Categories
आतंकवाद

राष्ट्रगीत के रूप में मुस्लिमों को वंदे मातरम कबूल नहीं’: जिन्ना ने 1938 में कहा, आज भी उसी एजेंडे को आगे बढ़ा रहे कट्टरपंथी


आजादी के अमृत महोत्व का जश्न मनाते हुए 19 दिसंबर 2021 को कई जगह भारत का राष्ट्रगीत बड़ी तादाद में इकट्ठा होकर गुनगुनाया जाना है। काशी में तो दो लाख से ज्यादा लोगों द्वारा राष्ट्रगीत गाए जाने का ऐलान है। सोशल मीडिया पर भी यदि देखें तो नेटिजन्स अपनी देशभक्ति दिखाने के लिए गर्व से ‘वंदे मातरम’ लिखते हैं।

यह सब देख साफ है कि देश को समर्पित चाहे कोई भी अवसर हो, ‘एक सुर’ में गाया गया राष्ट्रगीत हमेशा देश के नागरिकों में उस नई ऊर्जा का संचार करता है, जो आम जन के चेहरे पर देखते ही बनती है। इस गीत के लिए दशकों से राष्ट्रप्रेमियों के मन में सम्मान है। कई क्रांतिकारी तो इसे गुनगुनाते हुए फाँसी के फंदे तक पर झूल गए और कुछ ने इसे समूचे भारत की तस्वीर बताया।

लेकिन, कहते हैं न हर नायाब चीज में कमी निकालकर उसे कोसने वाले लोग अपने ही समाज में होते हैं, कुछ ऐसा ही ‘वंदे मातरम’ के साथ भी हुआ। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा लिखित यह एक कविता थी जिसे 1882 में बंगाली उपन्यास आनंदमठ में शामिल किया गया और 1896 में रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इसे गीतबद्ध किया।

 जब पूरा देश इस गीत को गुनगुना रहा था। इसे सुन राष्ट्र प्रेम की नई परिभाषा गढ़ चुका था, श्री अरबिंदों ने इसे राष्ट्रवाद का मंत्र बता दिया था, लाला लाजपत राय ‘वंदे मातरम’ नाम से उर्दू साप्ताहिक निकाल रहे थे, मैडम भीकाजी कामा ‘वंदे मातरम’ लिखा भारतीय झंडा विदेश में लहरा चुकी थीं, तब मुस्लिम लीग ने इस गीत का विरोध 1908 में शुरू किया।

चूँकि, इस गीत में मातृभूमि की वंदना है और इसमें तुलना के तौर पर देवी-देवताओं का जिक्र किया गया है, इसलिए कुछ कट्टरपंथी व अलगाववादी विचार वाले लोगों ने इस पर नाराजगी दिखानी शुरू की। सर्वप्रथम अमृतसर में हुए अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के दूसरे अधिवेशन में 30 दिसंबर, 1908 को अपना अध्यक्षीय भाषण देते हुए सैयद अली इमाम ने वंदे मातरम का विरोध किया और इसके बाद खिलाफत आंदोलन के जरिए जब देश में कट्टरपंथ का बीज रोपा गया, उसके बाद यह भावना प्रबल होती गई कि वंदे मातरम इस्लाम विरोधी है।

नतीजन 1937 में कॉन्ग्रेस ने जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक समिति गठित की और समिति में मुस्लिम प्रतिनिधि के तौर पर मौलाना अबुल कलाम आजाद को शामिल किया गया। आजाद ने गीत को पढ़ा और पाया कि इसके शुरूआती दो पद इस्लाम विरोधी नहीं हैं क्योंकि वो मातृभूमि की प्रशंसा में कहे गए हैं जबकि इन दो पदों के बाद हिंदू देवी देवताओं का उल्लेख है।

समिति के विचार-विमर्श के बाद एक फैसला आया और नेहरू के नेतृत्व में कॉन्ग्रेस कार्यसमिति ने 26 अक्टूबर 1937 में एक लंबा बयान जारी कर दिया। इसमें मुस्लिम बंधुओं का विरोध देख अपील की गई थी कि वंदे मातरम को आनंदमठ से अलग करके पढ़ा जाए और इसके केवल दो ही छंद इस्तेमाल हों जिनमें हिंदू देवी-देवताओं का उल्लेख नहीं बल्कि मातृभूमि के सौन्दर्य और गुण की चर्चा है।

देश के सेकुलर नेताओं द्वारा हिंदू बहुल देश के लिए लिया गया यह फैसला उस समय बौना पड़ा जब जिन्ना जैसी कट्टरपंथी ताकतों ने दोबारा अपने फन उठाए। सैयद अली के विरोध के ठीक 3 दशक बाद मुहम्मद अली जिन्ना ने 1 मार्च 1938 में इस गीत के विरोध में मुहिम को छेड़ा और द न्यू टाइम्स ऑफ लाहौर में लिखा गया, 

