Categories
अन्य कविता

ठंडे दिल से तू सोच जरा, भाग-2

सतपुड़ा, विंध्य, पामीर देख, पड़ रही बुढ़ापे की सलवट।
त्राहि-त्राहि होने लगती, जब ज्वालामुखी लेता करवट।

परिवर्तन और विवर्तन का क्रम, कितना शाश्वत कितना है अटल?…..जीवन बदल रहा पल-पल,

सब गतिशील नश्वर यहां पर। जाती है जहां तक भी दृष्टि,
अरे मानव! तू किस भ्रम में है? चलना है निकट प्रलय वृष्टि।

पैसा पद जायदाद यहां, नही तेरा है गंतव्य।
कहीं चूस गरीबों का लोहू, तू सुंदर महल बनाता है।
है मनुज प्रभु का ही मंदिर जिसे ढाकर तू इठलाता है।

फिर मंदिर मस्जिद, गुरूद्वारे में, किसको आवाज लगाता है? ये तो रब से भी धोखा है, जिसे तू पूजा बतलाता है।

Comment:Cancel reply

Exit mobile version