करोड़ों में खेलने वाले, ने किया करोड़ों की भावनाओं से खिलवाड़

rampalarrestशिकारी एक हिरण का पीछा कर रहा था। दौड़ता हुआ हिरण अचानक रूका और एक लता के पीछे छिप गया। शिकारी उसे ढूंढ़ता हुआ आगे निकल गया। हरी भरी लता को देखकर हिरण के मुंह में पानी आ गया और उसने लता को खाना आरंभ कर दिया। थोड़ी ही देर में उसने लता का काफी भाग खा लिया। उसी समय शिकारी उसे ढूंढ़ता हुआ पुन: वहीं आ गया। तब हिरण के लिए लता के पास छिपना संभव नही था, क्योंकि वह उस लता को खा चुका था। पहले वह उसी लता की ओट में अपनी प्राण रक्षा करने में सफल हो गया था। शिकारी ने खुले में खड़े हिरण को मार गिराया। मरते समय हिरण सोच रहा था कि जो लोग अपने आश्रय देने वाले के साथ कृतघ्नता करता है, उसका हश्र मेरे जैसा ही होता है।ज्

जब आध्यात्मिकता के नाम पर कुछ लोग किसी व्यक्ति को संत मानकर अपने हृदयासन पर विराजमान करें और वह संत उस हृदय की पवित्र भावनाओं की लता को खाना आरंभ कर दे तो बिना लाग लपेट के कहा जा सकता है कि उस कथित संत की स्थिति तो उस हिरण से भी बुरी होगी। क्योंकि आस्था के साथ खिलवाड़ करना या किसी की आस्था को स्वार्थ पूर्ति के लिए प्रयोग करना सबसे बड़ी कृतघ्नता है।

धर्म के विषय में कहा गया है कि धर्म उसी की रक्षा करता है जो स्वयं धर्म की रक्षा करता है। रामपाल जैसे असत पुरूष ने स्वयं के संत होने का एक मायावी भ्रम तैयार किया और बड़ी संख्या में लोगों का मूर्ख बनाने में सफल हो गया। संत के लिए मायावी भ्रमों  का जाल बुनना या लोगों को मूर्ख बनाना सबसे बड़ा अधर्म है। रामपाल धर्म की रक्षा नही कर पाया तो धर्म ने उसका भी साथ छोड़ दिया, और हम देख रहे हैं कि कल का एक च्शहंशाहज् आज सलाखों के पीछे चला गया है। माना कि आप सारी दुनिया को ठग सकते हैं पर धर्म को नही ठग सकते, और यदि धर्म को ठगने का प्रयास आपने किया तो धर्म के न्यायचक्र से तुम छूट नही पाओगे। वह तुम्हें कसौटी पर कसेगा अवश्य और कसकर देखने पर उसके पश्चात अपना न्याय भी देगा। रामपाल के साथ जो कुछ हुआ है वह उसके अधर्म का फल है। इसी को न्याय कहते हैं।

संत के विषय में यह सत्य है कि उसकी सतोगुणी वृत्ति होती है और वह सतोगुणी होने के कारण ही साधनारत रह पाता है। साधनारत व्यक्ति ही साधु होता है। पर साधु के लिए भी यह आवश्यक नहीे कि वह गेरूए रंग के वस्त्र धारण करने वाला ही हो, वह सत्व के प्रकाश में चित्त की प्रसन्नता के साथ आनंदलोक में विचरण करने वाला होता है, महा तपस्वी होता है वह,राग द्वेष से मुक्त होता है वह, निंदा वंदन का क्रंदन उस पर किसी प्रकार का बंधन नही डाल सकता। उस वीतराग को किसी के महल से किसी प्रकार का लगाव नही होता और किसी की झोंपड़ी से किसी प्रकार की घृणा नही होती। वह समभाव और सद्भाव की साकार मूर्ति होता है। मां भारती ऐसे दिव्य पुरूषों की आरती के लिए प्राचीन काल से थाल सजाए खड़ी रही है। इसलिए यह देश कभी गौतम, कणाद का देश बना तो कभी अध्यात्म से मुंह फेर गयी राजनीति को धर्म के केन्द्र के साथ जोडक़र चलाने वाले चाणक्य की भूमि बनी। यहां सृष्टि प्रारंभ में अग्नि,वायु,आदित्य,अंगिरा ने वेद ज्ञान को सीधे ईश्वर से ग्रहण किया और उसे लोक कल्याणार्थ आगे के लिए मनुष्य की पीढिय़ों को यूं दे दिया जैसे इस पर उनका कोई अधिकार ही नही था। मनु महाराज ने इस परंपरा को आगे ज्यों का त्यों बढ़ाया, पतंजलि ने अपने दिव्य ज्ञान को योगदर्शन के माध्यम से लोगों के हृदय मंदिर में एक दिव्य दीपक के रूप में ज्योतित कर प्रतिष्ठित किया। यहां राम के साथ वशिष्ठ  हैं, विश्वामित्र हैं, तो युधिष्ठर के साथ स्वयं कृष्ण हैं, जो योगिराज हैं, और क्षत्रिय कुल में उत्पन्न होकर एक संत के समान या एक ऋषि के समान जीवन जीने वाले हैं। आज उसी देश में कुछ लोग संतत्व का अपमान करते हुए स्वयं को संत घोषित करते हैं, और बड़े बड़े पापों में, घोटालों में, या अपराधों में संलिप्त मिलते हैं। रामपाल ने हम सबके साथ पुन: छल किया है। यह छल इस देश की एक लंबी उस संत परंपरा के साथ विश्वासघात है जो इस देश की संस्कृति का अटूट भाग रही है या जिसने इस देश की संस्कृति का निर्माण किया है। करोड़ों में खेलने वाले ने करोड़ों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है, फल बड़ा भयानक होगा।

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