नित्य संध्या उपासना है मनुष्य का प्राथमिक कर्तव्य

ग्रेटर नोएडा। चतुर्वेद पारायण जग में उपस्थित रहे विद्वानों ने अलग-अलग दिन अपने अपने संबोधन में उपस्थित लोगों का मार्गदर्शन करते हुए कहा कि सन्ध्योपासना विधि के आरम्भ में ऋषि दयानन्द जी ने लिखा है कि यह पुस्तक नित्यकर्मविधि का है। इसमें पंचमहायज्ञों का विधान है। इन पंचमहायज्ञों के नाम हैं–ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ और नृयज्ञ। इन यज्ञों के मऩ्त्र, मन्त्रों के अर्थ और जो-जो करने का विधान लिखा है, उसे यथावत् करना चाहिये। एकान्त देश में अपने आत्मा मन और शरीर को शुद्ध और शान्त करके उस-उस कर्म में चित्त लगाके तत्पर होना चाहिये। इन नित्यकर्मों को करने का फल यह है कि ज्ञानप्राप्ति से आत्मा की उन्नति और आरोग्यता होने से शरीर के सुख से व्यवहार और परमार्थ-कार्यों की सिद्धि का होना। उससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सिद्ध होते हैं। इनके प्राप्त होने से मनुष्य का सुखी होना उचित है अर्थात् मनुष्य सुखी होता है वा दुःखों से मुक्त होता है।

मंच संचालक और भारतीय वैदिक संस्कृति के प्रति समर्पित युवा आर्य नेता आर्य सागर खारी ने इस विषय पर बोलते हुए कहा कि सन्ध्योपासना विधि में ऋषि दयानन्द ने सन्ध्या शब्द का अर्थ बताते हुए लिखा है कि भली भांति ध्यान करते हैं, वा ध्यान किया जाये परमेश्वर का जिसमें, वह <span;><span;>सन्ध्या’<span;>। सो रात और दिन के संयोग-समय दोनों सन्ध्याओं में सब मनुष्यों को परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिये। इसके बाद शरीर की बाह्य और भीतर की शुद्धि का उल्लेख किया गया है। इसके पक्ष में मनुस्मृति का श्लोक प्रस्तुत किया गया जो बताता है कि शरीर जल से, मन सत्य से, जीवात्मा विद्या और तप से तथा बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है। ऋषि दयानन्द इस क्रम में कहते हैं कि शरीर-शुद्धि की अपेक्षा अन्तःकरण की शुद्धि सबको अवश्य करनी चाहिये क्योंकि वही सर्वोत्तम और परमेश्वर-प्राप्ति का एक साधन है। इसके बाद तीन प्राणायाम करने का विधान किया गया है और उसकी विधि भी लिखी है। इसके बाद सन्ध्या में आचमन आदि से सम्बन्धित मन्त्र व उनके अर्थ दिये गये हैं। इसका प्रतिदिन प्रातःसायं सेवन करने से मनुष्य को इष्ट धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है।
सरपंच रामेश्वर सिंह ने अपने संबोधन में कहा कि यदि कोई पूछे कि सन्ध्या क्यों करते हैं तो इसका उत्तर है कि धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति के लिये सन्ध्या करते हैं। किसी भी मत में धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष का वैदिक धर्म की तरह उल्लेख नहीं है। इससे सभी मत अपूर्ण सिद्ध होते हैं। वेदेतर मत के अनुयायियों को यह ज्ञात नहीं है कि सन्ध्या करने से मनुष्य को इन चार पुरुषार्थों की प्राप्ति वा सिद्धि होती है। सन्ध्या करने व इसके अंग स्वाध्याय करने से मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि सहित आत्मा की उन्नति भी होती है। वेद एवं वैदिक साहित्य को पढ़कर जो ज्ञान व आत्मा की उन्नति होती है वह इतर मतों के अध्ययन से नहीं होती। इसका कारण यह है कि ईश्वरीय व सांसारिक ज्ञान की जो पूर्णता वेद व वैदिक मत में है वह अन्य मतों में नहीं है। अतः सबको सन्ध्योपासना अवश्य करनी चाहिये। इससे हमें इस जीवन में भी लाभ होता है और परजन्म वा पुनर्जन्म में भी लाभ होगा। हम यह भी कहना चाहते हैं कि सन्ध्योपासना की विधि का निर्माण ऋषि दयानन्द ने किया है। ऋषि दयानन्द जी वेदों के गम्भीर व अतुलनीय विद्वान होने के साथ सफल योगी भी थे। उन्होंने ईश्वर का साक्षात्कार किया था। इस कारण उनके द्वारा निर्मित सन्ध्योपासना विधि वा पंचमहायज्ञविधि सर्वाधिक प्रमाणिक होने से सर्वग्राह्य ग्रन्थ है। उपासना में सफलता प्राप्त करने के अभिलाषी साधको को सन्ध्योपासना विधि के आधार पर उपासना करके मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील होना चाहिये।

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