अनेकों उतार-चढ़ावों से भरपूर रही है भारत की विज्ञान यात्रा

राणा प्रताप शर्मा

आदिकाल से ही हमारे देश में अनेक खोजें होती रहीं हैं। भारतीय गणित के इतिहास का शुभारंभ ऋग्वेद से होता है। आदिकाल (500ई.पू.) भारतीय गणित के इतिहास में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस काल में शून्य तथा ‘दाशमिक स्थानमानÓ पद्धति का आविष्कार गणित के क्षेत्र में भारत की
 
यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है कि शून्य का आविष्कार कब और किसने किया? परन्तु इसका प्रयोग वैदिककाल से होता रहा है। आज यह पद्धति सम्पूर्ण विश्व में प्रचलित है तथा इसी के आविष्कार ने गणित और विज्ञान को प्रगति के उन्नत शिखरों पर पहुंचाया है। हमारे देश दाशमिक स्थान मान पद्धति अरब गयी और अरब से पश्चिमी देशों में पहुंची। यही कारण है कि अरब के लोग 1 से 9 तक के अकों को ÓÓहिन्दसाÓÓ कहते हैं और पश्चिमी देशों में (01……9) को हिन्दु-अरबीक न्यूमरल्स कहा जाता है।
उत्तर वैदिक काल (1000 ई.पू. से 500 ई.पू. तक) में अनेक प्रसिद्ध गणितज्ञों ने सूत्र प्रस्तुत किया जिसमें बौधायन को पाइथागोरस प्रमेय के नाम से जाना जाता है। इसके बाद बौधायन ने दो वर्गों के योग और उत्तर के बराबर वर्ग बनाने की विधि दी है और करणीगत संख्या 2 का मान निकालने की विधि बताया है।
भारतीयों के द्वारा ही सर्वप्रथम व्त्त, दीर्घवृत्त को खोजने में सफलता प्राप्त हुई थी। हमारे देश के वैज्ञानिकों ने आदिकाल में लघुगुणक, समुच्चय, घातांक, श्रेणियों, मिश्रानुपात आदि अनेक खोजें कीं जो आज पूरे विश्व में प्रचलित हैं और इन्हीं प्रारम्भिक खोजों के द्वारा किसी भी वस्तु के बारे मे जानना संभव हो पाया है।
पूर्व मध्यकाल 500 ई.पू. से 400 ई. तक) में आर्यभट, ब्रह्मगुप्त आदि के उपलब्ध साहित्य से यह निष्कर्ष निकलता है कि इस काल में गणित में पर्याप्त विकास हुआ था। भारतीयों ने ही सर्वप्रथम ग्रहों की स्थिति जानने के लिए त्रिकोंणमिति फलनों का प्रयोग किया। ब्रह्मगुप्त (628 ई.) में गणित के क्षेत्र में बताया कि दो ऋण संख्याओं का गुणनफल एक धन संख्या और एक धन और एक ऋण संख्या का गुणनफल ऋण होता है। अंकगणित की भांति ही बीजगणित भारत से अरब पहुंची। अरब देश के गणितज्ञ अलख्वारीज्मी ने अपनी पुस्तक अजलब व अलमुकावना में भारतीय बीजगणित पर आधारित विषय का प्रतिपादन किया है तथा उसकी पुस्तकों के नाम पर इस विषय का नाम अलजब्रा पड गया। जहां तक अन्य राष्ट्रों की बात है, हम पाते हैं कि यूनानी गणित के स्वर्णयुग में अलजब्रा का नामोनिशान तक न था। शासकीय कल में यूनानी लोग बीजगणित के अनेक कठिन प्रश्नों को हल करने की योग्यता रखते थे। परन्तु सभी हल ज्यामितिय होते थे। उस समय भारती लोग बीजगणित में अन्य राष्ट्रों से बहुत आगे थे। यह बात ध्यान देने योग्य है कि आधुनिक बीजगणित का आकार और प्रकार मूलत: भारतीय है।
