सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा श्रीराम, अध्याय – 12( ख) संपूर्ण भारत ही बन जाए श्रीराम मंदिर


         आज हम जब श्री राम जन्मभूमि पर अयोध्या में मंदिर बना रहे हैं तो वह मंदिर श्रीराम के अथक और गंभीर प्रयासों का प्रतीक है। जिनके चलते हमने संपूर्ण भूमंडल को ही मंदिर में परिवर्तित कर दिया था। आज उनका यह प्रतीकात्मक मंदिर अपनी भव्यता और विशालता को तभी प्राप्त कर पाएगा जब यह संपूर्ण भूमंडल से राक्षस संस्कृति को मिटाकर अर्थात आतंकवाद और आतंकवादियों को मिटाकर ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम्’ के भारत के प्राचीन लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा।
विश्व शांति और मंदिरों की भारतीय संस्कृति का गहरा संबंध है। मंदिर ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का लघु रूप है और मंदिर का विशाल रूप ‘वसुधैव कुटुंबकम’ है। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ धरती पर धर्म की परंपरा और मान मर्यादा को स्थापित करने से बनता है और ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ के फल उस पर तभी लगते हैं जब लोग संपूर्ण वसुधा को ही एक मंदिर परिवार में परिवर्तित कर लेते हैं।
संपूर्ण वसुधा को मंदिर परिवार में परिवर्तित करने के लिए जहां राम के वे गुण अपनाए जाने आवश्यक हैं, जिन पर हम पिछले अध्यायों प्रकाश डाल चुके हैं, वहीं श्रीराम जैसी मित्रता के भावों को अपनाने से ही ऐसा हो पाना संभव है।
     रामचंद्र जी ने जिस व्यक्ति को अपने जीवन में अपना मित्र मान लिया या कह दिया उसके प्रति वह सदैव मित्र भाव से भरे रहे । उन्होंने अपने मित्रों के प्रति अतुलनीय प्रेम भाव बनाये रखा। उन्होंने मित्र भाव के प्रदर्शन के समय किसी भी व्यक्ति के सामाजिक स्तर को नहीं देखा । उन्होंने केवल उसके हृदय में रचे बसे स्नेहपूर्ण संसार को देखा और इसी संसार से प्रभावित होकर उसके प्रति सदैव उदार बने रहे। उन्होंने अपनी ऐसी मित्रता के भाव को अपने मित्र निषाद राज गुह के प्रति दिखाकर प्रकट किया। निषाद राज जैसे उनके मित्रों ने उनके लिए संपूर्ण संसार में मित्रों का ढेर लगा दिया। कहने का अभिप्राय है कि निषाद राज जैसे लोगों के प्रति श्रीराम के आदर्श और उदार व्यवहार को देखकर अनेकों लोग उनके के प्रति आकर्षित हुए। जिन्हें श्रीराम ने वैसे ही गले लगा लिया जैसे एक माता अपने बच्चों को गले लगा लेती है।

