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वैश्विक मंदी से बचाव के उपाय

डॉ भरत झुनझुनवाला

भविष्य में विकसित एवं विकासशील देशों के बिल गेट्स जैसे अमीरों के पास क्रय शक्ति संचित हो जाएगी। इन्हें खिलौना, टेलीविजन और साधारण कपड़े नहीं चाहिए। इन्हें हाई-फाई डिजायनर कपड़े, विडियो गेम्स, कस्टम मूवी, स्पेस टै्रवल इत्यादि सेवाएं चाहिए। हमारा ध्येय इन सेवाओं के निर्यात के विस्तार का होना चाहिए। इन निर्यातों में हम वर्तमान में ही सुदृढ़ हैं। इन सेवाओं के विस्तार के लिए हमें भारी भरकम विदेशी निवेश भी नहीं चाहिए। इनके लिए अपने सॉफ्टवेयर स्र्टाट अप कंपनियों के लिए पैकेज बनाना चाहिए। अपने देश के उद्यमियों का मनोबल बढ़ाना चाहिए, न कि विदेशी निवेश का डंका बजाकर उन्हें डाउन करना चाहिएज्विश्व अर्थव्यवस्था में मंदी गहरा रही है। ग्रीस के संकट से यूरोप के अंदरूनी हालात के संकेत मिलते हैं। वैश्विक प्रतिस्पर्धा में ग्रीस टिक नहीं पा रहा था। ग्रीस द्वारा एप्पल स्मार्ट फोन जैसे उत्पादों को कम ही बनाया जा रहा था। खिलौने जैसे सामान्य माल का उत्पादन विकासशील देशों में सस्ता हो रहा था। ग्रीस में मैन्युफेक्चरिंग ठंडी पड़ गई थी। ग्रीस की सरकार की आय कम और खर्च ज्यादा थे। ऋण लेकर कुछ वर्ष गाड़ी चलती रही। अंतत: ग्रीस की सरकार ऋण अदा नहीं कर पाई और ग्रीस संकट की चपेट में आ गया। ग्रीस की समस्या वास्तव में पूरे यूरोप में समस्या का संकेत है। मूल रूप से यूरोप की प्रतिस्पर्धा शक्ति का हृस हो रहा है। इस हृस का परिणाम सर्वप्रथम ग्रीस जैसे कमजोर देश में प्रकट हुआ है। चीन भी संकट में है। पिछले तीन दशकों में विदेशी कंपनियों ने चीन में माल का उत्पादन किया और यूरोप तथा अमरीका में उसे बेचा। वर्तमान में अमरीका और यूरोप के बाजार ठंडे पडऩे लगे हैं। फलस्वरूप चीन के निर्यात दबाव में आ गए हैं। चीन को मजबूरन अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करना पड़ा है। बावजूद अवमूल्यन के चीन की विकास दर गिरती जा रही है, चूंकि विश्व बाजार मंदा है। फिलहाल मौजूदा समय में अमरीका स्वस्थ दिख रहा है, परंतु यहां भी सब ठीक नहीं है। पिछले सात वर्षों से अमरीका के केंद्रीय बैंक ने ब्याज दर शून्यप्राय बना रखी है।इस सस्ते ऋण के आकर्षण में अमरीकी नागरिक क्रेडिट कार्ड पर भारी मात्रा में खरीददारी कर रहे हैं। ग्रीस की तरह अमरीका की सरकार भी भारी मात्रा में ऋण ले रही है। अंतर यह है कि ग्रीस छोटा देश है, जबकि अमरीका विशाल देश है। अतएव विश्व के निवेशकों ने ग्रीस को ऋण देने से हाथ खींच लिया है और वे अमरीकी सरकार को ऋण देते जा रहे हैं। ऋण लेकर भोग करने की एक सीमा है। सच्चाई सामने आने में समय लग रहा है। जैसे जमींदार के खस्ताहाल दिखने में समय लगता है, वैसा ही हाल अमरीका का है। अमरीका भी वैश्विक स्पर्धा में टिक नहीं पा रहा है। वहां भी आय कम और खर्च ज्यादा है, जिसकी भरपाई ऋण लेकर की जा रही है। दरअसल ग्रीस, चीन और अमरीका तीनों देशों की समस्या के मूल में वैश्विक प्रतिस्पर्धा ही है। तीनों देश माल नहीं बेच पा रहे हैं। इस परिस्थिति को उत्पन्न करने का श्रेय वैश्वीकरण को जाता है। विकसित देशों की कंपनियों ने विकासशील देशों में अपने प्रतिष्ठान स्थापित करके उन्नत उत्पादों को वहां बनाना शुरू कर दिया। वियतनाम, बांग्लादेश तथा फिलीपींस जैसे देशों में श्रम की लागत कम होने के कारण उत्पादन लागत कम आती है। इन देशों की तुलना में यूरोप तथा अमरीका में वेतन ऊंचे हैं और उत्पादन लागत अधिक आती है। ऐसे में विकसित देश प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं पा रहे हैं। उदाहरण के लिए जनरल मोटर ने कार का उत्पादन भारत और चीन में शुरू कर दिया है।फलस्वरूप अमरीका में बनी कारों का निर्यात कम हो रहा है। तीन वर्ष पूर्व कंपनी ने इस परिस्थिति से अपने अमरीकी श्रमिकों को अवगत कराया और उन्हें वेतन में कटौती स्वीकार करने को मना लिया। अमरीकी श्रमिकों पर इसी प्रकार का दबाव अन्य स्थानों पर भी बन रहा है। वेतन में कटौती से अमरीकी श्रमिकों की क्रय शक्ति कम हो रही है। वे चीन में बने माल को कम मात्रा में खरीद रहे हैं।

