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राजनीति

2024 की के आम चुनाव निर्णायक लड़ाई में बदल सकते हैं

विनय विश्वम

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा बुलाई गई बैठक में शामिल होने वालों से हर मुद्दे पर दृष्टिकोण में एकता की उम्मीद नहीं की जाती है। बेशक उनके बीच वैचारिक और राजनीतिक मतभेद मौजूद हैं। लेकिन वे सभी एक आम दुश्मन से लड़ने के लिए एक आम समझ के साथ आए। बैठक ने 20 से 30 सितंबर तक संयुक्त राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन आयोजित करने का आह्वान किया, जो देश की राजनीतिक प्रक्रिया में एक सराहनीय कदम है। 

जिन अशांत दिनों से देश गुजर रहा है, राजनीतिक विकास की गति तीखा मोड़ लेगी। किसी भी देश की राजनीति में लोगों की तकलीफों और आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करने की क्षमता होनी चाहिए। आरएसएस-भाजपा शासन के उदय के बाद से भारत के जीवन में हुए बदलाव ने लोगों की पीड़ा को बढ़ा दिया है। नरेंद्र मोदी ने कई वादे किए हैं, लेकिन उनमें से कोई भी लोगों के कल्याण के लिए नहीं था। सब का साथ, सब का विकास की आड़ में वे देश को लूटने के लिए घरेलू और विदेशी दोनों कंपनियों के लिए मार्ग प्रशस्त करते रहे हैं। आत्मनिर्भर भारत की उनकी समझ पृथ्वी, आकाश और लोगों के हित को भी अति-धनवानों के असीम लालच को संतुष्ट करने के लिए समर्पित कर देने की है।
संकट के और गहराने से भारतीय अर्थव्यवस्था और नीचे गिर गई। नोटबंदी और जीएसटी से लेकर, उनके सभी उपाय जनता के विशाल बहुमत के जीवन स्तर को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहे थे। बेरोजगारी दर बढ़कर 9.17 प्रतिशत; सीएमआईई, जून, 2021 में हो गई है, मुद्रास्फ ीति की दर 12 प्रतिशत ;संपूर्ण बिक्री मूल्य, एमओएसपीआई, जुलाई, 2021 में तक पहुंच गई है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में मोदी का आत्मनिर्भर भारत 107 देशों में 94वें स्थान पर है। यह सब कोविड-19 के कारण नहीं हुआ, जैसा कि सरकार को संकट से बचाने वाले सिपाहियों ने दावे किये हैं। संकट प्रणालीगत और मानव निर्मित है, भले ही वित्त मंत्री ने इसे ईश्वर के कार्य के रूप में पेश किया हो।
आरएसएस-भाजपा सरकार, लोगों की शिकायतों को दूर करने के बजाय, उन पर और अधिक तकलीफें थोपने का प्रयास करती है। किसान विरोधी कृषि कानून, मजदूर विरोधी श्रम संहिता, आवश्यक रक्षा सेवा अधिनियम, सामान्य बीमा राष्ट्रीयकरण; संशोधन अधिनियम और सार्वजनिक क्षेत्र की बिक्री की पूरी चैन पाखंडी शासन का वास्तविक और राष्ट्र विरोधी चेहरा दिखाती है। सांप्रदायिकता और सामाजिक संघर्षों को हवा देकर आरएसएस और उसके परिवार ने अपनी विश्वासघाती कॉरपोरेट समर्थक नीतियों को छिपाने की कोशिश की। उनकी फासीवादी प्रवृत्ति के अनुरूप, भाजपा सरकार ने असहमति और चर्चाओं का गला घोंटने की कोशिश की। संसद के मानसून सत्र ने संसद और उसकी प्रक्रियाओं के प्रति उनकी पूर्ण उपेक्षाओं का खुलासा करके रख दिया है। जिस तरह से उन्होंने विधेयकों को पारित किया, वह लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के प्रति उनकी अवमानना को दर्शाता है। फासीवादी लोकतंत्र और संसद सहित उसके ढांचों को उसी हद तक बर्दाश्त करेंगे, जब तक वे संस्थाएं उनके वर्ग हितों की धुन पर नाचती हैं, उन्हें पूरा करती हैं। ऐसा परिदृश्य निस्संदेह लोकतंत्र और उसके भविष्य के लिए खतरनाक है।