“पूरे भारत में मुसलमानों ने वंदे मातरम या मुस्लिम विरोधी गीत के किसी भी संस्करण को बाध्यकारी राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार करने से इनकार कर दिया है।”

जिन्ना का वंदे मातरम के लिए विरोध और इसके पीछे उनकी मंशा क्या थीं.. आज ये अलग से बताने की जरूरत नहीं है। उसकी जिद्द ने और मजहब परस्ती ने पूरे देश को दो हिस्सों में बाँट दिया। लेकिन उसके जैसी मानसिकता वाले लोग आज भी देश में पल बढ़ रहे हैं। बस फर्क ये है कि उसने इस्लाम के नाम पर खुले में अपना विरोध किया और अब सेकुलरिज्म के नाम पर तर्क दिए जाते हैं कि वंदे मातरम का अर्थ बुत-परस्ती से है इसलिए वह इसे नहीं गुनगुना सकते हैं।

आज भी वंदे मातरम का विरोध

पिछले दिनों वंदे मातरम का ऐसा ही विरोध बिहार विधानसभा में हुआ था तब ओवैसी की पार्टी के विधायकों ने इसे लोकतंत्र के विरुद्ध बताकर गाने से मना कर दिया था। अख्तरुल इमान ने कहा था कि उन्हें इससे समस्या है और किसी की मजाल नहीं है कि कोई उन्हें ये गाने को मजबूर करे।

इसी तरह समाजवादी पार्टी के नेता शफीकुर्रहमान बर्क ने भरी लोकसभा में वंदे मातरम को इस्लाम विरोधी बताया था। इसके बाद उर्दू में शपथ लेने के बाद बर्क ने कहा कि भारत का संविधान जिंदाबाद लेकिन जहाँ तक वंदे मातरम का सवाल है यह इस्लाम के खिलाफ है और वो इसका पालन नहीं कर सकते। सांसद के यह कहते ही सदन में और जोर-जोर से वंदे मातरम का नारा लगने लगा।

बर्क ने यह वंदे मातरम का अपमान पहली दफा नहीं किया था। 2013 में बीएसपी सांसद रहते हुए उन्होंने वंदे मातरम का बहिष्कार करने के लिए संसद से वॉकआउट किया था और उससे पूर्व उन्होंने 1997 में संसद के 50 साल पूरे होने पर आयोजित स्वर्ण जयंती कार्यक्रम में भी वंदे मातरम का बहिष्कार किया था। इसको लेकर तब उनका तर्क था कि वंदे मातरम का मतलब भारत माता की पूजा या वंदना करना है और इस्लाम में पूजा करना जायज नहीं है। जिसकी काफी आलोचना हुई थी।

21 अप्रैल 2019 में राजद के वरिष्ठ नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी ने वंदे मातरम बोलने से इनकार कर दिया था। उन्होंने कहा था कि उन्हें भारत माता की जय बोलने से कोई परहेज नहीं है, मगर राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम गाना उनकी आस्था के खिलाफ है। सिद्दीकी ने कहा था, ‘‘जो एकेश्वर में विश्वास रखता है वह कभी भी वंदे मातरम नहीं गाएगा।”

लोकतांत्रिक देश के बड़े-बड़े नेताओं द्वारा ‘वंदे मातरम’ के लिए इतनी नफरत जाहिर है किसी को भी अचंभित करेगी ही, लेकिन बता दें उनके जहन में ये कट्टर बातें दशकों से डाली जाती रही हैं और आने वाली पीढ़ी को भी यही परोसा जा रहा है।

उदाहरण के लिए 2019 की घटना पढ़िए। उस साल 26 जनवरी को देवबंद में मदरसा जामिया हुसैनिया के मुफ़्ती तारिक़ कासमी ने 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के मौके पर वंदे मातरम गाने और ‘भारत माता की जय’ भी बोलने पर पाबंदी लगा दी थी। फरमान में कहा गया था, “इस्लाम में सिर्फ़ अल्लाह की इबादत होती है। भारत माता की जय बोलते समय एक प्रतिमा का ख़याल आता है, इसी कारण मुस्लिमों को यह नारा नहीं लगाना चाहिए।” 

वंदे मातरम के प्रति प्रेम

कट्टरपंथी विचारों के कारण जो विरोध हमारे राष्ट्रगीत का पिछले 112 सालों में हुआ, उसने कभी इसकी महत्ता पर असर नहीं डाला। देश और देश की सेना के सम्मान में आज भी ‘वंदे मातरम’ गर्व से गाया जाता है। 24 जनवरी 1950 को देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने इसके शुरुआती दो स्टैंजा को राष्ट्रगीत घोषित किया था। उन्होंने इस गीत को लेकर कहा था,

“वंदे मातरम गीत, जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है, को जन गण मन के समान सम्मानित किया जाएगा और इसे समान दर्जा दिया किया जाएगा।”

Comment:Cancel reply

Exit mobile version