क्या अज्ञान, अन्धविश्वास, अन्धी श्रद्धा व आस्था का खण्डन अनुचित है?

सभी मनुष्यों का धर्म एक है या अनेक? वर्तमान में सभी समय में प्रचलित अनेक मत व धर्मों में लोग किसी एक को मानते हैं। प्रश्न का उत्तर देने के लिए हमें धर्म व मत को जानना होगा। यथार्थ धर्म को जान लेने के बाद स्वयं उत्तर मिल जायेगा। धर्म मनुष्य जीवन में श्रेष्ठ गुणों को धारण व असत्य को छोडऩे को कहते है। मनुष्यों के शरीर में आंख, नाक, कान, रसेन्द्रिय जिह्वा, त्वजा आदि 5 ज्ञानेन्द्रियां एवं मन, बुद्धि आदि अवयव हैं जो चेतन तत्व जीवात्मा से पृथक हैं। इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण कौन सा अवयव है। हम समझते हैं कि चेतन आत्मा के बाद जड़ अवयवों में बुद्धि सबसे मुख्य अवयव है। यदि बुद्धि ठीक है व ज्ञान से युक्त है तो आंखों से देखी, कान से सुनी, हाथों से स्पर्श, जिह्वा से चखी चीजें समझ में आ जाती है। अब कल्पना कीजिए कि किसी मनुष्य के पास 5 ज्ञानेन्द्रियां व मन तो है परन्तु ‘बुद्धि’ अर्थात् सोचने की क्षमता है ही नहीं, तो उसकी मनुष्य समाज में क्या स्थिति होती है? सभी बुद्धिमान व ज्ञानी जन उसका बहिष्कार करते हैं। इससे बुद्धि के महत्व का पता चलता है। यह भी बता दें कि वेदों के अपूर्व विद्वान व सिद्ध योगी स्वामी दयानन्द सरस्वती के विद्यागुरू स्वामी विरजानन्द सरस्वती प्रज्ञाचक्षु अर्थात् नेत्रान्ध थे। इस पर भी भारत के इतिहास को परिवर्तित करने वा इसे असत्य वा अज्ञान की पटरी से उठाकर सत्यमार्ग पर लाने में एपरि बहुत बड़ी भूमिका है जो कि देश के करोड़ों आंखों, नाक व कान वाले परस्पर मिलकर नहीं कर पाये। आज भी ऐसे स्वस्थ व सभी इन्द्रियों से सम्पन्न मनुष्य हैं परन्तु उन्हें सत्य, असत्य, ज्ञान, अज्ञान, विद्या व अविद्या, सत्य मानव धर्म व मिथ्या धर्म का अन्तर ही ज्ञात नहीं है। उनका उद्देश्य से पढ़ लिखकर उचित व अनुचित तरीकों से वित्तैषणा, लोकैषणा व पुत्रैषणा की पूर्ति ही होता है। यथार्थ धर्म-कर्म, कर्तव्य, जीवन का लक्ष्य व उसकी प्राप्ति के साधनों का उन्हें कोई ज्ञान ही नहीं होता।

धर्म का यथार्थ अर्थ है श्रेष्ठ मानवीय गुणों को धारण करना। ऐसा करने के लिए जीवन से असत्य व बुरे गुणों को छोडऩा अवश्यम्भावी होता है। यह बुरे गुणों को जीवन से पृथक करना एक प्रकार से इनका खण्डन ही है। आज के युग की सबसे बड़ी राष्ट्रीय व अन्तराष्ट्रीय समस्या यही है कि सभी मनुष्यों ने श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव को धारण नहीं किया हुआ है जिससे कि मनुष्य का चरित्र व जीवन बनता है। यदि ऐसा होता तो फिर यह लेख लिखने की आवश्यकता न होती। अब यह कैसे पता चले कि श्रेष्ठ मानवीय गुण-कर्म-स्वभाव कौन से हैं जिन्हें धारण करना है और अश्रेष्ठ गुण कौन से हैं जिन्हें धारण नहीं करना अपितु ढूंढ कर उन्हें स्वयं से दूर करना या छोडऩा है। इसका ज्ञान हमें