20 अगस्त को हुई 19 विपक्षी दलों की बैठक उपरोक्त परिस्थितियों में महत्वपूर्ण हो जाती है। यह लोगों के रहन-सहन की स्थिति के प्रति भारत की विकासशील राजनीतिक सतर्कता का प्रकटीकरण था। इस तरह की पहल तभी सार्थक होगी जब वे राजनीतिक और सामाजिक दोनों रूप से सामान्य पुरुषों और महिलाओं की चिंताओं पर उचित ध्यान दें। इस संबंध में एक सकारात्मक कदम के रूप में विपक्ष की बैठक का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। भारत जैसे विशाल और बहुलतावादी देश में, राजनीतिक प्रक्रिया का विकास भी जटिल होगा। विभिन्न ताकतों और पार्टियों के विचार और नजरिये एक जैसे नहीं हो सकते हैं। देश में वस्तुगत स्थिति सभी को याद दिलाती है कि देश उन आवश्यक राजनीतिक कार्यों के लिए अनिश्चित काल तक प्रतीक्षा नहीं कर सकता है जो लोगों में विश्वास और आशा ला सकते हैं। भारत की 60 प्रतिशत से अधिक जनता भाजपा सरकार और उसकी जनविरोधी नीतियों का विरोध करती है। लेकिन उनकी आवाज बिखरी हुई है। यदि वे लोग एक संयुक्त कार्य योजना की ओर बढ़ेंगे, तो देश की राजनीति को बदला जा सकता है।
भारत के लिए ऐसा बदलाव अपरिहार्य है, हालांकि आसान नहीं है। हो सकता है कि विभिन्न तबकों के विपक्षी दल अपने-अपने अंदाज में अपना काम कर रहे हों। लेकिन गंभीर रूप से वे विश्वसनीय विकल्प की तलाश करने वाले लोगों की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर सके। भाकपा 2015 से धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और वामपंथी ताकतों के एक व्यापक मंच के विचार का अनुसरण कर रही थी। इसलिए जहां तक पार्टी का सवाल है उस दिशा में कोई भी कदम स्वागत योग्य कदम है। इसी परिप्रेक्ष्य में पार्टी ने 20 अगस्त को हुई बैठक में भाग लिया।
जहां तक देश के भविष्य की बात है तो 2024 की राजनीतिक लड़ाई निर्णायक होने वाली है। पिछले चुनाव में भाजपा के खिलाफ खड़ी हुई साठ प्रतिशत जनता आज की अवांछित सरकार को हटाने के लिए सामूहिक इच्छाशक्ति के साथ विभिन्न ताकतों की ओर देख रही है। यह अपनी विशिष्ट जटिलताओं के साथ एक भारी कार्य है। धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्धता वाला कोई भी राजनीतिक दल इस कार्य से दूर नहीं रह सकता। उस यात्रा को कम समय में पूरा करना होता है। 19 दलों की बैठक इस कारण से भी अधिक महत्व रखती है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा बुलाई गई बैठक में शामिल होने वालों से हर मुद्दे पर दृष्टिकोण में एकता की उम्मीद नहीं की जाती है। बेशक उनके बीच वैचारिक और राजनीतिक मतभेद मौजूद हैं। लेकिन वे सभी एक आम दुश्मन से लड़ने के लिए एक आम समझ के साथ आए।

बैठक ने 20 से 30 सितंबर तक संयुक्त राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन आयोजित करने का आह्वान किया, जो देश की राजनीतिक प्रक्रिया में एक सराहनीय कदम है। विपक्षी दलों की ओर से 11 सूत्रीय मांगों का चार्टर लोगों के ज्वलंत मुद्दों पर केंद्रित है। इसमें किसानों और श्रमिकों द्वारा उनके चल रहे संघर्ष में उठाई गई विभिन्न मांगों को विशेष रूप से शामिल किया गया है। 19 विपक्षी दलों द्वारा तैयार किए गए मांगों के चार्टर में समाज के सबसे वंचित वर्गों की कई चिंताओं को जगह मिलती है। वामपंथी इसे नोटिस करते हैं। इससे यह उम्मीद जगी है कि विपक्षी दलों का आंदोलन आम लोगों के जीवन और संघर्षों के प्रति जागरूक होगा। हम उम्मीद करते हैं कि वामपंथी, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतें इस आंदोलन को व्यापक और उद्देश्यपूर्ण बनाने में अपनी उचित भूमिका निभाएगी। यह लोगों के बुनियादी हितों की रक्षा करने और देश के मूल सिद्धांतों का पालन करने के लिए एक महान अभियान की शुरुआत हो सकती है। 

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