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स्वर्णिम इतिहास

वैदिक काल में तोप और बंदूक के अस्तित्व के प्रमाण

वैदिक काल में तोप व बन्दूक
लेखक- वैदिक गवेषक आचार्य शिवपूजनसिंहजी कुशवाहा ‘पथिक’, विद्यावाचस्पति, साहित्यालंकार, सिद्धान्तवाचस्पति
प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ
वैदिक काल में आर्यों की सभ्यता अत्यन्त उन्नति के शिखर पर थी। वेदों में सम्पूर्ण विज्ञानों का मूल प्राप्त होता है। वैदिक काल में ‘तोप’ व ‘बन्दूक’ का प्रचार था कि नहीं? देखिये इस विषय में महर्षि दयानन्द जी महाराज स्पष्ट रूप में लिखते हैं कि-
प्रश्न- जो आग्नेयास्त्र आदि विद्याएं लिखी हैं वे सत्य हैं वा नहीं? और तोप तथा बन्दूक तो उस समय में थी या नहीं?
उत्तर- यह बात सही है, ये शस्त्र भी थे क्योंकि पदार्थ विद्या से इन सब बातों का सम्भव है।
पुनः- ‘तोप’ और ‘बन्दूक’ के नाम अन्य देशभाषा के हैं। संस्कृत और आर्यावर्त्तीय भाषा के नहीं, किन्तु जिसको विदेशीजन तोप कहते हैं संस्कृत और भाषा में उसका नाम ‘शतघ्नी’ और जिसको बन्दूक कहते हैं उसको संस्कृत और आर्यभाषा में ‘भुशुण्डी’ कहते हैं। इसकी पुष्टि स्वयं महर्षि दयानन्द जी महाराज वेद मन्त्र के द्वारा स्वयं इस प्रकार करते हैं। यथा-
स्थिरा व: सन्त्वायुधा पराणुदे वीलू उत प्रतिष्कभे।
युष्माकमस्तु तविषी पनीयसी मा मर्त्यस्य मायिन:।। (ऋग्वेद मण्डल १, सूक्त ३९, मन्त्र २)
इस मन्त्र की व्याख्या महर्षि दयानन्द जी महाराज इस प्रकार से करते हैं। देखिये-
(परमेश्वरो हि सर्वजीवेभ्य आशीर्ददाति) ईश्वर सब जीवों को आशीर्वाद देता है कि हे जीवो! “व:” (युष्माकम्) तुम्हारे लिए आयुध अर्थात् शतघ्नी (तोप), भुशुण्डी (बन्दूक), धनुष, बाण, करवाल (तलवार), शक्ति (बरछी) आदि शस्त्र स्थिर और “वीलू” दृढ़ हों। किस प्रयोजन के लिए? “पराणुदे” तुम्हारे शत्रुओं के पराजय के लिए जिस से तुम्हारे कोई दुष्ट शत्रु लोग कभी दुःख न दे सकें। “उत, प्रतिष्कभे” शत्रुओं के वेग को थामने के लिए। “युष्माकमस्तु, तविषी पनीयसी” तुम्हारी बलरूप उत्तम सेना सब संसार में प्रशंसित हो जिस से तुम से लड़ने को शत्रु का कोई संकल्प भी न हो परन्तु “मा मर्त्यस्य मायिन:” जो अन्यायकारी मनुष्य है उसको हम आशीर्वाद नहीं देते। दुष्ट, पापी, ईश्वरभक्तिरहित मनुष्य का बल और राज्यैश्वर्यादि कभी मत बढ़े। उसका पराजय ही सदा हो। हे बन्धुवर्गो! आओ अपने सब मिल के सर्व दुःखों का विनाश और विजय के लिए ईश्वर को प्रसन्न करें, जो अपने को वह ईश्वर आशीर्वाद देवे। जिस से अपने शत्रु कभी न बढ़ें।
जिह्वा ज्या भवति कुल्मलं वाङ्नाडीका दन्तास्तप साभिदग्धा:।
