जिला पंचायत चुनाव – सिर्फ सत्ताबल और धनबल का चुनाव

अशोक मधुप

आज प्रदेश में भाजपा सत्ता में है। उसकी स्थिति बहुत मजबूत है। कांग्रेस और रालोद का अपना अकेले कोई वजूद नहीं। बसपा जिला पंचायत चुनाव लड़ नहीं रही। सपा ने अपने प्रत्याशी मैदान में उतारे। चुनाव लड़ने की घोषणा तो की, किंतु आधे−अधूरे मन से चुनाव लड़ा जा रहा है।

उत्तर प्रदेश में जिला पंचायत के चुनाव चल रहे हैं। तीन जुलाई को मतदान है। मीडिया अपने−अपने दृष्टिकोण से इनका विश्लेषण कर रही है। कोई इसे अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल बता रहा है। कोई कह रहा है कि पश्चिम उत्तर प्रदेश में भाकियू के विरोध के कारण भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। सबके अपने अलग−अलग तर्क हैं, अलग−अलग राय। अलग सोच। जबकि ये अलग तरह का चुनाव है। इस चुनाव में प्रदेश में सत्तारुढ़ दल लाभ में रहता है। खुलकर पैसा भी चलता है। पैसे के आगे सब आस्था और सिद्धांत एक कोने में पड़े रह जाते हैं।

देश में चुनाव में धनबल का सबसे ज्यादा असर

जिला पंचायत अध्यक्ष के इस चुनाव में अक्सर देखने को मिलता है कि जिला पंचायत के सदस्य सरेआम खरीदे और बेचे जाते हैं। सदस्यों की खुली कीमत लगती है। प्रत्याशी मांगी या तय रकम सदस्य के घर पहुंचा देते हैं। पैसा घर पहुंचने के बाद सदस्य मतदान करने तक प्रत्याशी के पास रहता है। वोट डालने के बाद ही उसे मुक्ति मिलती है। मनमांगा पैसा दिया जाता है, इसीलिए कई बार तो सदस्य का खुला वोट लिया जाता है या वोटर के साथ अपना विश्वसनीय सहायक बनाकर मतदान केंद्र में भेज दिया जाता है।

दरअस्ल यह चुनाव प्रत्यक्ष नहीं होता। जिला पंचायत अध्यक्ष के लिए जिला पंचायत के और क्षेत्र पंचायत अध्यक्ष के लिए क्षेत्र पंचायत के मतदाता मतदान नहीं करते हैं। इनमें जिला पंचायत के लिए चुनकर आए सदस्य जिला पंचायत और क्षेत्र पंचायत के लिए चुनकर आए सदस्य क्षेत्र पंचायत अध्यक्ष के लिए मतदान करते हैं। प्रधान के लिए सीधे मतदान होता है। बहुत समय से जिला पंचायत और क्षेत्र पंचायत के लिए भी सीधे मतदान की मांग हो रही है। इसमें कानूनी अड़चन आ रही है। उसे दूर करने के बाद ही ऐसा संभव है।

आज प्रदेश में भाजपा सत्ता में है। उसकी स्थिति बहुत मजबूत है। कांग्रेस और रालोद का अपना अकेले कोई वजूद नहीं। बसपा जिला पंचायत चुनाव लड़ नहीं रही। सपा ने अपने प्रत्याशी मैदान में उतारे। चुनाव लड़ने की घोषणा तो की, किंतु आधे−अधूरे मन से चुनाव लड़ा जा रहा है। कोई कुछ कहे सभी राजनैतिक दल इस चुनाव की सच्चाई जानते हैं। जानते हैं कि चुनाव सत्ता और पैसे का है। एक बात और नेता कुछ भी कहें धनबल के आगे पार्टी, रिश्ते सब बेकार हो जाते हैं। यही कारण है कि 17 जनपदों में अकेले भाजपा प्रत्याशियों ने नामजदगी कराई। दूसरा प्रत्याशी नामजदगी नहीं करा सका। बताया जाता है कि जहां नामजदगी हुई, वहां पर्चा इस तरह भरा गया कि वह निरस्त हो जाए। न कहीं कोरोना महामारी से जनता की भाजपा से नाराजगी नजर आई। न भारतीय किसान यूनियन का विरोध। क्योंकि ये इस तरह का चुनाव नहीं है। आम मतदाता की इस चुनाव में भागीदारी ही नहीं है। पार्टी के जिलाध्यक्षों का इस चुनाव में ढुलमुल रवैया देख समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने पार्टी के 11 जिलाध्यक्षों को बर्खास्त कर दिया।

इस बार एक वोट का मूल्य 15 से 20 लाख के आसपास बताया जा रहा है। जहां इतना पैसा मिले, वहां सब व्यर्थ हो जाता है। पार्टी सिद्धांत सब किनारे हो जातें हैं। दूसरे प्रत्येक जिला पंचायत सदस्य जानता है कि वह सत्तारुढ़ पार्टी के साथ रहकर लाभ कमा सकता है। विरोधी पक्ष में रहकर कुछ लाभ होने वाला नहीं है। जिला पंचायत के कार्य संचालन के लिए समिति बनती है। कई समितियां होती हैं। अध्यक्ष के साथ रहने वाले इसमें शामिल होकर लाभ उठाते हैं। दूसरे चुनाव में सदस्य का मूल्य काफी आकर्षक होता है। 15−20 लाख तो आम बताया जाता है। जरूरत के हिसाब से रेट बढ़ता जाता है। ज्यादा विरोध कर ज्यादा लाभ कमाया जा सकता है। ऐसी हालत में सत्ताबल और धनबल के इस चुनाव को विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल बताना एक तरह की बेईमानी ही है। यह अपने को और पाठक को धोखा देना है।

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