कोरोना काल में मानवता एक पल में ही रसातल में पहुंच गई

शमीम शर्मा

चीन के धर्मगुरु कन्फ्यूशियस ने अपने शिष्यों से पूछा कि ऐसा कौन-सा काम है जो एक क्षण में किया जा सकता है। शिष्यों ने खूब सोचा कि एक पल में क्या हो सकता है पर सभी निरुत्तर रहे। आखिर धर्मगुरु ने ही जवाब दिया कि एक पल में गिरा जा सकता है। कोरोना काल में कन्फ्यूशियस की यह उक्ति सत्य सिद्ध हो गई है। मानवता इतनी गर्त में कभी नहीं गई थी। कोरोना काल में एक पल में ही रसातल में पहुंच गई है।

ईमानदारी की छाती दरक रही है। चारों तरफ हाड़-तोड़ हलचल मची हुई है और लोग धड़ल्ले से कालाबाजारी में जुट गये हैं। मुनाफाखोरों ने गोदामों पर ताले जड़ दिये हैं और मनमाने भावों पर चीजें बेचने में जुटे हैं। चारों ओर ब्लैक आउट की स्थिति है और लोगों को ब्लैक की सूझ रही है। इन्हें देखकर लगता है कि मेरे देश में अचानक कंस की लाखों प्रतिमूर्तियां निर्मित हो गयी हैं। आदमियत पर इतनी ग्लानि कभी नहीं आई थी जो चिता की लकड़ियों तक ने मोहताज बना दिया है। लकड़ियों का अभाव इस बात का सूचक है कि तख्त-औ-ताज की शामत आने वाली है।

कोई शक नहीं कि व्यवस्था हर युग में बहरी रही है और अवाम की आवाज उसे नहीं सुनाई देती। पर कमाल है चीखें और आहें भी नहीं सुन रही हैं। यह बदनसीबी की पराकाष्ठा है कि नदियों में तैरती पार्थिव देहों को सफेद कफन भी नहीं मिल सका, तेरहवीं तो गई भाड़ में। क्या सफेद वस्त्रों के थान भी सफेदपोशों ने कालाबाजारी के लिये जमा कर लिये हैं? आज हर जन बाण बिंधे पक्षी-सा घायल प्रतीत हो रहा है। झाड़-झंखाड़ में फंसी लाचार चिड़िया जैसे प्राण हो गये हैं।

मृत्यु का देवता हर पल चाबुक चला रहा है। यमराज का घंटा टनाटन बज रहा है। समूचा सिस्टम कठपुतली बना बैठा है। घर-घर में सुखों के घड़े में छिद्र हो गया है। ‘अच्छे दिन’ की बाट जोहने वाली बड़ी आबादी बुरे दिनों के कगार पर है। ‘सुख का दुख’ कविता में भवानीप्रसाद मिश्र ने लिखा है :-

बड़े-बड़े सुखों की इच्छा
इसीलिये मैंने जाने कब से छोड़ दी है
कभी एक गगरी उन्हें जमा करने के लिये लाया था।
अब मैंने वो फोड़ दी है।

एक बर की बात है अक रामप्यारी बहनजी नैं क्लास मैं सवाल पूच्छया—न्यूं बताओ माणस अर जानवरां मैं के भेद है। नत्थू तैड़ दे सी बोल्या—जी गधे का बच्चा बड़ा होण पै गधा बनता है अर उल्लू का उल्लू पर माणसां के टाब्बर गधे भी बन सकै हैं अर उल्लू भी।

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