इस सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर प्रदत्त चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद से हुआ था। यह चार वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तकें हैं। इनमें न केवल अपरा विद्या है अपितु परा विद्या भी पूर्ण रूप में विद्यमान है। इन दोनों प्रकार की विद्याओं, आध्यात्मिक एवं सांसारिक, से युक्त संसार का यह चार वेद आदि ज्ञान व पुस्तकें हैं। मध्यकाल में आलस्य व प्रमाद के कारण वेदों का सत्य अर्थ न जानने के कारण अल्पज्ञानी लोगों ने वेदों के सत्य व असत्य से मिश्रित अर्थ किये जिससे समाज में अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियां व सामाजिक असमानता आदि की उत्पत्ति हुई। सभी मनुष्य इनका ही पालन करना अपना धर्म समझते रह व करते रहे। उनमें इतनी बुद्धि व ज्ञान नहीं था कि वह सोच पाते कि हमारा ज्ञान व कार्य असत्य व अन्धविश्वास पर आधारित हैं। भारत ही नहीं अपितु सारे संसार की यही स्थिति थी। इसका जो असुखद परिणाम होना था वही हुआ। हमें हमारे कर्मों का पराधीनता और अनेक प्रकार से दु:खरूपी फल मिला। हम अपने जीवन में भी देखते हैं कि हम किसी परीक्षा की तैयारी करते हैं। पूरा पाठ्यक्रम स्मरण करते हैं। परीक्षा में यदि कोई प्रश्न आये और उस समय हमें पूछी गई बात स्मरण न आये तो विस्मृति के कारण उसका सही उत्तर न देने अथवा गलत उत्तर देने के कारण हमें शून्य अंक मिलता है और हम परीक्षा में सफल नहीं हो पाते जिससे हमें क्लेश होता है। इसी प्रकार से जीवन में यदि हम सत्य को न जाने व उसकी परीक्षा कर अपने जीवन में भली प्रकार से सेवन वा आचरण न करें तो हम सब मनुष्यों के जीवन का परीक्षक ईश्वर हमें शून्य व न्यून अंक देकर हमारी उन्नति करना व पूर्ण सुखों को उपलब्ध कराना बन्द कर देता है। जीवन अनन्त है अत: हमारे बहुत से पूर्व जन्मों के कर्मों का फल हमें इस जन्म में प्राप्त हो रहा है जिससे बुरे काम करने वाले भी सुख पाते दिखाई देते हैं ओर बहुत से इस जन्म में अच्छा काम करने वाले दु:ख पाते दिखाई देते हैं। यह पूर्वजन्म के कर्मों के कारण होता है, अन्य कोई बुद्धि, तर्क व युक्तिसंगत कारण दिखाई नहीं देता है। अत: वेदों में ईश्वर के बतायें हुए श्रेष्ठ गुणों जिनमें ईश्वर, आत्मा और संसार विषयक सदज्ञान मुख्य है, को जानना व उनका उनका पूरा पूरा पालन करना ही मनुष्यों का श्रेष्ठतम धर्म है जिसे वैदिक धर्म कहते हैं।

अन्धविश्वास क्या है? ऐसे विश्वास, मान्यतायें व सिद्धान्त जिन पर मनुष्य विश्वास करते हों परन्तु जो सत्य न हो। इसकी उत्पत्ति का कारण वेदों का न पढऩा, अज्ञान, अविद्या, भ्रान्तियां, रूढि़वादी मानसिकता व परम्परायें हुआ करती हैं। यह कैसे विदित हो कि हमारी मान्यतायें व विश्वास अन्धविश्वास श्रेणी के हैं या नहीं? इसके लिये पहला कार्य तो हमें अपनी उस मान्यता का श्रोत देखना होगा कि वह किस