कोणार्क सूर्य मंदिर , क्षेपक – 6. अंगुल से पृथ्वी के व्यास तक

The Temple of the Sun complex at Konarak, Dedicated to the sun god Surya. India. Hindu. mid 13th century. Orissa. (Photo by Werner Forman/Universal Images Group/Getty Images)

कोणार्क सूर्यमन्दिर
इस लेख शृंखला में जो गिनी चुनी टिप्पणियाँ आ रही हैं उनमें प्राय: श्रम पक्ष की बड़ी प्रशंसा रहती है 😉 रविशंकर जी ने एक टिप्पणी में सन्दर्भों को लेख के भीतर स्थान देने की बात कही थी।

The Temple of the Sun complex at Konarak, Dedicated to the sun god Surya. India. Hindu. mid 13th century. Orissa. (Photo by Werner Forman/Universal Images Group/Getty Images)

मित्रों! वास्तविकता यही है कि मुझे बहुत श्रम करना पड़ रहा है लेकिन आनन्द भी आ रहा है। सन्दर्भों को देना अवश्य चाहिये लेकिन अभी समय नहीं है। अंत में देने पर विचार करूँगा। बस यही कहूँगा – तेरा तुझको सौंपते क्या लागत है मोहे!
उन सभी विद्वानों और विभूतियों का आभारी हूँ जिनकी सामग्री ले कर मैं स्वयं को प्रस्तुत कर पा रहा हूँ। इंटरनेट पर गुगल सर्च, आर्काइव, ओडिशा (उड़ीसा) सरकार की वेब साइट पर उपलब्ध उत्कृष्ट सामग्री (और अंत में विकिपीडिया) से काम आगे बढ़ रहा है। कुछ भी लिखने के पहले स्वयं को पुख्ता करना होता है, संतुष्ट करना होता है क्यों कि नेट पर भी अकादमिक जगत की तरह ही तमाम पूर्वग्रह, त्रुटियाँ, अधूरापन, बासीपन आदि आदि से पाला पड़ता है। विकिपीडिया का प्रयोग इस मामले में तलवार की धार पर चलने की तरह है।
मैं मूल ग्रंथों और आलेखों को स्वयं देखने पर जोर देता हूँ जिसमें समय लगता है। तमाम संस्कृत में उपलब्ध हैं जिनके लिये अंग्रेजी अनुवाद देखने पड़ते हैं, मूल को देख तय करना पड़ता है कि अनुवाद सही है या नहीं। एक ही मूल के कई अनुवाद भी देखने पड़ते हैं। इन सबमें समय लगता है। कभी कभी तो एक शब्द, वाक्य या तथ्य के चक्कर में ही कई दिन निकल जाते हैं। बहुत से असम्बद्ध सन्दर्भ भी पढ़ने पड़ते हैं जिनसे अंतत: लेख के लिये कुछ खास हाथ नहीं लगता। पढ़ो सौ पृष्ठ और लिखो एक वाक्य! जिसके कि पहले ही किसी और द्वारा लिखे जा चुकने की भी सम्भावना रहती है। ऐसे में सन्दर्भों को देने में आलस कर जाता हूँ।…
…उदाहरण के लिये इस आलेख का ही मामला ले लीजिये। इस कड़ी में मुझे सूर्य मन्दिर के क्षैतिज विन्यास (तकनीकी बोली में plan) को प्रस्तुत करना था। कुछ प्रश्न मुँह बाये खड़े हो गये – उस युग में इंच, फीट, मीटर आदि तो प्रयुक्त हुये नहीं होंगे! मापन की इकाई क्या रही होगी? उसका वर्तमान इकाइयों में मान क्या होगा?