मध्यकाल का स्वर्णयुग (400 ई. से 1200 ई. तक) को भारतीय गणित का स्वर्णयुग कहा जाता है। क्योंकि इस काल में आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, महावीराचार्य, भास्कराचार्य जैसे अनेक ज्येष्ठ और महान् गणितज्ञ हुए जिन्होंने गणित और विज्ञान सभी शाखाओं को जिनका प्रयोग हम आज कर रहे हैं विस्तृत और स्पष्ट रूप प्रदान किया। वेदों में जो विधियां और सिद्धान्त सूत्र रूप में है वे इस काल में अपनी पूर्ण संभावनाओं के साथ जन साधारण के सामने आयीं। भारतीय गणित के इस स्वर्णयुग की स्मृति में भारत में अन्तरिक्ष में जो प्रथम उपग्रह स्थापित किया, उसका नाम आर्यभट्ट के नाम पर रखा गया। निश्चय ही इसके माध्यम से भारतीय महान गणितज्ञों का समादर करके गौरव की अनुभूति सम्पूर्ण समाज ने की। इस काल के कतिपय महान गणितज्ञों एवं उनकी कृतियों का संक्षिप्त वर्णन निम्नवत है:-
आर्यभट्ट (499 ई.)
आर्यभट्ट पटना के निवासी थे। आर्यभट्ट ने अपनी पुस्तक आर्यभट्टीय के गणित पाद के 332 श्लोकों में गणित के महत्वपूर्ण एवं भूलभूत सिद्धांत को साररूप में कह दिया हैं। आर्यभट्टीय के प्रथम दो पादों में गणित तथा अन्तिम दो पादों में ज्योतिष का विवरण है। प्रथम पाद दशमीतिका में बड़ी-बड़ी संख्याओं को वर्णमाला के अक्षरों द्वारा निरूपण करने की विधि भी बताई गयी है। इसके द्वितीय पाद गणित पाद मे अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित तथा त्रिकोणमिति के अनेक कठिन प्रश्नों का समावेश है। आर्यभट्ट ने त्रिकोणमिति में सर्वप्रथम व्युक्रम ज्या का प्रयोग किया जो बाद में पाश्चात्य जगत में (ङ्कद्गह्म्ह्यद्बठ्ठद्ग) के नाम से जाना जाने लगा। रेखागणित के क्षेत्र में इन्होंने पाई का मान दशमलव के चार स्थानों तक ज्ञात किया, जो 3.1416 है। इन्होंने बताया कि 20.000 इकाई व्यास वृत्त की परिधि का मान 62,832 इकाई होता है अर्थात
पाई = 62.832/20.000= 3.1416
अंकगणित के क्षेत्र में भी इन्होंने वर्गमूल एंव घनमूल ज्ञात करने की विधियां तथा त्रैराशिक नियम का भी उल्लेख किया है। यह हर्ष की बात है कि पहले आर्यभट्ट ने ही स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया कि पृथ्वी गतिशील और सूर्य स्थिर है, जिसे पश्चिम में कोपरनिकस ने 1100 वर्षों बाद 16वीं शताब्दी में स्वीकार किया और 1642 में गैलीलियो को इसी बात पर सूली दी गयी।
भास्कर (600 ई.)
भास्कर (600 ई.) ने अपनी पुस्तक महाभास्करीय, आर्यभट्ट भास्य तथा लघु भास्करीय में आर्यभट्ट द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों को और विकसित और विस्तृत किया।
ब्रह्मगुप्त (628 ई.)
