भारत की असफल विदेश नीति और चीन-भाग-दो

india chinaइस समझौते में यद्यपि चीन ने भी तिब्बत के बदले में सिक्किम को भारत का अंग मान लिया, किन्तु यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि सिक्किम महाभारत काल से ही भारत का अंग रहा है। अंग्रेजों ने इस पहाड़ी प्रान्त को भारत से अलग करके दिखाने का प्रयास किया था। यह उनकी कूटनीतिक चाल थी। आज इसे भारत का अंग मान लेना चीन का हम पर कोई उपकार नहीं है। दूसरे सिक्किम को हमने बलात नहीं कब्जाया है। उसका भारत में विलय स्वेच्छा से हुआ है। जबकि तिब्बत जो कि प्रारम्भ से ही एक स्वतंत्र राष्ट्र रहा है, और जिसकी सभ्यता और संस्कृति भी अलग है, चीन द्वारा बलात हड़पा गया है। यह देश संसार का वह प्राचीनतम राष्ट्र है जहाँ मानव संस्कृति ने पहली बार आँखें खोली थीं। सृष्टि के प्रारम्भ में यह राष्ट्र ‘त्रिविष्टप’ कहलाता था। आर्य संस्कृति का प्रादुर्भाव यहीं हुआ था और यही देश भारतीय आर्यों की आदि संस्कृति का केन्द्र बना। लम्बेकाल तक यह देश अर्यावत्र्त का अंग रहा। इससे सारी मानवता लाभान्वित होती रहीं। इसके इस लंबे इतिहास के दृष्टिगत तो यह चीन से भी अधिक भारत का है, किन्तु फि र भी इसका स्वतंत्र अस्तित्व ‘बफ र-स्टेट’ के रूप में भारत के लिए अधिक उपयोगी रहता। तब हमारा शत्रु चीन हमसे कुछ दूर रहता। किन्तु वह तिब्बत को हड़पकर हमारी पीठ पर नहीं, अपितु सिर पर आ बैठा। जिससे हमारी सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हुआ। इस प्रकार चीन अटल बिहारी वाजपेयी के साथ किये गये समझौते में भी लाभ की स्थिति में रहा। आज चीन पाकिस्तान के निकट है। पाक के प्रति वैचारिक धरातल पर उसका आचरण भारत के लिए कष्टकारक है, हमने पाकिस्तान से लगती अपनी सीमा पर यद्यपि काँटेदार तार लगाये हैं किन्तु पाकिस्तान से आतंकवादी कश्मीर के उस हिस्से से जहाँ पाकिस्तान और चीन ने सडक़ बनाकर स्वयं को सडक़ मार्ग से जोड़ लिया है, आराम से पाकिस्तान से चीन और चीन से नेपाल के रास्ते भारत आ रहे हैं। इस ओर हमारे शान्ति के उपासक और शान्ति के लिए कबूतर उड़ाने में विश्वास करने वाले ‘कबूतरी आकाओं’ का ध्यान नहीं है। संकट टला नहीं है, अपितु और भी गहरा गया है। गहराते हुए संकट के दृष्टिगत नेपाल पर भी चीन की गिद्घ दृष्टि लग चुकी है। वहाँ पर माओवादी आतंकवादियों को अपना खुला समर्थन दे रहे हैं। जिससे यह शांत देश भी अशांत है। इसकी संप्रभुता को भारी संकट है। तिब्बत की भाँति कभी यह राष्ट्र भी संसार के मानचित्र से लुप्त हो सकता है। यदि इसकी यह परिणति हुई तो चीन के साथ हमारी बहुत लंबी सीमा मिल जायेगी। साथ ही यह स्पष्ट हो जायेगा कि हम वैचारिक धरातल पर अपने निकट के पड़ोसियों को यदि नहीं बचा पाये तो हम स्वयं को कितना बचा पायेंगे। चीन की सुरसा की सी आँत बढ़ती जा रही है। जबकि हमारी केन्द्र की सरकार इस अति को रोकने की ओर पूर्व की यूपीए सरकार की अपेक्षा सजग है, परंतु अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। हमारे देश के भीतर राजनीतिक परिस्थितियां बहुत अच्छा संकेत नही दे रही हैं। विपक्ष में बैठी कांग्रेस विपक्ष की सकारात्मक भूमिका निभाने में पूर्णत: असफल होती जा रही है। सोनिया गांधी स्वयं भी एक अच्छा और अनुकरणीय आचरण नही कर पा रही हैं, जिसे विपक्ष के जिम्मेदार नेता की भूमिका कहा जा सके।

ऐसी परिस्थितियों में अन्य विपक्षी नेता भी सुंदर भूमिका से दूर होते जा रहे हैं, यह अच्छा ही हुआ कि सपा के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने कांग्रेस का साथ छोडक़र संसद की कार्यवाही को आगे बढ़ाने में विपक्ष का सकारात्मक सहयोग देने की बात कहकर संसद की गिरती हुई साख को बचाने का संकेत दिया। इन परिस्थितियों का लाभ हमारे पड़ोसी शत्रु देश उठाने का प्रयास कर रहे हैं।

इन सब परिस्थितियों का सबसे अधिक लाभ चीन उठा रहा है। उसने भूटान में हाल ही में घुसपैठ कराई है। इस राष्ट्र की सुरक्षा की गारंटी भी भारत के पास है। किन्तु भारत ने इस राष्ट्र में हुई चीन की घुसपैठ को गंभीरता से नहीं लिया है। शत्रु पुन: हमारे घर में घुस चुका है इससे अधिक असफ ल विदेश नीति और कौन सी हो सकती है? वास्तव में चीन के प्रति हमें अपनी विदेश नीति को पुन: खँगालना पड़ेगा। पूरी समीक्षा की आवश्यकता है। यदि हम अभी नहीं सचेत हुए तो इतिहास का वही भूत हमें मार डालेगा जिसके परिणामस्वरूप हम सपनों के स्वर्णिम संसार में जीते रहे और उस स्वर्णिम संसार को हमारा शत्रु आग लगाता रहा। कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी भी चीन यात्रा पर नवम्बर 2007 होकर आयी हैं। उन्होंने स्वयं ने भी चीन के विषय में यह अच्छी प्रकार अनुभव किया होगा कि चीन हमारे लिए कभी भी अच्छा मित्र नही हो सकता। इस देश की परंपरा रही है कि शत्रु के लिए हम एक रहें। परंतु जब संसद का विधायी काम निपटाने में सोनिया और उनकी पार्टी अड़ंगा डालेंगी तो शत्रु हमारे कार्यों में अड़ंगा डालने की स्थिति में आ जाएगा। समय रहते हम सावधान हों।

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