उस समय की दृष्टि से ये प्रश्न महत्त्वपूर्ण हैं क्यों कि ‘यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे’ में विश्वास के कारण योजनाओं में इकाई, फ्रैक्टल और फैक्टर महत्त्वपूर्ण होते थे। कुछ अनुपात आँखों को प्रीतिकर लगते हैं और विशालता से जुड़ कर दिव्य प्रभाव भी उत्पन्न करते हैं। ऐसे मन्दिरों की संरचना में निर्माण के पहले ही क्षैतिज मापों का सम्बन्ध ऊँचाइयों से सुनिश्चित किया जाता था ताकि सम्पूर्ण प्रभाव की सृष्टि हो सके। बीजगणित का प्रयोग न होने और केवल साधारण गणित और ज्यामिति प्रयुक्त होने के कारण इकाई ऐसी होनी चाहिये थी कि:
(क) स्वयं उसका और उसके गुणकों का शिक्षित और अल्पशिक्षित दोनों तरह के मनुष्यों द्वारा अनुमान हो सके
(ख) पिंड यानि मनुष्य शरीर से मापन सम्बद्ध रहे ताकि प्रक्रिया सरल रहे
(ग) उसके गुणन और विभाजन की प्रक्रिया ज्यामिति की सरल रचनाओं और युक्तियों द्वारा पूर्ण की जा सके
तो आइये चलते हैं जौ से धरती के व्यास तक की दूरी के आँकलन अभियान पर!
अणु, केश, बालुका (रेणु?), सरसो के बीज से सम्बन्धित सूक्ष्म इकाइयों से होते हुये मैं पहुँचा जौ पर जो कि इंच के आठवें भाग के आसपास का होने के कारण महत्त्वपूर्ण लगा क्यों कि आज भी मापन पटरी पर इंच का आठवाँ भाग उकेरा रहता है। जौ से आगे की इकाई पता चली – अंगुल।
यह इकाई ऊपर बताये पहले दो मानकों पर खरी उतरती है। भात या दाल पकाती हुई गृहिणी पात्र में पानी की सही मात्रा का अनुमान अंगुल से ही नाप कर लगाती है। सुविधानुसार वह इसका आधा, पौना भी कर लेती है। किसान लकड़ी और अंगुली के समायोजन द्वारा खेत में पानी के सही भराव का अनुमान कर लेता है। स्थापति और शिल्पियों के लिये तो सुभीता है ही।
आगे की आवश्यकताओं के कारण अंगुल के मापन में परिवर्तन हुआ। नाम वही रहा, दिशा परिवर्तित हो गई। जो इकाई अंगुली की नोक से उसके प्रथम जोड़ तक की दूरी थी, वह अब अंगुली की मोटाई हो गई। इसका लाभ यह हुआ कि लम्बाई की तुलना में मोटाई में व्यक्ति-भेद से अपेक्षाकृत कम परिवर्तन होने के कारण इसके मानकीकरण में सरलता हो गई।
अंगूठे के अतिरिक्त चार अंगुलियों को सटा कर सरल ही एक दूरी मानकीकृत की जा सकती है। गाँव देहात में आज भी चार अंगुल का माप प्रचलित है। विद्वानों की दृष्टि हाथ के ऐसे अगले रूप पर गई जो चार अंगुलियों से बड़ा था और पर्याप्त उपयोगी भी यानि वितस्ति – अंगुलियों को भरपूर फैलाव का तनाव देने पर अंगूठे की नोक से मध्यमा (कहीं कहीं कनिष्ठका) अंगुली की नोक तक की दूरी – आम जन का ‘बित्ता’ या टी वी विज्ञापन का ‘बिलांग’।
यह बित्ता 12 अंगुलों के बराबर होता है यानि चार अंगुल तीन बार। है न सरल? पंजे, हाथ और शरीर की लम्बाई को भी अंगुल के आधार पर मानकीकृत कर दिया गया।
मानव देह का महत्त्व अब समझ में आ रहा होगा। देहधर्मिता के कई आयाम हैं J
इन्हीं कारणों से ‘अंगुल’ इकाई सार्वकालिक और सार्वदेशिक रही। ‘अंगुल करना’ मुहावरा अश्लील संकेत नहीं रखता बल्कि यह जताता है कि नाप जोख कर या मीन मेख निकाल कर सामने वाले को परेशान करना J भारत में ‘अंगुल’ का प्रयोग सरस्वती सिन्धु सभ्यता से होता चला आया है।