तेभिर्ब्रह्म विध्यति देवपीयून् हृद्बलैर्धनुर्भिर्देवजूतै:।। (अथर्ववेद ५/१८/८)
इस मन्त्र पर विद्या भास्कर पं० प्रेमचन्द्र जी काव्यतीर्थ लिखते हैं-
देवों का विरोध करने वालों के लिए ज्ञानी विद्वान् ब्राह्मणों की जिह्वा धनुष की डोरी का काम करती है। वाणी धनुष की कोटि का, दाँत बन्दूक के छर्रे या गोली का और हृदय बल धनुष का काम करता है।
इस मन्त्र में धनुष की डोरी, धनुष की कोटि, बन्दूक के छर्रे या गोली आदि का नाम आया है। यहाँ हमें ‘नालीका’ शब्द पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
महाभारत और शुक्र नीति आदि में बन्दूक और तोप का वर्णन ‘नालीक’ नाम से ही किया गया है। बन्दूक का नाम ‘लघुनालीक’ और तोप का नाम ‘बृहन्नालीक’ रूप में आया है।
नालीक शब्द पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता इसलिए है कि शायद विकासवाद और पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित मनुष्य यह समझे हुए हों कि वैदिक काल में तोप और बन्दूक आदि का आविष्कार भारत के प्राचीन आर्य नहीं जानते थे। परन्तु वेद के ऐसे-ऐसे स्थलों को देखकर उन्हें भी अपना यह विचार कि ‘प्राचीन आर्य असभ्य थे’, सर्वदा छोड़ देना चाहिए और इस बात पर विश्वास कर लेना चाहिए कि-
बन्दूक आदि का आविष्कार इस पाश्चात्य सभ्यता के युग में ही नहीं हुआ, अपितु वैदिक काल में भी इसका पूर्ण ज्ञान था।
यदि नो गां हंसी यद्यश्वं यदि पुरुषम्।
तं त्वा सीसेन विध्यामो यथानोऽसो अवीरहा।। (अथर्ववेद काण्ड १, सूक्त १६, मन्त्र ४)
इस मन्त्र की व्याख्या करते हुए वेदाचार्य पं० ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु लिखते हैं-
यदि कोई दुष्ट हमारी गौओं को मारता है, हमारे पुरूषों की, हमारे घोड़ों की हिंसा करता है, उसे हम सीसे की गोली से बींधते हैं, जिससे वह हमारे वीरों को न मार सके।
इसमें स्पष्ट ही सीसे की गोली चलाने का वर्णन मौजूद है। इसका प्रयोग प्राचीन काल में होता था। ‘नालीक अस्त्र’ द्वारा गोली और गोले का प्रयोग होता था। ये दो प्रकार के थे ‘लघुनालीक’ बन्दूक, पिस्तौल आदि और ‘बृहन्नालीक’ बड़ी नाली वाले तोप आदि। यह वर्णन शुक्रनीति के अन्दर ‘चतुर्थाध्याय’ में वर्णित है। वहां पर आग्नेयचूर्ण अर्थात् बारूद का भी वर्णन है।
ऋग्वेद का एक मन्त्र है-
सुदेवो असि वरूण यस्य ते सप्त सिन्धवः।
अनुक्षरन्ति काकुदं सूर्म्ये सुषिरामिव।। (ऋग्वेद मण्डल ८, सूक्त ६९, मन्त्र १२)
चतुर्वेद भाष्यकार पं० जयदेव शर्मा ‘विद्यालंकार’ मीमांसातीर्थ इस मन्त्र की व्याख्या करते हुए लिखते हैं-
हे वरूण! तू सुदेव है। तेरे छिद्र वाली सूर्मी के समान बने तालु की तरफ सात प्राण गति कर रहे हैं।
