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करणीय और अकरणीय कर्म में भेद करने वाली इन्द्रिय बुद्धि

अशोक प्रवृद्ध

उपनिषदों की एक कथा के अनुसार शरीर के इन्द्रियों में अपनी-अपनी श्रेष्ठता को लेकर विवाद हो जाने और सर्वश्रेष्ठता का निश्चय नहीं कर पाने पर वे प्रजापति के समक्ष गई और कहने लगीं कि उनमे से कौन सर्वश्रेष्ठ है? प्रजापति के सुझाव पर सब इन्द्रियाँ एक-एक कर शरीर छोडक़र गयीं और वापस लौट आयीं और उन्होंने देखा कि उनके बिना भी शरीर का कार्य चलता रहता है, यद्यपि कार्य करने में दोष और कठिनाई हुई थी,परन्तु जब महाप्राण शरीर को छोडऩे लगा तो शरीर ठंडा पडऩे लगा। शरीर मरनासन्न होने लगा और अन्य सब इन्द्रियाँ भी शिथिल पडऩे लगीं। इस पर यह निश्चय हो गया कई महाप्राण सर्वश्रेष्ठ इन्द्रिय है। वैदिक ग्रन्थों के अनुसार महाप्राण शरीर में वह शक्ति है जिससे शरीर के आभ्यांतरिक यंत्र कार्य करते हैं। उदाहरणत: ह्रदय, जो रक्त-संचालन का कार्य करता है, वह महाप्राण के आश्रय ही कार्य करता है। यह दिन-रात जन्म से मरणपर्यन्त कार्य करता रहता है। इसी प्रकार भोजन के गले से उतरते ही आगे धकेल पेट में पहुँचाने वाला, मल-मूत्र व शरीर के अन्य रस को गति प्रदान करने वाला शक्ति महाप्राण ही है। मनुष्य चाहे अथवा न चाहे, महाप्राण अपना कार्य करता रहता है । कहा जाता है कि शरीर के मस्तिष्क में बैठा परमात्मा सब कार्य कर रहा है। परमात्मा के कार्य को रोका जा सकता है, जब गोली मारकर प्राणी की हत्या कर दी जाए अथवा विह खाकर या किसी ऊँची पहाड़ी से कूदकर, अथवा किसी अन्य प्रकार से इस महाप्राण को शरीर से निकाल दिया जाएद्य अर्थात मनुष्य शरीर में एक शक्ति है जो किसी भी कार्य को करने अथवा न करने में प्रेरित करती है, और जो भी अंग अथवा शक्ति यह कार्य करती है उसका नाम बुद्धि है सांख्यदर्शन में कहा है-

अर्थात- निश्चय करने का काम बुद्धि का है और यह निश्चय करती है करणीय तथा अकरणीय में।

करणीय और अकरणीय में निश्चय करने का काम मनुष्य के मस्तिष्क में स्थित एक यंत्र करता है, इसे बुद्धि कहते हैं। आँख, नाक, कान इत्यादि इन्द्रियाँ केवल कार्य करती हैं। शरीर में कार्य करने के यंत्रों को करण कहते हैं। करण तेरह हैं- पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, ग्यारहवीं आभ्यांतरिक इन्द्रिय, बारहवाँ मन तथा तेरहवीं बुद्धि है।

इन्द्रियाँ देखती हैं, सुनती हैं, चखती हैं, सूंघती इत्यादि हैं। मन इनसे प्राप्त ज्ञान को संचय करता है। बुद्धि निश्चय करती है कि अमुक कार्य वर्तमान परिस्थिति में करना ठीक है अथवा नहीं? अन्तिम आज्ञा देने वाला जीवात्मा है। यदि इन्द्रियों में दोष हो तो मन और बुद्धि के कार्य में बाधा पड़ जाती है। उदहारणत: अगर हमारी आँख में काला चश्मा चढ़ा हुआ हो और हम श्वेत वस्त्र खरीदने जाते हैं तो काले चश्मे के कारण श्वेत वस्त्र भी काला दिखाई देता हैद्य इस  कारण मन, बुद्धि और जीवात्मा ठीक कार्य तब ही कर सकते हैं जब इन्द्रियाँ ठीक-ठीक ज्ञान दें। इन्द्रियों के ठीक-ठीक ज्ञान देने से ही पूर्व से मन में संचित ज्ञान से बुद्धि के द्वारा तुलना की जा सकती है। मनुष्य के मन में उठने वाली विभिन्न प्रश्नों का उत्तर बुद्धि देती है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि मनुष्य को कार्य की दिशा बताने वाला एक यंत्र मनुष्य के मस्तिष्क में रहता है, उसका नाम बुद्धि है। यह यंत्र कार्य कर्ता है इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान के आधार पर तथा मन पर अंकित पूर्व के ज्ञान से ज्ञान की तुलना करद्य इस कारण कार्य की दिशा निश्चय करने में जहाँ इन्द्रियाँ सहायक होती हैं, वहाँ मन भी सहायक होता है। तदनंतर बुद्धि की राय से जीवात्मा निश्चय कर्ता है कि वह अमुक कार्य करे अथवा न करे जीवात्मा, मन पर संचित पूर्व के ज्ञान से तुलना कर, बुद्धि को सम्मति से आज्ञा देता है कि वह अमुक कार्य करे या न करे? अतएव जब कार्य करने का समय आता है तो ज्ञानेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि द्वारा निश्चित किया गया कार्य कर्मेन्द्रियों द्वारा होने लगता है।