ग्रन्थ व शास्त्र का है। ग्रन्थ व शास्त्र दो श्रेणियों के होते हैं। एक वह जो साधारण मनुष्यों के द्वारा रचित हों जिसमें अल्पज्ञता, अशिक्षा, अज्ञान, स्वार्थ आदि के कारण अन्धविश्वासों का समावेश होता है। दूसरी श्रेणी ईश्वर, ऋषि व आप्त पुरूषों के ग्रन्थ हैं। ईश्वरीय ग्रन्थों में केवल चार वेद हैं। इसका प्रमाण वेदों की अन्त:साक्षी है। आप सृष्टि के आरम्भ से महर्षि दयानन्द पर्यन्त ऋषि-मुनियों की प्रशस्तियों व वेदाध्ययन कर स्वात्मा की साक्षी से इस मान्यता की पुष्टि कर सकते हैं। वेदों की भाषा, वेदों की वर्णन शैली, वेदों के शब्दों के अनेकानेक अर्थ बताने की सामथ्र्य, सरलता व शब्दों का अपने विषय के अनुरूप नाम व संज्ञा आदि सहित वेद की प्रत्येक बात तर्क, युक्ति, बुद्धि, सृष्टिक्रम तथा विज्ञान के नियमों के अनुकूल होना भी वेदों को ईश्वरकृत सिद्ध करता है। ईश्वर प्रदत्त ज्ञान होने के कारण वेद स्वत: एवं परम प्रमाण हैं। इस कारण वेद विरूद्ध सभी मान्यतायें, विचार व सिद्धान्त असत्य, अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, मानवजीवन के लिए अहितकर व हानिप्रद हैं। ईश्वरीय ज्ञान वेद के बाद वेदों के पारदर्शी विद्वान जो ऋषि व आप्त पुरूष कहलातें हैं, उनकी रचनायें भी प्रमाणित होती हैं। इन रचनाओं में भी यदि कहीं कोई बात वेद विरूद्ध हो तो वह अप्रमाण होती है। इससे अन्धविश्वास का स्वरूप विदित हो जाता है कि असत्य, अज्ञान व वेद विरूद्ध कथन, मान्यतायें व सिद्धान्त सत्य, आचरणीय व करणीय नहीं हैं। पाप पुण्य पर जब विचार करते हैं तो हमारे जो कर्म, ज्ञान व वेदानुकूल होते हैं वह पुण्य व शुभ कर्म कहलाते हैं और जो कर्म अज्ञान पर आधारित व वेद विरूद्ध होते हैं वह अन्धविश्वास से युक्त होने के कारण अशुभ, पाप व अधर्म कहलाते हैं। इनका परिणाम मनुष्य जीवन के लिए अशुभ व हानिकारक होता है। अत: ज्ञानी व वेद के विद्वानों का कर्तव्य है कि वह वेदाध्ययन करते हुए अपना ज्ञान बढ़ाते रहें और वेदों की मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रचार करें, असत्य, अन्धविश्वास, पाखण्ड व स्वार्थों पर आधारित मान्यताओं का तीव्र खण्डन करें जिससे मनुष्यों का अहित न होकर हित व अकल्याण न होकर कल्याण हो।

कुछ उदाहरणों पर भी विचार करते हैं। घर में यदि बच्चा गलती करता है तो उसे डांटा जाता है जिससे वह उस गलती का सुधार करे और उसकी पुनरावृत्ति न करे। यह भी एक प्रकार से उस गल्ती जो असत्य कार्य है, उसका खण्डन है। यदि बच्चा अध्ययन में रूचि न ले व अपने पाठ स्मरण न करे, तो उसे भी माता-पिता व आचार्य फटकार लगाते व ताडऩा करते हैं। यह भी उस विद्यार्थी के ज्ञान ग्रहण न करने व अज्ञान में रहने के कारण उसकी ज्ञान ग्रहण न करने की मनोवृत्ति का खण्डन ही होता है। एक डाक्टर रोगी की चिकित्सा करता है। चिकित्सा व औषध सेवन एक प्रकार से रोग का खण्डन है। उसे रोग पैदा करने