आशावादी होकर जियें


अब गरीबी से रमेश का मन टूट चुका था। वह जीवन संग्राम में एक निराश योद्धा की भांति दिखाई दे रहा था। उसे लगता था कि अब उसका जीवन व्यर्थ है। क्यों नहीं उसे अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेनी चाहिए?
   कहते हैं मां गरीबी में व्यक्ति की सबसे बड़ी मित्र होती है। रमेश के लिए सौभाग्य की बात थी कि उसकी मां अभी जीवित थी।
मां बेटे की हताशा और उदासी को बड़ी गंभीरता से देखा करती थी। कभी-कभी बैठकर उसे समझाने का प्रयास भी करती तो वह मां की बातों को अनसुना कर उसके पास से उठ जाता और इधर उधर टहलने लगता या फिर घर से बाहर निकल जाता।
मां रमेश की इस प्रकार की हरकतों से चिंतित रहने लगी थी।
एक दिन रमेश ने आत्महत्या करने का मन बना लिया। वह बाजार से जाकर एक रस्सी भी ले आया। आज वह जीवन से पूरी तरह हार चुका था। फंदे पर लटकने से पहले उसने एक बार बाहर जाकर पूरी दुनिया को नजर भर देखने का मन बनाया।
   तभी वह क्या देखता है कि उसकी मां उसकी ओर आ रही थी। आज माँ पहले से बहुत ज्यादा खुश दिखाई दे रही थी। उसकी खुशी को देखकर रमेश अपनी फांसी पर लटकने की योजना को भूल गया । उसने कहा कि – मां आप तो कुछ ज्यादा ही खुशी दिखाई दे रही हो?’ माँ ने कहा हां – ‘बेटा ! आज मैं बहुत खुश हूं, क्योंकि मुझे तेरी समस्या का समाधान मिल गया है।’
रमेश ने आश्चर्य से पूछा माँ क्या हो गया ? तब माँ ने कहा कि आ, मेरे साथ जंगल में चल। रमेश मां की बात को मान गया। दोनों मां बेटा जंगल में जाते हैं ।मां रमेश को एक ऐसे आम के वृक्ष के पास ले जाकर खड़ा कर देती है जो आंधी में उखड़ कर गिर गया था , परंतु उसकी एक ओर की जड़ धरती में जमी रह गई थी। किसान ने उसका 10 -12 फ़ीट का तना छोड़ दिया था, बाकी सारे पेड़ को काट दिया था। तभी कुछ समय पश्चात उस पेड़ से कोंपलें फूटीं और बढ़ने लगीं। देखते – देखते ही आम के वृक्ष से फूटी वे कोंपलें फिर से एक दरख़्त में बदल गईं।
मां ने कहा रमेश जब इस वृक्ष ने हार नहीं मानी तो तू क्यों मानता है?
  रमेश को मां की बात समझ में आ गई । उसने समझ लिया कि आदमी को अंतिम क्षणों तक आशावादी होना चाहिए।

— डॉ राकेश कुमार आर्य

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