इन तेरह करणों में पाँच कर्मेन्द्रियाँ तो शरीर के कार्य में आवश्यक होती हुई भी सम्मति नहीं देतीं अथवा कार्य में हाँ अथवा न करने में कुछ अधिकार नहीं रखतीं शेष रह गयीं पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, आभ्यंतरिक इन्द्रिय तो संयोग-स्थान है और मन ज्ञान का संचय स्थान है। अत: नियन्त्रण करने वाला यंत्र बुद्धि ही है और उसके बिना कार्य की दिशा ठीक नहीं बनती। ज्ञानेन्द्रियाँ का काम है, घट रही घटनाओं की सूचना लाना मात्र और मन तो एक प्रकार का पूर्ण ज्ञान का संचय स्थान है इसे आज की अंग्रेजी में रिकार्ड रूम कहा जा सकता हैद्य प्राप्त ज्ञान की पूर्व उपस्थित ज्ञान से तुलना और उस पर निश्चय कि कौन सा कार्य ठीक है, जो यंत्रकरता है, वह बुद्धि है। वह अपनी सम्मति जीवात्मा को देती है तब जीवात्मा कार्य करता है।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि शरीर का सर्वश्रेष्ठ आधार महाप्राण शरीर के आत्म-तत्व के अधीन नहीं मनुष्य जब सो जाता है, शरीर के सब अंग काम करना बन्द कर आराम करने लगते हैं। जीवात्मा सुसुप्ति अवस्था में क्या करता है,ज्ञात नहीं इसके लिंग (चिह्न) जिनसे जीवात्मा के अस्तित्व का पत्ता चलता है, वे एक सोये हुए शरीर में दिखाई नहीं देते न्यायदर्शन में आत्मा के लिंग के विषय में कहा है-किसी वस्तु का लिंग वह लक्षण है जो किसी अन्य में नहीं पाया जाता हो और जिससे वह दूसरे से पृथक पहचाना जा सके अर्थात जिस किसी में भी इच्छा होगी,उसमें आत्मतत्व का होना समझा जायेगा जिस पदार्थ में प्रतिकूल परिस्थिति का विरोध दिखाई दे, वह आत्मतत्व है। इसी प्रकार अन्य लिंगों के विषय में भी कहा जा सकता हैं। प्राणी के सो जाने पर छहों लिंग इच्छा,देवश, सुख, दु:ख, प्रयत्न और चेतना नहीं रहते। इसका अभिप्राय है कि सोये प्राणी में जीवात्मा सक्रिय नहीं होता। जीवात्मा उसमे सक्रिय तो रहता है यह इस प्रकार स्पष्ट जाना जा सकता है कि मृत शव और सोये शरीर में अन्तर होता है दोनों में जीवात्मा के छहों लिंगों का अभाव दिखाई देता है परन्तु जीवित प्राणी में महाप्राण कार्य करता रहता है केवल वे कार्य नहीं होते जो आत्मा के लिंग हैं और फिर मनुष्य के जागने पर आत्मा के लिंग पुन: कार्य करने लगते हैं परन्तु मृत प्राणी में न तो महाप्राण रहता है, न आत्मा के लिंग इसका अभिप्राय यह है कि जीवित और जाग्रत प्राणी में दो आत्म-तत्व कार्य करते हैं एक को जीवात्मा कहते हैं और दूसरे को परमात्मा कहते हैं इस विषय में ब्रह्मसूत्र में ब्रह्मसूत्रकार कहता है-

अभिप्राय यह है कि शरीर के छोटे से रिक्त स्थान में दो आत्म तत्व देखे जाते हैं,ऊपर कहे लक्षणों में इस प्रकार छ: लिंगों वाला आत्म तत्व शरीर में रहता है इन छ: लिंगों से हि यह सिद्ध होता है कि यह आत्म तत्व शरीर में आज्ञा देने वाला है, परन्तु करणीय और अकरणीय के विषय में बताने वाली तो ज्ञानेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि हैं  इनके सहाय से ही हाँ अथवा न का निर्णय होता है द्यइस प्रकार स्पष्ट हो जाता हैकि कार्य जीवात्मा करता है और कार्य करने में बुद्धि परामर्श देती है। बुद्धि की सम्मति बनने में सहायक हैं ज्ञानेन्द्रियाँ और मन ।

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