बंधु बांधवों, मित्रों, परिजनों की क्या पहचान बताते हैं आचार्य चाणक्य

चाणक्य नीति

आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुसंकटे।

राजद्वारे श्मशाने च यात्तिष्ठति स बान्धवः।।

यहां आचार्य चाणक्य बंधु-बांधवों, मित्रों और परिवारजनों की पहचान बताते हुए कहते हैं कि रोग की दशा में‒जब कोई बीमार होने पर, असमय शत्रु से घिर जाने पर, राजकार्य में सहायक रूप में तथा मृत्यु पर श्मशान भूमि में ले जाने वाला व्यक्ति सच्चा मित्र और बंधु है।

देखा जाए तो सामाजिक प्राणी होने के कारण मनुष्य के सम्पर्क में अनेक लोग आ जाते हैं और अपने लाभ के कारण वह व्यक्ति से जुड़े होने का भाव भी जताते हैं, किन्तु वे कितने सच्चे और सही मित्र हैं और कितने मौकापरस्त, इसका अनुभव तो समय आने पर ही हो पाता है।
ऊपर वर्णित स्थितियां ऐसे ही अवसर का उदाहरण हैं। जब कोई व्यक्ति रोगग्रस्त हो जाता है तो उसे सहायक की आवश्यकता पड़ती है, ऐसे में परिवारजन और मित्र बन्धु जो सहायक बनते हैं वास्तव में वही सही मित्र कहे जाते हैं। शेष सब तो मुंहदेखी बातें हैं। इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति शत्रु से घिर जाए, उसके प्राण संकट में पड़ जाएं तो जो कोई मित्र, सगा-सम्बन्धी शत्रुओं से मुक्ति दिलाता है, प्राण रक्षा में सहायक बनता है वह उसका मित्र व हितैषी है। शेष सब स्वार्थ के नाते ही जुड़े हैं।
ऐसे ही राजा और सरकार की ओर से व्यक्ति पर न्यायिक मामले में अभियोग लग जाता है या किसी राजकीय कर्म में उसके समक्ष बड़ी समस्या आ जाती है तो मित्र-बन्धु (यदि वे सच्चे हैं तो) ही सहयोग करते हैं और मृत्युपरान्त तो हम सभी जानते हैं कि व्यक्ति चार व्यक्तियों के कन्धों पर सवार होकर ही श्मशान पहुंचता है। ऐसे में मित्र-सम्बन्धियों की ही अपेक्षा होती है। ऐसे समय में ही सच्चे और सही ईमानदार मित्र की वास्तविक पहचान होती है।

 

प्रस्तुति : राहुल धूत

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