भारत : गांधी – नेहरू की छाया में

रवि शंकर

महात्मा गाँधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के लिए दो ऐसे नाम हैं, जिनके बिना आज कोई भी राजनीतिक चर्चा न तो प्रारंभ होती है और न ही समाप्त। एक देश के राष्ट्रपिता कहे जाते हैं और दूसरे राष्ट्रचाचा। दोनों ही व्यक्तित्वों को लेकर भरपूर विवाद भी समाज में प्रचलित है। समस्या यह है कि गाँधी और नेहरू को देश की सरकारों ने इतना महान बना कर रखा है कि इनकी आलोचना एक अपराध ही मान ली जाती है। स्थिति यहाँ तक भयावह रही है कि प्रसिद्ध लेखक वैद्य गुरुदत्त पंडित नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल के 17 वर्षों का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं, ‘यह तानाशाही इतनी प्रबल थी कि उन सत्रह वर्षों में कोई भी इस तानाशाह की प्रशंसा के अतिरिक्त चर्चा नहीं कर सकता था। ऐसे लोग थे जो श्री नेहरू जी की नीतियों के दुष्परिणामों की सम्भावना प्रकट करते थे, परंतु उनके प्रशंसकों के कलरव में उनकी कोई सुनता ही नहीं था। लेखक को स्मरण है कि एक बार उसने नई दिल्ली में, एक व्याख्यान देते समय श्री नेहरू जी के कुछ एक कार्यों की व्याख्या करते समय यह कह दिया कि उन्होंने देश के साथ द्रोह किया है। इस पर अपने ही दल वाले लेखक की निन्दा करने लगे थे।’
उल्लेखनीय है कि वैद्य गुरुदत्त भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में से एक थे और यह स्थिति भारतीय जनसंघ जैसे दल के लोगों की भी थी। यहाँ एक और बात उल्लेखनीय है कि वैद्य गुरुदत्त ने वर्ष 1966 में एक पुस्तक लिखी थी – जवाहरलाल नेहरू एक विवेचनात्मक वृत्त। इस पुस्तक को लिखने के लिए 1967 में उनसे पुलिस द्वारा पूछताछ की गई। उन पर मुकदमा चलाने की भी सरकार की कोशिश थी और उस समय इसकी खबरें भी समाचार पत्रों में प्रकाशित हुईं। ऐसी भयानक स्थिति में महात्मा गाँधी और पंडित नेहरू की निष्पक्ष समीक्षा करना कितना कठिनतम कार्य रहा होगा, यह सरलता से समझा जा सकता है। ऐसी घोर विषम परिस्थिति में भी वैद्य गुरुदत्त ने अत्यंत निर्भीकतापूर्वक इस काम को संपन्न किया और पुस्तक लिखी – भारत गाँधी नेहरू की छाया में।
इस पुस्तक को लिखने के उद्देश्य का वर्णन करते हुए गुरुदत्त ने पंडित नेहरू की नीतियों के कारण देश का पतन होने की बात करने के बाद लिखते हैं, ‘इस पर भी इस पुस्तक के लिखने की कुछ अधिक आवश्यकता न होती, यदि इस समय सत्तारूढ़ दल स्कूलों और कालेजों में निर्मल, सुकुमार और ग्रहणशील छात्र-छात्राओं के मन में नेहरू जी का मिथ्या चित्र बनाने का यत्न न कर रहा होता। इससे तो 1947 से आरम्भ हुआ ह्रास और भी द्रुत गति से चलने लगेगा। यह सम्भव है कि इस प्रकार भारत पहिले से भी अधिक भयंकर दासता की श्रृंखलाओं में बंध जाए।’ उनके इस वक्तव्य में दो बातें महत्त्वपूर्ण हैं। पहला यह कि सत्तारूढ़ दल सरकारी स्कूलों तथा कालेजों के माध्यम से नेहरू जी का मिथ्या चित्र बनाने में जुटा था। और दूसरी बात यह कि 1947 से देश का पतन प्रारंभ हुआ था, उत्थान नहीं। हम पाते हैं कि ये दोनों ही बातें अक्षरश: सही थीं, परंतु सरकारी शिक्षा में इसके ठीक विपरीत पढ़ाया जाता है।
