तीस साल पहले जिस भारत को मैं गया था, वह आज के भारत से बिलकुल अलग मुल्क था। विदेशी के जेहन में उस वक्त यह अभी भी एक धुँधले, लेकिन व्यापक खतरे के खिलाफ आगाह करता था। सैलानी जरते थे कि उन्हें कोई छूत न लग जाए. भारत गन्दगी और मुसीबत की जगह के रूप में जाना जाता था। कई एक सैलानी यहाँ की गरीबी से स्तंभित होकर फिर लौटकर नहीं आना तय कर वापस जाते थे।
निश्चित रूप से 1980 ई का भारत मितव्ययी और बचत करने की रूझान रखता था। जाहिरा तौर पर विलासिता नहीं थी और उपभोग प्रत्यक्षत: नहीं था। बम्बई में मेरे ठहरने की पहली जगह मैडम कैमा रोड पर स्थित वायडब्लूसीए से सम्बद्ध एक गेस्टहाउस थी। यह साफ सुथरा और बिना किसी साज सज्जा के बुनियादी सहूलियतें देता था। अगर आप पिछली रात को ऑर्डर कर देते तो राज के दिनो की विलासिता ‘’बेडटी‘’ मिल जाती थी। इसके समय को शंखमर्मर की तरह के एक रजिस्टर में लिख लिया जाता था, जो शास्त्र की तरह दिखता था। उस वक्त मैं जिन लोगं से मिला, उनमें से अधिकांश शिक्षक, व्याख्याता ऐक्टिविस्ट और पत्रकार थे। मुझे उनके घरों की भीतरी सजावट की एक संयुक्त याद है, जो फीके, बिना सुविधाओं के आवास थे। यह ‘’सादा जीवन उच्चविचार’’ समूह के लिए उपयुक्त थे जो भोतिक सुविधाओं को तुच्छ मानते थे। ये भोतिक सुविधाएँ मोटामोटी तौर पर उपलब्ध भी नहीं थीं। पर कोई भी इन के लिए हायतौबा नहीं करता था वे जीने को गर्मी और असुविधाओं के बीच किए जानेवाला संघर्ष मानते थे। इनमें गरीबी, सार्वजनिक मलिनता और नौकरशाही बाधाओं का साथ अक्सर रहा करता था। मुझे सरकारी दफ्तरों का उनींदापन भी याद है जहां टेबल पर पड़ी पाइलों को उनके ऊपर घूमते हुए सिलिंग फैन शायद ही परेशान करते थे और वहाँ के कर्मचारियों को उनकी अन्यमनस्कता से उबारने में बहुत कम उत्साह दिलाते थे।
अब मैं अपने तब के मित्रों के आडम्बरहीन घरेलू नजारे की बात करूँ। ऐसा करने का उद्देश्य मुख्यत: आज के सुविधाभोगी बुद्धिजीवियों के मुकाबले में फर्क उजागर करना है। उनके कैबिनेट, ड्रॉअर और आलमारियों, पत्थर के फर्श, काठ की कुर्सियाँ और खाट मुझे याद हैं। उनके गद्दे तक कड़े हुआ करते थे।
उनके घरों में नजाकत नहीं थी, लेकिन चावल, दाल, सब्जी का पौष्टिक भोजन निश्चित रूप से परोसा जाता था। उन घरों में, टेलिविजऩ अगर मौजूद होता था, तो उसमें केवल अनाकर्षक समाचारवाचकों की कैमरे में रूक रूक कर खबरें पढ़ती तस्वीरें ही दिखती थीं। गर्म पानी तुनकमिजाज गिजरों से मिलता था जो अक्सर फट जाया करते थे। धूप, हवा और दीमक से बिना किसी बचाव के किताबें सजी होती थीं। और जब कभी ल्यूकाक्स, टेनिसन अथवा टैगोर की कोई किताब निकाली जाती, हर पन्ने के खस्ता टुकड़े जमीन पर तैरा करते। धूल के गुच्छे पतझड़ के मौसम में बिखरे पत्तों की तरह फैले होते। चरमराते पंखे हवा और दीवाल की झड़ती हुई प्लास्टर पर पर लटकते मकड़ी के जालों को हिलाया करते । घर की हवा में साबुन के झाग की महक फैली हुई हुआ करती थी। मृत माता-पिता की माला लगी धुँधली पड़ गई तस्वीरें सम्मान के साथ दीवाल की उपरी भाग में टँगी हुआ करती थीं। कमरों में धब्बेदार इश्तेहार और जीरॉक्स किए कागज के टुकड़े बिखरे रहते , जिनपर सभा में शामिल होने विरोध प्रदर्शन या किसी बदनाम मंत्री को घेराव करने जैसी बातें लिखी होतीं।