अर्थशास्त्र के ‘मध्यम मनुष्य मध्यमा मध्य’ को लोथल की दस इकाई के बराबर पाया गया यानि आज का 1.778 सेंटीमीटर [मैनकर]। धौलावीरा की एक मापन इकाई हड़प्पा के 108 अंगुलों के बराबर पाई गई। उससे यह पता चला कि अंगुल ~ 1.76 सेमी. [डैनिनो]। आई.आई.टी कानपुर के बालसुब्रमण्यम ने कालीबंगन के अंगुल की माप 1.75 सेमी. निर्धारित की।
निर्माण स्थापत्य के विशाल और जटिल होते जाने एवं युद्धों में शस्त्रास्त्रों के मानकीकरण की आवश्यकता के कारण इकाई यानि अंगुल को और सुव्यवस्थित करना आवश्यक हो गया। जौ यानि यव का दाना छोटा बड़ा हो सकता है और अंगुली मोटी पतली; तो मानक क्या हो? मध्यकाल में भोजकृत समरांगणसूत्रधार में जौ के दाने के औसत आकार ‘यवमध्य’ को इकाई माना गया और ‘मध्यमा’, ‘तर्जनी’ और ‘कनिष्ठका’ अंगुलियों की मोटाइयों में भेद के आधार पर अंगुल के ये तीन भेद बताये गये:
1 ज्येष्ठांगुल = 8 यवमध्य; 1 मध्यांगुल = 7 यवमध्य और 1 कनिष्ठांगुल = 6 यवमध्य।
चार चार अंगुल की छ: या दो दो वितस्तियों के भेद से 1 कर या 1 हस्त (हाथ) हुआ 24 ज्येष्ठांगुलों के बराबर जिसे प्राशय भी कहा गया। 24 मध्यांगुलों के बराबर हुआ एक ‘साधारण’ और 24 कनिष्ठांगुलों के बराबर की लम्बाई कहलाई ‘शय’।
मनुष्य की देह हुई चार हाथ के बराबर यानि 96 अंगुल (ज्येष्ठ)। भूमि पर टेक कर तीर चलाने वाले धनुर्धर योद्धा का धनुष भी इसी लम्बाई का हुआ और धनु, धनुष और चाप भी दूरी मापन की इकाई हो गये, जैसे – इस धनुष से सौ धनु दूरी तक तीर की मार की जा सकती है। धनुषों का वर्गीकरण उनकी दूरी तक तीर प्रक्षेपित करने की क्षमता के आधार पर होने लगा।
आगे से कोई पृथ्वीराज चौहान और चन्द्रबरदाई के प्रसंग ‘चार बाँस …. अंगुल अष्ट प्रमाण’ को कोरी गप्प कहे तो आप ‘मत चूको चौहान’ को मन में दुहराते हुये उसे ‘अंगुल कर सकते’ हैं यानि उसे रहस्य बता सकते हैं। ‘बाँस भी कर सकते हैं’ क्यों कि बाँस भी मापन की एक परिभाषित इकाई थी जिसका प्रयोग अधिकतर ऊँचाई मापन में होता था।
एक हजार धनुओं के बराबर की दूरी क्रोश यानि हमारा आप का ‘कोस भर धरती’ कहलाई। आठ कोस की दूरी कहलाई ‘योजन’। अब मुझे नहीं पता कि हनुमान जी सौ योजन की दूरी कैसे तैर कर पार कर गये? वाल्मीकि के समय में क्रोश छोटा होता रहा होगा। कारण वही – मानकीकरण का अभाव।
मानकीकरण से ध्यान अब अपेक्षित पर चला गया है – अंगुल की सही माप कोणार्क के युग में क्या थी? मेरे मन में पुन: सूर्योपासक मग ब्राह्मण ‘खरमंडल’ मचाने लगे हैं। आर्यभट और वाराहमिहिर क्या कहते हैं इस बारे में? दोनों कथित टोना टोटके वाले सकलदीपी पंडित थे। उन पर ध्यान जाने का एक और कारण है – रेणु। भोज ने ही बताया कि 1 यवमध्य = 4096 रेणु। यह 4096 बहुत रहस्यमय है। आप को कुछ समझ में आया? नहीं??
भारतीय विद्वान बाइनरी प्रणाली के बारे में जानते थे। अरे वही बाइनरी, 0 और 1 वाली जिसके प्रयोग द्वारा कम्प्यूटर अपनी भाषा गढ़ता है, संख्या 2 का 2 के ही समान गुणक द्वारा ज्यामितीय अभिवर्द्धन 2, 4, 8,16, 32, 64,128, 256, 512, 1024, 2048, 4096 … रुक, रुक! पहुँच तो गये!