ब्रह्मगुप्त ने ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त के 25 अध्यायों में से 2 अध्यायों में गणितीय सिद्धान्त एंव विधियों का विस्तृत वर्णन किया। इन्होंने गणित की 20 क्रियाओं तथा 8 व्यवहारों पर प्रकाश डाला। बीजगणित में समीकरण साधनों के नियमों का उल्लेख किया तथा अनिर्णीत द्विघातीय समीकरण का समाधान भी बताया जिसे आयलर ने 1764 ई. में और लाग्रांज ने 1768 ई. मे प्रतिपादित किया। ब्रह्मगुप्त ने प्रिज्म और शंकु एवं सूची स्तम्भ के घनफल ज्ञात करने की विधि ज्ञात की। ब्रह्मगुप्त ने गुणोत्तर श्रेणी का योग ज्ञात करने की विधि और समकोंण के शुल्वसूत्र का विस्तृत वर्णन भी किया है। ब्रह्मगुप्त ने सर्वप्रथम अनन्त की कल्पना की और बताया कि कोई भी ऋण अथवा धनराशि शून्य से विभाजित होने पर अनन्त हो जाती है। महावीराचार्य (850ई) गणित सार संग्रह नामक अंकगणित के वृहदग्रंथ की रचना की। इन्होंने ल.स. का आधुनिक नियम ज्ञात किया जिसका यूरोप में पहली बार प्रयोग 1500 ई. में किया गया। इन्होंने वर्गान्तर्गत चतुर्भुज तथा दीर्घवृत्त के क्षेत्रफल ज्ञात करने के सूत्रों का निर्गमन भी किया।
श्रीधराचार्य (850 ई.)
श्रीधराचार्य ने अंकगणित पर नवशतिका और त्रिशतिका, पाटी-गणित और बीजगणित पुस्तकों की रचना की। इनकी बीजगणित की पुस्तकें अप्राप्य है, किन्तु आज समीकरण हल करने का सूत्र जो ‘श्रीधराचार्य विधिÓ कहलाता है। आज पूरे विश्व में उसका प्रयोग हो रहा है। आर्यभट्ट द्वितीय (950 ई.) महाराष्ट्र के निवासी थे। उन्होंने महाआर्यसिद्धान्त नामक एक ग्रंथ लिखा, जिसके एक अध्याय में अंकगणित और दूसरे अध्याय में प्रथम घात वाले समीकरण का प्रतिपादन किया। गोले के पृष्ठ और आयतन का शुद्ध मान कदाचित इसी ग्रंथ में मिलता है। इस ग्रंथ में पाई का मान 22/7 लिया गया है, जो आज भी सर्वमान्य है। श्रीपति मिश्र (1039ई.) महाराष्ट्र के निवासी थे। उन्होंने ”सिद्धान्त शेखरÓÓ एवं गणिततिलिक की रचना की इन्होंने क्रमचय और संचय पर विशेष कार्य किया।
भास्कराचार्य द्वितीय
(1114 ई. से 1185 ई.)
भास्कराचार्य ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक सिद्धान्त शिरोमणि एवं करण कुतूहल में गणित की विभिन्न शाखाओं को एक प्रकार से अन्तिम रूप दिया है। प्रसिद्ध विद्वान हेकल ने भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा है ”यह निश्चय रूप से संख्या सिद्धान्त में लाग्रांज से पूर्व सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है।ÓÓ इसी नियम का फरमट ने 1657ई. में प्रयोग किया। लीलावती का पहला अंग्रेजी अनुवाद सन् 816 में टेलर ने किया था। ”सिद्धान्त शिरोमणिÓÓ में भास्कराचार्य द्वितीय ने त्रिकोणमिति का विस्तृत उल्लेख किया है। ज्या, कोज्या, उत्क्रमज्या के विभिन्न सम्बन्ध तथा तालिका का प्रतिपादन किया। भास्कराचार्य द्वितीय को सबसे पहले पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण शक्ति की जानकारी थी। इन्होंने लिखा है कि ”पृथ्वी में आकर्षण शक्ति होती है जो वस्तुओं को खींचकर अपने धरातल पर लाती है।ÓÓ
भास्कराचार्य द्वितीय के बाद गणित में मौलिक कार्य अधिक नहीं हो सका। ग्रन्थों की टीकाएं ही उत्तर मध्यकाल की मुख्य देन है। केरल राज्य के गणितज्ञों ने चौदहवीं शताब्दी में गणित में महत्वपूर्ण खोजें की उन्होंने पद ह्न (थीटा के सिम्बोल डाल दें) ष्टशह्य ह्न, ञ्जड्डठ्ठ-१ ङ्ग का अनन्त श्रेणी में प्रसार किया। तथा पाई का अनेक स्थानों तक शुद्ध मान निकाला। नीलकण्ठ ने 1500 ई. में एक पुस्तक में ह्यद्बठ्ठ द्यद्गद्वस्रड्ड का मान निकाला। मलयालम पाण्डुलेख ‘मुक्तिभासÓ में यह सूत्र दिया गया है उसे आज हम श्रेगरी श्रेणी नाम से जानते हैं।
नारायण पण्डित (1356 ई.)