महात्मा गाँधी को लेकर देश में कहीं अधिक मूढ़ता विद्यमान है। गाँधी को एक अवतारी पुरुष, विलक्षण महात्मा आदि आदि घोषित कर दिया गया है। गाँधीवाद नामक एक अलग विचारधारा चला दी गई है। देश में गाँधीवादियों की एक जमात तैयार हो गई है। यह अंधश्रद्धा इस हद तक फैली हुई है कि जैसा कि गुरुदत्त ने ऊपर नेहरू के लिए लिखा था, वैसा ही आज गाँधी के लिए हो गया है। सार्वजनिक रूप से गाँधी की आलोचना करना राजनीतिक रूप से आत्महत्या करने जैसा हो गया है। राष्ट्रीय स्तर पर गाँधी को यह स्थान प्रदान करने में जहाँ कांग्रेस की अहम भूमिका रही है जो कि उनके नाम पर सत्ता में आती रही है और आज भी नेहरू खानदान ने इनके नाम को धारण करके देश को एक प्रकार से भ्रम में रखने का प्रयास जारी रखा है, वहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसमें ब्रिटिशों की भी भूमिका रही है, जिनके हित गाँधी से पूरी तरह सधते रहे हैं।
इस अंधश्रद्धा के वातावरण में गाँधी की निष्पक्ष समीक्षा जाननी और समझनी हो तो वैद्य गुरुदत्त की यह पुस्तक अतुलनीय है। पुस्तक में कोई भी बात बिना संदर्भों के नहीं कही गई है। लेखक ने अपने निष्कर्ष अवश्य निकाले हैं, परंतु सारे तथ्यों को संदर्भों के साथ प्रस्तुत किया है। संदर्भ भी लंबे-लंबे हैं, एक-दो पंक्तियों के नहीं, जिन्हें हम प्रसंग से कटा हुआ नहीं कह सकते। गुरुदत्त के साथ एक सकारात्मक बात यह भी रही है कि उन्होंने गाँधी और नेहरू के राजनीतिक जीवन को प्रत्यक्ष देखा है। वे उनकी राजनीतिक-सामाजिक यात्रा के प्रत्यक्षदर्शी और समदर्शी भी हैं। वे स्वयं भी राजनीतिक तथा सामाजिक रूप से सक्रिय रहे हैं और इस कारण इनके प्रभावों को अधिक गंभीरता तथा नजदीकी से देखा है।
वैद्य गुरुदत्त इस पुस्तक के माध्यम से देश को पतन के मार्ग में जाने से बचाना चाहते थे। उन्होंने अपने लंबे सामाजिक जीवन और गंभीर अध्ययन से यह अनुभव किया था कि नेहरू की नीतियाँ पूरी तरह अंग्रेजों के शासन के अनुरूप ही हैं और गाँधी अंग्रेजों का विरोध करते हुए भी नेहरू को ही शासन में बिठा रहे थे। इसप्रकार गाँधी अंग्रेजी नीतियों का विरोध करते हुए भी प्रकारांतर ने उसे ही स्थापित करने के लिए ही प्रयत्नशील भी थे। वैद्य गुरुदत्त ने गाँधी जी के स्वभाव तथा कार्यों की इन विसंगतियों की सप्रमाण व्याख्या की है। गुरुदत्त के विश्लेषणों में कहीं से भी दुराग्रह या पूर्वाग्रह नहीं झलकता। वे एक प्रवाह में बिना किसी व्यक्तिगत संलिप्तता के उनके कार्यों की समालोचना करते हैं। गाँधी के अनेक गुणों की उन्होंने प्रशंसा भी की है। वैद्य गुरुदत्त का मानना है और वह इस पुस्तक से भली भाँति स्थापित भी होता है कि देश पर गाँधी और नेहरू की छाया पडऩे से देश पतन की ओर अग्रसर हो रहा है। देश को पतन से बचाने और उसे उत्थान की ओर अग्रसर करने के लिए इस छाया से बाहर निकालना आवश्यक है।
गुरुदत्त ने अपने समकालीन लगभग सभी स्थापित विद्वानों तथा लेखकों की राय को इस पुस्तक में समुचित स्थान प्रदान किया है। चाहे वे कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी हों या आचार्य कृपलानी, मेहरचंद महाजन हों या वी एन गाडगिल। गाँधी और नेहरू के देशी-विदेशी विभिन्न जीवनियों के साथ-साथ उनके स्वयं के लिए ग्रंथों को भी इसमें भरपूर उद्धृत किया गया है। कुल मिला कर यह पुस्तक देश के सामाजिक विज्ञान के प्रत्येक छात्र-छात्राओं के लिए एक अवश्य पठनीय पुस्तक है। यह पुस्तक गाँधी और नेहरू के बारे में किए गए सरकारी प्रचार की सत्यता को सामने रखती है और आज के बुद्धिजीवी जिस निष्पक्षता की दुहाई देते हैं, उसे स्थापित करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

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