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कविता

ताक में बैठे गिद्व

ताक में बैठे गिद्ध

ताक में बैठे गिद्व ये सारे,
देख अचानक झपट पड़े…
लखीमपुर की लाशों पर,
करने से सियासत उमड़ पड़े !

बंगाल में हुई चुनावी हिंसा,
अंगार अभी तक सुलग रहे…
लेकिन गिद्धों ने आंखें मूंद ली,
कोई भी वहां नहीं गए!

पालघर में हुई नृशंस हत्याओं,
पर भी वे खामोश रहे…
सोई रही गिद्धों की जमात,
अब तक देखो ऊंघ रहे !

जहां-जहां चुनावी मौसम हो,
पहले वही आग भड़काते हैं…
फिर आग में घी डालने,
तुरंत वहां चले जाते हैं !

कैसे किसान,कैसा आंदोलन,
कुछ भी समझ नहीं आता…
आंदोलन की आड़ में देखो,
जब तब दंगे भड़का जाता !

खेतीहर,मजदूर किसान तो,
अपना खेत ही जोत रहा…
सपनों की फसल उगाने को,
तन-मन अपना झोंक रहा !

अराजकता फैलाने को,
नकली किसान चले आते हैं…
अपनी सियासी रोटियां सेंकने,
घर में आग लगाते हैं!

फाड़ रहे खुलेआम तिरंगा,
ये जयचंद यहीं से आते हैं…
खालिस्तानी झंडे लहरा कर,
अपना असली रूप दिखाते हैं!
– वीरेंद्र मेहता

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