीं बल्कि इस रास्ते को पार कर अवैध रूप से ट्रेन में सामान बेचने वाले हॉकर भी पूरी आज़ादी के साथ आ-जा रहे थे। केवल हॉकर ही नहीं बल्कि कई भिखारी भी उसी रास्ते से प्रवेश करते तथा वातानुकूलित श्रेणी में भीख मांगते हुए दिखाई दिए। और इसी आपाधापी के बीच यह समाचार सुनाई दिया कि दिन के समय ही एक यात्री का बड़ा बैग उसकी बर्थ से गायब हो गया। इस समाचार को सुनने के बाद मैंने एसी कंपार्टमेंट में एक टिकट निरीक्षक से इस विषय में पूछा कि आिखर वह स्लीपर क्लास की ओर का पार्टीशन करने वाला शटर द्वार बार-बार क्यों खोल रहे हैं जबकि एसी श्रेणी के यात्रियों द्वारा उसे हर बार बंद भी किया जा रहा है। इस प्रश्र पर बुज़ुर्ग टिकट निरीक्षक महोदय ने हालांकि यह स्वीकार किया कि कानूनी तौर पर हमारी व अन्य वातानुकूलित श्रेणी के यात्रियों की आपत्ति सही है। परंतु उन्होंने अपनी सुविधा का हवाला देते हुए तथा पूरी ट्रेन में चलने वाले टिकट निरीक्षकों की कम संख्या व डिब्बे अधिक होने की दुहाई देते हुए अपने शटर खोलने के नाजायज़ प्रयास को सही ठहराने की कोशिश की। गोया यदि टिकट निरीक्षक कम हैं और उन्हें पूरी ट्रेन में गाड़ी के चलते समय भी निरीक्षण करना है तो उन्हें यात्रियों की सुरक्षा तथा सुविधा को दरकिनार करने व उसकी अनदेखी करने में कोई हिचकिचाहट नहीं। सवाल यह है कि क्या रेलवे में स्टाफ की कमी का भुगतान भी रेल यात्रियों को ही करना पड़ेगा?

इसी वर्ष जून महीने में भी हमने इसी मार्ग पर इसी ट्रेन से यात्रा की थी। उस समय गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर हमने देखा था कि किस प्रकार जानबूझ कर रेलवे के स्टेशन अधिकारियों द्वारा ठेकेदारों की मिलीभगत से भीषण गर्मी में प्यास से बिलबिलाते यात्रियों को प्लेटफार्म पर मौजूद जल सुविधा से वंचित रखने का घिनौना अधर्म किया जा रहा था। जैसे ही पैसेंजर गाडिय़ां प्लेटफार्म पर आती थीं उसी समय प्लेटफार्म पर होने वाली जलापूर्ति केवल इसलिए बंद कर दी जाती थी ताकि लोग पानी की बोतलें खरीदने के लिए मजबूर हो सकें। और जिसके पास पानी की बोतल खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं वह यात्री यदि प्यास से तड़पकर मर भी जाए तो इन हरामखोर भ्रष्टाचारियों को इससे क्या लेना-देना? इस बार अपनी वापसी यात्रा के दौरान ऐसा ही नज़ारा शाहजहां पुर रेलवे स्टेशन पर देखने को मिला। जैसे ही सरयू-यमुना एक्सप्रेस जोकि मेरी यात्रा के दिन लगभग तीन घंटा देरी से चल रही थी, प्रात:काल शाहजहांपुर स्टेशन के तीन नंबर प्लेटफार्म पर पहुंची। यात्रीगण अपनी-अपनी खाली बोतलें लेकर पानी की टोंटियों की ओर टूट पड़े। परंतु सभी यात्री उस समय बड़ा हैरान हुए जबकि उन्होंने पानी की टोंटियों के आसपास पानी पड़ा हुआ तथा उस स्थान को नम तो ज़रूर देखा परंतु टोंटियों में जल की आपूर्ति नदारद थी। और मज़े की बात तो यह है कि जिस समय जलापूर्ति इस अधर्मी नेटवर्क द्वारा बंद की जाती है उस समय पानी की बोतलें बेचने वाले  हॉकर ही सबसे अधिक नज़र आते हैं। चाय,समोसा व पकौड़ा बेचने वाले कम। साफतौर पर देखा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी का यह कथन कि न हम खाएंगे न किसी को खाने देंगे इस भ्रष्टतंत्र पर काबू पाने में पूरी तरह असमर्थ है। क्यों असमर्थ है इसके लिए अधिक चिंतन करने की ज़रूरत नहीं क्योंकि जब मोदी अपनी नाक के नीचे बैठे पूर्व रेलमंत्री गौड़ा की संपत्ति को दिन दोगुनी रात चौगुनी होने से नहीं रोक सके तो वे रेल विभाग के लाखों भ्रष्टाचारी कर्मचारियों पर कैसे नकेल कस सकेंगे?अरविंद केजरीवाल और अन्ना हज़ारे सभी का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन इन अधर्मियों,भ्रष्टाचारियों व लूट-खसोट करने वालों के आगे दम तोड़ता दिखाई दे रहा है। यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि भारतीय रेल जिसे कि सुखद यात्रा के पर्याय के रूप में देखा जाना चाहिए था आज लूट-खसोट,भ्रष्टाचार तथा अधर्म का पर्याय बन चुकी है।

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