मेरे हृदय के उद्गार, भाग-17

महाशक्तियों की कूटनीति
मानव के मुखौटे में दान को, इस तरह से ये ढालते हैं।
बंशी की धुन पर मस्त मृग, ज्यों आखेटक नही पहचानते हैं।

क्या कभी सोचकर देखा है, इस छल प्रपंच का क्या होगा?
यदि नमाजी नही मस्जिद में, ऐसी मस्जिद का क्या होगा?

मानव ही मानव बन न सका, बहुमुखी विकास का क्या होगा?
क्या कभी यह सोचकर देखा? निकट है काल की रेखा।

चिनकर दीवारें नफरत की, मानवता का महल बनाता है।
अफसोस अधिक तब होता है, दानव मानव कहलाता है।

सोचो क्या मकां टिक पाएगा, जहां ईष्र्या द्वेष की ईंटें हों?
मानव अस्थियों का चूर्ण हो, मानव के खून की छीटें हों।

अन्याय विषमता पलती हो, निर्दोषों की आह निकलती हो।
जहां पाप को पाला जाता हो, सच्चाई को फांसी लगती हो,

जहां सबसे ऊपर स्वार्थ हो, परमार्थ, भुलाया जाता हो।
शक्ति और आतंक के द्वारा, लोगों को सताया जाता हो।

जहां वर्चस्व के लिए हिंसा हो, भ्रष्टïचार का बजता डंका हो।
जहां शांति वार्ता चलती हो, और युद्घ विभीषिका भी पलती हो।

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