इस प्रकार क्रेता अमरीका और विक्रेता चीन दोनों ही संकट में पड़े हैं। यूं समझिए कि किसी शहर में कुछ ऊंची इमारतें और कुछ छोटे घर हैं। ऊंची इमारतों से तमाम पर्यटक आकर्षित होते हैं। छोटे घरों का भी कारोबार चल निकलता है। दूसरे शहर में सब इमारतें बराबर हैं। वहां ऊंची इमारतों का आकर्षण नहीं है। पर्यटक नहीं आते हैं। सब तरफ  उदासी है। इसी प्रकार वैश्वीकरण के चलते विकसित देशों की ऊंची इमारतें ध्वस्त हो रही हैं। विकसित देशों का आकर्षण कम हो रहा है। इस बराबरी के चलते पूरे विश्व में उदासी छा रही है।इस वातावरण में हमें अपना रास्ता खोजना है। मेक इन इंडिया के तहत हमारी सरकार चीन के मॉडल को दोहराने का प्रयास कर रही है। हमारे प्रधानमंत्री ने अमरीकी कंपनियों के मुख्य अधिकारियों से मुलाकात करके उन्हें भारत में निवेश करने को प्रोत्साहित किया है। चीन की पालिसी को प्रधानमंत्री अपने यहां लागू करना चाहते हैं और वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों से जोड़ बैठाने का प्रयास कर रहे हैं। चीन में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारी मात्रा में निवेश किया था। चीन के लोगों को रोजगार भी मिले थे। उनके जीवन स्तर में भारी सुधार हुआ है। इसी पालिसी के भारत में सफल होने में संदेह दिखाई देता है, चूंकि आज जमीनी हालात बदल चुके हैं। अस्सी के दशक में चीन ने विदेशी निवेश को आकर्षित किया था। उस समय विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाएं अपने स्वर्णिम काल में थीं। जनरल मोटर्स द्वारा अमरीका में कार बनाकर निर्यात किया जा रहा था। जनरल मोटर्स ने अपने अर्जित लाभ का निवेश चीन में किया और चीन में बने माल का निर्यात अमरीका को किया। जनरल मोटर्स में कार्यरत श्रमिक ऊंचे वेतन पा रहे थे। अत: वे चीन में बने कैमरे, टेलीविजन और खिलौने धड़ल्ले से खरीद रहे थे। आज पासा पलट गया है। जनरल मोटर्स भी खस्ताहाल में है। 2008 के संकट के बाद अमरीकी सरकार ने इस कंपनी को राहत पैकेज देकर जीवित रखा था। आज जनरल मोटर्स के श्रमिक वेतन कटौती की मार से जूझ रहे हैं। इनकी जेब में चीन में बने माल को खरीदने की क्रय शक्ति नहीं है। वास्तविकता यह है कि अमरीकी कंपनियों के पास भारत में निवेश करने के लिए आय नहीं है और अमरीकी श्रमिकों के पास भारत में बने माल को खरीदने की ताकत नहीं है। ऐसे में बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में निवेश करने को उत्सुक नहीं होंगी। संभवतया इन्हीं कारणों से मोदी के डेढ़ वर्ष के प्रयास के बावजूद विदेशी निवेश में ठोस वृद्धि नहीं हुई है। इस परिस्थिति में हमें देखना चाहिए कि विश्व अर्थव्यवस्था में किस प्रकार के माल को खरीदने के लिए क्रय शक्ति का विस्तार होगा। भविष्य में विकसित एवं विकासशील देशों के बिल गेट्स जैसे अमीरों के पास क्रय शक्ति संचित हो जाएगी।

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