नारायण पण्डित ने गणित कौमुदी नामक वृहद ग्रंथ की रचना की। इस कौमुदी में बहुत नयी बातें हैं। इसकी प्रति ‘कैम्ब्रिजÓ में सुरक्षित है। नारायण के अंकगणित में क्रमचय और संचय अंक विभाजन और मायावर्गों का सैद्धान्तिक प्रतिपादन है।
गणेश देवज्ञ: ज्योतिष के बड़े पण्डित थे। इनके पिता का नाम केशव और माता का नाम लक्ष्मी था। आप समुद्र के किनारे नन्दीग्राम में पैदा हुए थे तेरह वर्ष की उम्र में उन्होंने एक प्रसिद्ध करण ग्रंथ ‘ग्रहलाधवÓ की रचना की। भास्कर लीलावती पर इनकी बुद्धि विलासिनी टीका प्रसिद्ध है।
कमलाकर (1608 ई.)
बनारस के रहने वाले थे इन्होंने 1658 में सिद्धान्त तत्व विवके नामक ग्रंथ की रचना की।
डॉ. गणेश प्रसाद (1876-1935 ई.)
आधुनिक भारत के उन गणितज्ञों में से थे जिन्होंने इस देश में गणितीय गवेषणा की परम्परा स्थापित की। इनका जन्म बलिया में 1876 ई. में हुआ था। इलाहाबाद बौर कलकत्ता से एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने पांच वर्ष यूरोप में बिताये। डॉ. गणेश प्रसाद ने अपने एक शोध पत्र में फ्रांस के गणितज्ञ लेबेग की एक त्रुटि निकाली थी। लेबेज ने उस त्रुटि को स्वीकार किया था।
श्री निवास रामानुजम्
(1887-1920 ई.)
श्रीनिवास रामानुजम् महान गणितज्ञ थे। श्रीनिवास रामानुजम को बचपन से ही गणित से बहुत लगाव था। यही कारण था कि रामानुजम् त्रिगोणमिति पढऩे के तुरन्त बाद पदम तथा बवेपदम के लिए आयलर प्रमेय की खोज कर ली थी। इंग्लैंड के प्रोफेसर जी.एच. हार्डी ने रामानुजम की अद्वितीय खोज की प्रशंसा की और विज्ञान के विश्व में उन्हें उच्च स्थान दिया।
1914 में मद्रास विश्वविद्यालय और प्रो. हार्डी के साथ कैम्ब्रिज में शोध कार्य किया। जब वे इंग्लैण्ड में शोध कार्य कर रहे थे तो उनकी तबियत खराब होने पर प्रो. हार्डी उनसे मिलने उनके घर गये। प्रो. हार्डी 1729 नम्बर की टैक्सी में गये थे और जाकर रामानुजम से कहा कि नम्बर 1729 अशुभ है, क्योंकि 1729=13.7 319 जो 13 से विभाज्य है, रामानुजम ने तुरन्त उत्तर दिया ‘नहींÓ यह बहुत ही रोचक संख्या है। यह वह छोटी से छोटी संख्या है जो निम्न दो प्रकार से दो घनो के योग रूप में प्रकट कि जाती है।

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