लेकिन आपसी बातचीत की गर्माहट भौतिक सुविधाओं के अभाव की भरपाई कर देती थी, क्योंकि लोग मुख्यत: अभी भी आशावादी और भविष्य के प्रति आशा से भरे हुए थे। वामपंथ की गूँज अभी कायम थी।जहाँ अब सन्नाटा है. तब सामाजिक न्याय एवम् प्रगति के लिए प्रतिबद्धता सम्पत्ति की निश्चयात्मक एवम् कठोर मूर्तिपूजा में गुम नहीं हुई थी। इसने इन सपाट घरों को कमोबेश रूपान्तरित कर दिया है और बदले हुए माहौल ने बहस के तीखेपन को भोथरा कर दिया है । लगता है कि अवलोकन की तीक्ष्णता को नाजुक साज सामान और संकोचशील समृद्धि ने धुँधला कर दिया है। इस प्रक्रिया में, समय के साथ आगे बढऩे में तथा नब्बे के दशक के प्रारम्भ में उभड़ी उदारीकरण की बयार का लाभ लेने में असफल लोगों की घर के बनी और कामचलाऊ चीजें कुत्सित मालूम होने लगी हैं।, बाद में मैं होटलों में भी, मुख्यत: सरकारी प्रतिष्ठानों में, ठहरा। इनमें साफ सफाई और ताजगी एक दम से गायब रहा करती थी फिर बी भारत के साथ करीब तीस साल पहले की यह मुलाकात आनन्दरहित नहीं थी। सैलानी अभी आम नहीं हुए थे. टूटी फूटी हिन्दी बोल सकनेवाले किसी भी सैलानी का उत्साह के साथ स्वागत किया जाता था। परिवारों में सदस्य की तरह की हैसियत मिल जाती थी . आप चाचा या भाई के रूप में सम्बोधित किए जाते थे और आननफानन में रिश्तेदारों के एक जाल से जुड़ जाते थे, जिससे अपने आपको निकाल लेना बड़ा कठिन हुआ करता था। यह लोकप्रिय सामाजिक आन्दोलनों का काल-खण्ड था. जिन्हें अभी एनजीओ, सिविल सोसायटी अथवा सामाजिक उद्यमिता के अगुआई वाली संस्थाओं ने अपने में निगला नहीं था। अभी भी मुमकिन लगता था कि जनता की लामबन्दी और लोकप्रिय कोशिशों के जरिए एक अधिक न्याय संगत व्वस्था कायम की जा सकती है। मैं चिपको एवम् आप्पिको कायऱ्कर्ताओं, झुग्गीझोपडिय़ों और भूमिहीन प्रवासी मजदूरों और दाइयों के श्रमसंगठनों के नुमाइन्दों से मिला। भारत का भविष्य अभी उभड़ा नहीं था, हालाँकि बदलाव के निशान गैरहाजिर नहीं थे। शंकर गुहा नियोगी की हत्या के बाद मैं छत्तीसगढ़ में था और संकेत मिले थे कि बहाव का बदलना शुरु हो गया है। सोवियत संघ का बिखराव और भारत के विश्व अर्थव्यवस्था के साथ समन्वय, बाजारों का उभडऩा, वृहद् मध्य वर्ग का लापरवाह उपभोग के चुम्बन के प्रति खिंच आना — ये सब दिखलाते हैं कि भारत का भाग्य निश्चित रूप से तय हो चुका है। कारपोरेट सिद्धान्त ने सामाजिक न्याय के संघर्ष की जगह ले ली है और जन संघर्ष के एवज में उच्च आर्थिक विकास सम्मानित हो गया है।
इसका एक नतीजा है कि अब प्रतिरोध सविनय अवज्ञा, निन्दनीय नेताओं की सार्वजनिक भत्र्सना के बजाय अडिय़ल रूढि़वादियों. धर्मनिरपेक्ष एवम् धार्मिक— दोनों से आया करता है। अन्ना हजारे जैसी फेनोमेनन से बहुत अधिक स्तंभित नहीं हो जाना चाहिए। मिडिया द्वारा आयोजित उल्लास लोकप्रिय संगठनों के स्थानापन्न नहीं हो सकते।