आप के कम्प्यूटर की मेमोरी कितनी है? 4 जी बी यानि 4 गीगाबाइट यानि 4096 किलो बाइट। जी हाँ, बाइनरी संसार में किलो माने हजार (1000) नहीं 1024 होता है यानि 210। आप के कनेक्शन की स्पीड भी ऐसे ही कुछ बताई जाती है न – 256 के बी पी एस या 512 आदि आदि? तो हमारे कल्पनाशील पुरनिये भोज ने बाइनरी के प्रयोग द्वारा सूक्ष्म मापन की इकाई बताई। स्पष्ट है कि उनके मस्तिष्क में पूरी श्रेणी रही होगी। ढूँढ़ियेगा, मिलेगी।
बाइनरी ही क्यों?
इसलिये कि यह आम जन के लिये भी सरल है।
क्या बात कर रहे हो?
जी, वे सहज ही समझ सकते हैं। कभी सोचा कि पुराना मापन तंत्र चार, आठ आदि की धुन पर क्यों चलता था? चार आना, आठ आना, सोलह आना? इसका रहस्य विभाजन में छिपा हुआ है।
आप के पास एक डंडा है। उसे बराबर बराबर दो टुकड़ा करना सरल है या तीन? दो सरल है। दो को बराबर बराबर चार करना सरल है, चार को आठ, आठ को सोलह…
लेकिन बाइनरी के मामले में सकलदीपी पंडित गच्चा दे जाते हैं – वे इसका उपयोग ‘अंगुल’ बताने में नहीं करते। मानकीकरण की समस्या से वे अवगत थे। होते भी क्यों नहीं, उन्हें तो दूर नक्षत्रों से सम्बन्धित गणनायें करनी होती थीं। मानकीकरण के मामले में मैं जैसा सोचता हूँ वैसा ही उन्हों ने सोचा J (अपने मुँह मियाँ मिठ्ठू!)।
यदि किसी इकाई को किसी ऐसी माप के आधार पर व्यक्त कर दिया जाय जो कि सनातन हो, सार्वकालिक हो, अपरिवर्तनीय हो, स्थायी हो तो समस्या सदा सदा के लिये सुलझ जायेगी। आर्यभट ने यही काम किया। उन्हों ने धरती के व्यास की माप को योजन में व्यक्त किया और योजन को ‘नृ’ (नर देह यानि पिंड या धनुष या धनु या चाप) की इकाई में व्यक्त कर ‘अंगुल’ का मानकीकरण कर दिया J। प्रलय होने तक तो धरती रहेगी ही और उसकी माप जोख काम भर की स्थिर तो है ही!
अब के वैज्ञानिक और सयाने! वे कहते हैं कि एक मीटर माने किसी क्रिप्टन गैस की किसी तरंगदैर्ध्य का 1650763.73 गुना और एक सेकेंड बराबर किसी सीजियम के किसी छुटभैये का 9192631770 बार कंपन! पल्ले पड़ा कुछ? नहीं न! यही अंतर है पुराने और नये में J
प्रतीत होता है कि आर्यभट के युग में दशमलव पद्धति आज जितनी विकसित नहीं या थी तो वे कौतुक प्रिय थे। अक्षरों के प्रयोग द्वारा संख्यायें बताई जाती थीं। वे बड़े नवोन्मेषी थे। अपने ग्रंथ आर्यभटीय के प्रारम्भ में ही उन्हों ने संख्याओं की अपनी परिपाटी बता दी।
‘क’ से प्रारम्भ कर वर्ग अक्षरों को वर्ग स्थान पर रखें और अवर्ग अक्षरों को अवर्ग स्थान पर। ‘य’ ‘ण’ और ‘म’ का योग होगा। नौ स्वरों को वर्ग और अवर्ग के क्रमश: दो नौ स्थानों पर।”
नहीं समझ में आया? संक्षिप्त अभिव्यक्ति बुद्धि की आत्मा होती है। इसके लिये देवनागरी वर्णमाला का पक्का ज्ञान आवश्यक है जो कि मैं आप को पढ़ाने से रहा! – कृपया हिन्दी ब्लॉगर प्रवीण त्रिवेदी या जी के अवधिया से सम्पर्क करें 🙂 संक्षेप में कहें तो ‘क’से ‘म’ तक 1-25 और ‘य’ से ‘ह’ तक 3 -10। अ से संयुत होने पर इनका मान 30-100 यानि दशगुना हो जायेगा।
संस्कृत टीका सरल है। ‘षि’ = 8000 अर्थात ‘नृषि योजनं’ दर्शाता है कि
1 योजन = 8000 नृ
ञिला = ञि+ला = 1000+50 अर्थात ‘ञिला भूव्यास’ दर्शाता है कि
पृथ्वी का व्यास = 1050 योजन
पृथ्वी का व्यास मनुष्य देह अर्थात ‘नृ’ की इकाई में जानने के लिये जब हम 1050 और 8000 का गुणा करते हैं तो जो पाते हैं वह वास्तव में स्तब्ध कर देता है। उससे आर्यभट की कूट प्रतिभा का पता चलता है।
परिणाम है – 84,00,000 अर्थात चौरासी लाख! ‘लख चौरासी’ योनियों में मनुष्य की आत्मा भटकती है और वे सारी इस धरती में ही हैं। कितना सरल है धरती को जानना और कितना कठिन है लख चौरासी के कूट को समझना!