  मीत जिसे हम मानते , करते दिल से प्यार ।
सीख यही है राम की करे भव से बेड़ा पार।।

  राम की मित्रता में हाथ पकड़कर चलने का भाव था । उनकी मित्रता किसी के प्रति कपट भाव से भरी हुई नहीं थी। इसके स्थान पर वह सबके प्रति सहृदय होकर उसके उत्थान और उद्धार की कामना करते थे। जबकि उसी समय रावण जैसे राक्षस भी थे जो लोगों को मित्र बनाकर भी उनके विनाश की योजना में लगे रहते थे। जब लोगों ने रामचंद्र जी के इस आदर्श और मर्यादित व्यवहार को देखा तो स्वाभाविक रूप से उनका आकर्षण श्री राम की ओर बढ़ा। श्रीराम के हृदय में ईश्वर भक्ति, गुरु भक्ति और पितृभक्ति की त्रिवेणी बहती थी। इसी त्रिवेणी को आप उनकी वेद भक्ति ,देश भक्ति और धर्म भक्ति भी कह सकते हैं। जिसमें डुबकी लगाकर पतित हृदय व्यक्ति भी पवित्र हृदय हो जाता था।
  श्रीराम के हृदय में बहने वाली ईश्वर भक्ति , गुरु भक्ति और पितृ भक्ति ने उन्हें कृतज्ञता का गहरा पाठ पढ़ाया। उन्होंने जटायु को जब मृतप्राय अवस्था में देखा तो उनका हृदय भर आया। वानर जाति के उन मानव लोगों ने श्रीराम को लंका चढ़ाई में सहायता प्रदान की । उन्होंने रावण के साथ होने वाले श्रीराम के युद्ध में भी उन्हें अपना पूरा सहयोग दिया। उनके इस एहसान के प्रति रामचंद्र जी कदम – कदम पर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते रहे। उन्होंने एक बार भी यह नहीं कहा कि रावण पर उन्होंने स्वयं ने अपने पराक्रम और पौरुष से विजय प्राप्त की । इसके विपरीत वे रावण पर अपनी विजय को वानर जाति के लोगों की सहायता से मिली विजय के रूप में देखते रहे । इससे उनके मित्रों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई।
जब श्रीराम ने अयोध्या का राजा विभीषण को बना दिया तो उस समय उन्होंने वानर जाति के वीर योद्धाओं के प्रति अपनी कृतज्ञता को प्रकट करते हुए विभीषण को यह आदेश दिया कि – “विभीषण ! इन सारे वानरों ने अभी हाल ही में संपन्न हुए युद्ध में बड़ा यत्न और परिश्रम किया है। अतः तुम नाना प्रकार के रत्न और धन आदि के द्वारा इन सब का सत्कार करो। यह वीर वानर संग्राम में पीछे नहीं हटते हैं और सदा हर्ष और उत्साह से भरे रहते हैं । प्राणों का भय छोड़कर लड़ने वाले इन वानरों के सहयोग से तुमने लंका पर विजय पाई है।”
श्री राम का जीवन एक खुली किताब है। जो हर व्यक्ति को कुछ ना कुछ महत्वपूर्ण संदेश देती है। उनके जीवन से हमें यह संदेश मिलता है :-

जो हम पर कुछ एहसान करे
सदा कृतज्ञ रहो उसके प्रति ।
मत भूलो जीवन की क्षणभंगुरता
है मानव विधाता की अनुपम कृति।।