वाली वस्तुओं का प्रयोग बन्द करना होता है, स्वास्थ्यप्रद भोजन करना होता है, रोगनिवारक ओषधि लेनी पड़ती है, कई बार कई जटिल व कठिन रोगों की शल्य क्रिया भी की जाती है, यह सब कुछ भी एक प्रकार से रोग वा असत्य का खण्डन ही है। फैक्ट्रियों में बनने वाला वस्त्र उपयोग योग्य नहीं होता। उसे उपयोग योग्य बनाने के लिए आवश्यकतानुसार कैंची से काटा जाता है और उस कटे वस्त्र को सिला जाता है। दर्जी द्वारा वस्त्र को काटना खण्डन और सिलना मण्डन है। ऐसा ही प्राय: सभी कार्यों में किया जाता है। धर्म भी कर्तव्यों को कहते हैं जिससे स्वयं व दूसरों को लाभ होता है। धर्म कर्तव्य है और अधर्म अकर्तव्यों को करने को कहते हैं। अकर्तव्यों को करने से तत्काल व कालान्तर में स्वयं व अन्यों की भी हानि होती है। ऐसा भी होता है कि चोरी व धोखाघड़ी के जिन कामों को करने से तत्काल लाभ होता है उसी कार्य का बाद में परिणाम बुरा व दु:खद होता है। ऐसे कार्य नहीं करने चाहिये जो बाद में कष्ट दें।

अत: विद्वानों द्वारा असत्य व अन्धविश्वासों का खण्डन करना अत्यन्त आवश्यक एवं मनुष्य जीवन के लिए लाभ पहुंचाने वाला कार्य है। दु:ख इस बात का है कि अज्ञानी लोगों को यह समझ में नहीं आता। उन भोले अज्ञानियों के नेता वा तथाकथित धर्मगुरू अपने स्वार्थों के कारण अपने अनुयायियों को भडक़ाते हैं जिससे सज्जन व समाजिक हित करने वालों को दु:ख व हानि होती है। आजकल इसके अनेक उदाहरण मीडिया द्वारा उजागर किये जा रहे हैं परन्तु सभी विवेकशील इसे रोकने में विवश हैं। आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती इन सब धर्म के नाम से प्रचलित मिथ्याचारों को गहराई से जानते व समझते थे। उन्होंने सामाजिक हित में प्रवृत्त होकर इन मिथ्याचारों, असत्य व अन्धविश्वासों का खण्डन किया। इसके साथ उन्होंने विद्या व ज्ञानयुक्त सत्य मान्यताओं का मण्डन किया परन्तु मत-मतान्तरों व उनके अज्ञानी अनुयायियों ने उनका विरोध किया। यहां तक कि उनको मारने व हत्या करने के अनेक प्रयत्न किये जिसके कारण अन्तत: विष के कारण 30 अक्तूबर, 1883 को उनका देहावसान हो गया। आज भी हमारा समाज विवेकहीनता, धार्मिक अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियों, सामाजिक विषमताओं आदि बुराईयों से मुक्त नहीं हुआ है। हम समझते हैं कि देश व समाज से असत्य, अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, मिथ्या व अन्ध श्रद्धा व आस्था को दूर करना अति आवश्यक है और उसके लिए असत्य का खण्डन और सत्य का मण्डन अपरिहार्य है। यदि ऐसा नहीं किया जायेगा तो देश व समाज शक्तिवान व बलवान नहीं बनेंगे और देशवासियों का जीवन पूर्ण सुखों से युक्त नहीं होगा, न हि वह अपने जीवन के उद्देश्य, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, को जानकर उसे प्राप्त कर पायेंगे।

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