हम जानते हैं कि पृथ्वी का औसत व्यास = 1274200000 सेंटीमीटर अर्थात
1 नृ = 1274200000/8400000 = आज का 151.69 सेंटीमीटर। इसे 96 से विभाजित करने पर 1 अंगुल की माप आती है 1.58 सेंटीमीटर।
पश्चिमी परम्परा एक हाथ यानि क्यूबिट को लगभग 45 सेंटीमीटर (या 18 इंच यानि 45.72 सेमी.)मानती आई है। इसे यदि 24 से भाग दें तो उनके अनुसार 1 अंगुल आता है 1.905 सेमी.।
इन दोनों में लगभग 20% का अंतर है। यहीं पर भोज का मानकीकरण हमारा सहायक बनता है। मध्यांगुल और कनिष्ठांगुल का अनुपात है 7/6 यानि लगभग 17% का अंतर। पृथ्वी के व्यास मापन में पुराने युग में 3% का अंतर होना सामान्य है। निष्कर्ष यह कि आर्यभट कनिष्ठांगुल का प्रयोग कर रहे थे जब कि भारत का मध्यांगुल पश्चिम के अंगुल के बराबर था।
पंडित वाराहमिहिर जटिल नहीं हैं और थोड़े लगभगी भी क्यों कि जगविख्यात p का मान जहाँ आर्यभट दशमलव के चार स्थानों तक सही 3.1416 बताते हैं (लगभग बताना तक नहीं भूलते!) वहीं वाराहमिहिर उसे दश का वर्गमूल यानि 3.1622 बता कर टरक लेते हैं। सूर्यसिद्धांत में वह पृथ्वी का व्यास बताते हैं:
भूकर्ण यानि पृथ्वी का व्यास 100x8x2 योजन = 1600 योजन। चूँकि बाकी इकाइयाँ यथावत हैं, वाराहमिहिर का अंगुल होता है मात्र 1.04 सेमी. जो कि कनिष्ठांगुल से भी लघुतर है। सातवीं सदी के गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त पृथ्वी की परिधि 5000 योजन बताते हैं। इस माप से पृथ्वी का व्यास लगभग 1591 योजन आता है जो कि वाराहमिहिर के आस पास ही है।
उड़ीसा में छ्ठी सदी के सम्भूयस अभिलेख में एक ब्राह्मण को 200 हस्त की वर्गाकार भूमि दान करने का उल्लेख है। एक शोधपत्र में मानक हस्त के 36 अंगुल यानि 27 इंच होने का उल्लेख है। इस तरह से उसी काल के लगभग समकालीन उड़ीसा में 1 अंगुल 1.905 सेमी. का कहा जा सकता है जो कि पश्चिमी माप के बराबर है। यह बराबरी शंका उत्पन्न करती है कि लेखक ने वर्तमान और भूत को मिला दिया है। अन्यत्र कहीं भी हस्त के 24 के बजाय 36 अंगुल होने और क्यूबिट के 18 इंच के बजाय 27 इंच होने के प्रमाण नहीं मिले। सम्भवत: यह मेरे शोध की सीमा हो।
मनुष्य देह को आधार बना कर पश्चिम में भी मापन पद्धति विकसित हुई। आज कल की FPS यानि फुट, पौंड, सेकेंड पद्धति के बारे में मेरे अनुमान इस तरह से हैं:
1 इंच = मध्यमा अंगुली के नोक से पहले पोर तक की दूरी
1 फीट = कलाई से कोहनी तक की दूरी
½ फीट – ¾ फीट = 6 – 9 इंच = पंजा, उत्थित लिंग, चेहरे की लम्बाई
