नरेन्द्र मोदी, लालकृष्ण आडवाणी और भाजपा

पीके खुराना

मोदी सचमुच बहुत अच्छे इवेंट मैनेजर हैं और उन्होंने जनता से जुडऩे के हर माध्यम और हर मंच का बेहतरीन उपयोग किया है। तकनीक का प्रयोग भी उन्होंने बेहतरीन तरीके से किया है और प्रचार के किसी अवसर को वे हाथ से जाने नहीं देते। हाल के अमरीका दौरे में उन्होंने न केवल अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को गले लगाया, बल्कि फेसबुक के मुखिया मार्क जकरबर्ग को भी बांहों में भर लिया। इससे जनसामान्य ही नहीं, मीडिया में भी यह संदेश गया कि इन महत्त्वपूर्ण हस्तियों से उनके रिश्ते अनौपचारिक हैं और वे लोग भारत के प्रधानमंत्री का सम्मान ही नहीं करते, उन्हें पसंद भी करते हैंज्सन् 1977 में पहली बार केंद्र में जनता पार्टी के रूप में एक गैर कांग्रेसी सरकार सत्ता में आई थी। जनता पार्टी के गठन से पूर्व आज की भाजपा, जनसंघ के नाम से उस दल का हिस्सा थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की सरकार के पतन के बाद हुए चुनावों में जनता पार्टी ने जगजीवन राम के  नेतृत्व में चुनाव लड़ा और उनके मुकाबले में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में इंदिरा कांग्रेस थी, जो अब स्वयं को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कहती है। उस चुनाव में इंदिरा गांधी ने शान से सत्ता में वापसी की। सन् 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनावों में भावनाओं की लहर में राजीव गांधी ने विपक्ष का सूपड़ा साफ कर दिया और ‘गांधीवादी समाजवाद’ के नारे तले अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी सिर्फ दो सीटों तक सिमट कर रह गई। यही समय था जब लालकृष्ण आडवाणी ने भाजपा अध्यक्ष का पदभार संभाला और इसे हिंदुत्व की ओर मोड़ दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह पसंदीदा एजेंडा था ही, सो उन्हें संघ का भरपूर साथ मिला और फिर अपनी रथ यात्राओं के माध्यम से वह भाजपा कार्यकर्ताओं के हीरो बन गए। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के रूप में इसकी परिणित हुई और वह भाजपा में तो सुपर हीरो हो गए, परंतु अन्य धर्मनिरपेक्ष दलों ने उनसे निर्णायक दूरी बना ली। परिणाम यह हुआ कि सन् 1998 के लोकसभा चुनावों में गठबंधन की राजनीति के कारण भाजपा को उनकी जगह अटल बिहारी वाजपेयी का मुखौटा ओढऩा पड़ा। वाजपेयी उस समय मुखौटा इसलिए थे क्योंकि सहयोगी दल आडवाणी का नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार ही नहीं थे और संघ ने विवशतावश वाजपेयी को आगे किया। वाजपेयी ने संघ को साइडलाइन लगाए रखा तो संघ भी उनके खिलाफ अफवाहें फैलाने से कभी बाज नहीं आया और आडवाणी की मार्फत वाजपेयी पर अंकुश बनाए रखने की जुगत में लगा रहा। वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में जब नरेंद्र मोदी गुजरात के  मुख्यमंत्री बने तो उनके संकट काल में आडवाणी ही उनके संकटमोचक होते थे और आडवाणी के सक्रिय संरक्षण के कारण ही कठिन समय में भी उनका मुख्यमंत्री बने रहना संभव हो पाया। सन् 2004 में भाजपा ने केंद्र में सत्ता गंवा दी और डा. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने। उसके बाद 2009 का लोकसभा चुनाव भाजपा ने आडवाणी के नेतृत्व में लड़ा, लेकिन आडवाणी अपना जादू नहीं दोहरा पाए और कांग्रेस एक बार फिर सत्ता में आ गई। तब तक नरेंद्र मोदी गुजरात में दो विधानसभा चुनाव जीत चुके थे। ‘वाइब्रेंट गुजरात’ नामक आयोजन से विदेश में बसे गुजरातियों ही नहीं, अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों को गुजरात में निवेश के लिए आमंत्रित कर चुके थे।  ‘वाइब्रेंट गुजरात’ के सफल आयोजन के बाद उन्होंने दिल्ली को अपनी मंजिल बनाया और उसी दिशा में प्रयत्न आरंभ कर दिए। यह संयोग ही था कि इस दौरान कांग्रेस और उसके सहयोगी दल घोटालों में फंसे। डा. मनमोहन सिंह की चुप्पी ने उनकी ईमानदार छवि पर ग्रहण लगा दिया और केंद्र सरकार के अनिर्णय की स्थिति ने कांग्रेस का ग्राफ बहुत नीचे गिरा दिया। आडवाणी ने देख लिया था कि उनकी हार्डलाइन हिंदुत्व की छवि के कारण उनसे दूर छिटक गए थे, इसलिए 2009 के चुनाव में उन्होंने उदार चेहरा ओढऩे की कोशिश की और इसी क्रम में वे पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बता कर वे संघ की नजरों से उतर गए और उन्हें भाजपा अध्यक्ष की कुर्सी गंवानी पड़ी। नए अध्यक्ष राजनाथ सिंह न आडवाणी जैसे कद्दावर थे, न मोदी सरीखे कलाकार, जो भीड़ को खींचे और बांधे रख सकें। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए भी मोदी विपक्ष के नेता की तरह व्यवहार कर रहे थे और उनकी लोकप्रियता लगातार बढ़ रही थी। मोदी को लेकर भाजपा कार्यकर्ताओं में उत्साह बढऩे लगा। संघ ने इसे समय पर समझ लिया, लेकिन आडवाणी दीवार पर लिखी इबारत नहीं पढ़ पाए।  भाजपा के पराजय के क्षणों में आडवाणी ने भाजपा को नेतृत्व देकर उसे फिर से प्रासंगिक बना दिया था। मोदी के कठिन क्षणों में वे मोदी के तारणहार भी थे, लेकिन जब भाजपा कार्यकर्ताओं में मोदी के प्रति उत्साह जग रहा था, तो वे उसकी गहराई को नहीं समझ पाए और मोदी के विरोध में जा खड़े हुए। वह ‘प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग’ थे और सही समय पर प्रधानमंत्री बन पाना अपना हक मानते थे और अपने एक कनिष्ठ सहयोगी को प्रधानमंत्री पद की दावेदारी जताते देखना उन्हें न भाया, न समझ में आया। यहीं वे गच्चा खा गए और लगभग बेरोजगार हो गए। मोदी के डर से वे भोपाल से चुनाव लडऩा चाहते थे, लेकिन मोदी ने उन्हें ऐसा भी नहीं करने दिया। मुरली मनोहर जोशी को वाराणसी से बाहर धकेल दिया। वह भी तब, जब वह वाराणसी में अपना चुनाव अभियान पहले ही शुरू कर चुके थे। इसके साथ ही कांग्रेस की निष्क्रियता और राहुल गांधी की अपरिपक्वता से उकताए मतदाताओं में मोदी के प्रति आकर्षण इतना अधिक था कि जनता ने उन्हें झोलियां भर-भर कर वोट दिए और भाजपा पहली बार अपने ही दम पर केंद्र में सत्तासीन हो सकी। सत्तासीन होते ही मोदी ने आडवाणी को उनकी औकात दिखा दी, लेकिन इस दौरान वह अटल बिहारी वाजपेयी की प्रशंसा के गीत गाते रहे। यह एक बढिय़ा ट्रिक है, क्योंकि आडवाणी अभी भी सांसद हैं और उनकी महत्त्वाकांक्षाएं अभी मरी नहीं थीं और वाजपेयी सत्ता की दौड़ में नहीं थे। मोदी सचमुच बहुत अच्छे इवेंट मैनेजर हैं और उन्होंने जनता से जुडऩे के हर माध्यम और हर मंच का बेहतरीन उपयोग किया है। तकनीक का प्रयोग भी उन्होंने बेहतरीन तरीके से किया है और प्रचार के किसी अवसर को वे हाथ से जाने नहीं देते। हाल के अमरीका दौरे में उन्होंने न केवल अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को गले लगाया, बल्कि फेसबुक के मुखिया मार्क जकरबर्ग को भी बांहों में भर लिया। इससे जनसामान्य ही नहीं, मीडिया में भी यह संदेश गया कि इन महत्त्वपूर्ण हस्तियों से उनके रिश्ते अनौपचारिक हैं और वे लोग भारत के प्रधानमंत्री का सम्मान ही नहीं करते, उन्हें पसंद भी करते हैं। बारीकी से विश्लेषण किया जाए तो यह स्पष्ट है कि वह महत्त्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय हस्तियों के करीब दिखना चाहते हैं। अप्रवासी भारतीयों से अपनापन जताते हैं और अपने देश की जनता से जुड़ते तो हैं, लेकिन भारतीय जनता से संवाद का उनका तरीका एकतरफा है। जहां वे बोलते हैं और जनता सुनती है। मोदी, आडवाणी और भाजपा के बीच का समीकरण ऐसा है, जहां आडवाणी अब अप्रासंगिक हैं और मोदी ही भाजपा हैं। यह मोदी का ही चमत्कार है कि भाजपा के सभी पूर्व अध्यक्ष ही नहीं, पूरा दल ही मोदी के सामने बौने हो गए हैं।

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