श्रीराम आज के राजनीतिज्ञों की भांति अवसरवादी नहीं थे। वह बुद्धिवादी और व्यावहारिक सोच रखने वाले महान व्यक्तित्व के धनी थे। यदि आज के राजनीतिज्ञों की कार्यशैली पर विचार करें तो अपना स्वार्थ सिद्ध होते ही ये लोग उन लोगों का तिरस्कार कर देते हैं जिन्होंने इनको मंजिल तक पहुंचाने में सहयोग दिया होता है । यहां तक कि 5 वर्ष के लिए जब कोई राजनीतिज्ञ विधायक या सांसद बन जाता है तो वह अपने मतदाताओं तक को भी भूल जाता है। उसके भीतर कृतज्ञता का भाव नहीं होता।  ऐसा व्यक्ति कृतघ्नता दिखाता है और अपनी सुख ऐश्वर्य की जीवन शैली के समक्ष सभी लोगों को तुच्छ समझने लगता है । राम के देश में राजनीतिज्ञों का ऐसा आचरण अपवित्र तो है ही साथ ही निंदनीय भी है।
आज के राजनीतिक लोगों की सोच है कि स्वार्थ सिद्धि अर्थात लक्ष्य प्राप्ति होते ही लक्ष्य के साधन अर्थात सीढ़ी को हटा दो। जिससे कि उसी सीढ़ी का प्रयोग करके कोई दूसरा व्यक्ति उनके साथ मंजिल पर आकर खड़ा ना होने पाए। आज के अनेकों राजनीतिज्ञों ने अपने उन साथियों को या तो धोखा दिया है या उनके ऊपर उठने के सारे रास्ते बंद कर दिए हैं जिनके कंधों को सीढ़ी बनाकर इन्होंने ऊंचाई प्राप्त की है। इतना ही नहीं कई राजनीतिज्ञों पर तो ऐसे आरोप भी लगे हैं कि उन्होंने अपने किसी खास व्यक्ति की हत्या तक करा दी। कई ऐसे राजनीतिक लोग भी सुने जाते हैं जिन्होंने घर में कोठी के भीतर तालाब बनवा रखा है और उसमें मगरमच्छ पाल रखे हैं । जिनका प्रयोग वे अपने राजनीतिक विरोधी की हत्या करने तक में प्रयोग करते हैं। जिस गांधी की अहिंसा को बार-बार दोहरा कर यह लोग समाज में शांति स्थापित करने की बात करते देखे जाते हैं और जिस गांधी को राष्ट्रपिता कहते कहते इनकी जीभ सूख जाती है उसी गांधी के देश में इतना गिरा हुआ आचरण देखकर बड़ा आश्चर्य होता है। आश्चर्य तब भी होता है जब हम श्रीराम के नाम की माला तो जपते हैं परंतु उनके चरित्र की माला नहीं जपते। ‘मुंह में राम बगल में छुरी’ लेकर हम चलते रहते हैं।

आचरण पाखंड का व्यवहार छलिया हो गया।
चित्र रखते राम का और चरित्र दुर्बल हो गया ।।
देश से नहीं प्यार जिनको और धर्म से भी दूर हैं।
नेता विवेकशून्य हैं जिनको व्यर्थ का गुरूर है।।

यदि श्रीराम आज के राजनीतिज्ञों को देख रहे होते तो इन पर अत्यंत कुपित होते। ऐसी राजनीति और राजनीतिज्ञों को वह निश्चय ही भयंकर अग्नि को समर्पित कर देते । वास्तव में ऐसे स्वार्थी लोगों के कारण भारतीय समाज को बहुत अधिक हानि हुई है। ऐसे में इनका उपचार केवल यही है कि इन्हें अग्नि में झोंक दिया जाए। राजनीति में शुचिता की बात करने वाले लोगों को रामचंद्र जी के आदर्श व्यक्तित्व से शिक्षा लेनी चाहिए और राजनीति में मित्रता और कृतज्ञता के पवित्र भावों को हृदय की गहराइयों से निभाना चाहिए। यह बात हमारे देश के उन राजनीतिज्ञों को अवश्य अपनानी चाहिए जो ‘गठबंधन’ की राजनीति करते हैं परंतु वास्तव में निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपने गठबंधन को ‘ठगबंधन’ के रूप में परिवर्तित कर देते हैं।  एक दूसरे की आंखों में धूल झोंकने का काम गठबंधन की राजनीति में विश्वास रखने वाले ऐसे राजनेता चौबीसों घंटे करते रहते हैं और इसके उपरांत भी देश के लोगों से यह अपेक्षा करते हैं कि वह सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवन में ईमानदार रहें। जब देश की राजनीति ‘ठगबंधन’ की राजनीति बन जाती है तो देश के नागरिकों पर भी उसका वैसा ही प्रभाव पड़ता है। यदि आज देश में ‘ठगबंधन’ की प्रक्रिया ऊपर से नीचे तक फैल गई है तो इसका कारण आज की दूषित और प्रदूषित राजनीति है । श्रीराम ऐसी राजनीति के समर्थक नहीं थे, वह निश्चय ही इस प्रकार की राजनीति और राजनीतिज्ञों को पसंद नहीं करते।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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