1½ फीट = 1 क्युबिट = मध्यमा की नोक से कोहनी तक की दूरी …. आदि। आप को मेरे अनुमानों पर शंका हो तो लियोनार्डो डा विंसी के वित्रूवियन पुरुष पर विकिपीडिया के लेख पढ़ लीजिये 😉
आप के लिये गृहकार्य: कोणार्क सूर्य प्रतिमा के विभिन्न अंगों और भागों के अनुपातों के बारे में एक लेख लिखें। यह ध्यान रहे कि प्रतिमा ऊपर के चित्र से लगभग दो सौ वर्ष पहले बनाई गई थी और उस समय भारत का इटली से कोई ‘विशेष सम्बंध’ नहीं था। 🙂
चलते चलते कोणार्क की इकाई के बारे में अब क्या कहें? यही कि अंगुल 1.04 सेमी. से लेकर 1.91 सेमी. तक कुछ भी हो सकता है अर्थात सूर्यमन्दिर के क्षैतिज और ऊर्ध्व योजना को वर्णित करते हुये मुझे स्वविवेक से ही कोई निर्णय लेना होगा।
हाँ, सैकड़ो पृष्ठ पढ़ने के बाद भी एक दो वाक्य भर लिख पाने की वास्तविकता की झलकी आप पा ही चुके होंगे! 🙂 इस चक्कर में स्केल से मैं अपनी अंगुली और हाथ तक माप गया।
(ज्येष्ठ कृष्ण दशमी २०७७ को जोड़ा गया अंश)
मनुस्मृति में यवमध्य
मनु दण्ड विधान में प्रथम, मध्यम एवं उत्तम साहस की श्रेणियाँ बनाते हैं। प्रथम साहस अपराध हेतु २५० पण मुद्रा का दण्ड, मध्यम हेतु ५०० और उत्तम हेतु १००० पण।
पण या कार्षापण को समझाने हेतु मनु उस सूक्ष्मता एवं विस्तार का परिचय देते हैं जिसके कारण उनके शास्त्र को आधुनिक काल में म्लेच्छों ने भी बहुत मान दिया।
द्वार की झिरखिरी से आती सूर्य किरणों में जो रजकण दिखें, वे हैं त्रसरेणु ।
· आठ त्रसरेणु = एक लिक्षा (लीख, जू का अण्डा। लीख शब्द आज भी प्रचलित)
· तीन लिक्षा = एक राजसर्षप (काली सरसो)
· तीन राजसर्षप = एक गौरसर्षप (पीली सरसो)
· छ: गौरसर्षप = एक यवमध्य (जौ का मध्यम आकार का दाना)
· तीन यव = एक कृष्णलक (रत्ती)
· पाँच कृष्णलक = एक माष (राजमाष सम्भवत:, ऊड़द छोटा होगा‌)
· सोलह माष = एक सुवर्ण
· चार सुवर्ण = एक पल
· दस पल = एक धरण
यहाँ तक स्वर्ण परिमाण है। आगे रजत परिमाण हेतु बताते हैं –
· दो कृष्णलक = एक माषक
· सोलह माषक = एक रजत धरण
यही भार जब ताँबे के सिक्के में हो तो वह सिक्का कार्षापण या पण कहलाता है। उस समय ताम्र पणों का प्रचलन अधिक था। दस धरण चाँदी के एक शतमान होते थे तथा चार सुवर्ण का एक स्वर्ण निष्क होता था।

यवमध्य की माप में बड़ा रहस्य छिपा हुआ है। जानने के लिये इस विषय पर मेरा लेख पढ़ सकते हैं।
(…….जारी)
✍🏻सनातन कालयात्री अप्रतिरथ ऐन्द्र श्री गिरिजेश राव का यात्रावृत गतिमान है….

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