कपाल पर दृष्टि डालिए। मानो सात प्राणों के सात द्वार, सात छिद्रों वाली तोप के समान जंचते हैं, कैसी उत्तम उपमा है? नाक की छींक आना भी दो नाली बन्दूक के समान समझा जाता है। क्या यही मानस प्रवृत्ति प्राचीन आर्षकाल में असम्भव है? और देखिये-
प्रेद्धो अग्ने दीदिहि पुरो नोऽजस्त्रया।
सूर्म्या यविष्ठत्वां शश्वन्त उपयन्ति वाजा:।। (ऋग्वेद मण्डल ७, सूक्त १, मन्त्र ३)
पं० जयदेव शर्मा ‘विद्यालंकार’ मीमांसातीर्थ कृत भाष्य-
हे (अग्ने) अग्रणीनेता:! तू हमारे आगे न नष्ट होने वाली सुदृढ़ सूर्मी के साथ प्रज्वलित होकर आगे प्रकाशित हो। तुझे नित्य संग्राम प्राप्त हो।
इन वर्णनों से भी ‘सूर्मी’ युद्धोपयोगी महास्त्र प्रतीत होती है। कालान्तर में यह यन्त्र अवश्य अप्रसिद्ध हो गया ऐसा प्रतीत होता है। देखिये मनु जी ने लिखा है कि-
सूर्मीं ज्वलन्तीं स्वाश्लिष्येन्।
अपराधी जलती सूर्मी को पकड़े। इससे सूर्मी लाल तपे लोहे की लाल जंजीर होती है। कदाचित् दण्ड विधानकार के अभिप्राय से वहां भी सुलगती तोप को जो लिपेटने का आदेश है।
जब भी मनुष्य तोप के मुंह को पकड़ेगा कि गोला फटकर उस का नाश करे। तोप से उड़ा देना आदि दण्डलोक में बराबर प्रसिद्ध रहा है। परन्तु पिछले अक्षर पढ़े पण्डितों को वह तोप या सूर्मी का वास्तविक स्वरूप भूल गया प्रतीत होता है। इसलिए कईयों ने केवल इसको ‘लोह-दण्ड’ ही लिख दिया है।
‘नैषधीय चरित’ में आप शतघ्नी का भी अभिप्राय: टीकाकार नारायण ने लोहदण्ड ही कर दिया है, परन्तु नीतिप्रकाशिकाकार ने ‘शतघ्नी’ का वर्णन ‘अष्टचक्रा, भीमाकार शक्ति’ के रूप में किया है जो ‘अयोंगुड’ अर्थात् लोहे के गोलों को शत्रुसेना पर फेंकती थी।
एषा वै सूर्मी कर्णकावती। एतयाहस्म वै दैवा असुराणांशत तर्हा स्तृहन्ति। यदेतया समिधमादधाति। वज्रमेवैतच्छतघ्नींयजमानो भ्रातृव्याय प्रहरति स्तृत्या अच्छम्वट् कारम्।। [कृष्ण यजुर्वेद (तैत्तिरीय संहिता) १/५/७]
श्री सायणाचार्य भाष्यम्-
ज्वलन्ती लोहमयी स्थूणा सूर्मी। सा च कर्णकावती छिद्रवती। अन्तरपि ज्वलन्तीत्यर्थ:। तत्समानेयमृक्। एकेन प्रहारेण शतसंख्याकान्मारयन्त: शूरा: शततर्हा:। असुराणां मध्ये तादृशान् (सूर्म्मीयोद्धेन) एतयर्चा देवा हिंसन्ति। अनया समिदाधानेन शतघ्नीमेनामृचं वज्रं कृत्वा वैरिणं हन्तुं प्रहरति।।
अर्थात्- यह लोह का बना हुआ लम्बा यन्त्र है। उसके बीच में छेद होता है। छेद के बीच में आग रहती है। जो बाहर निकलती है वह भी जलती रहती है। असुर लोग जब सूर्मी के द्वारा युद्ध करते थे तो वह एक ही बार (फायर करने) में सैकड़ों लोग आहत और घायल हो जाते थे। देवता लोग भी उनको मारने के लिए शतघ्नी वज्र का प्रयोग करते थे।
इस पर चतुर्वेद भाष्यकार पं० जयदेव शर्मा ‘विद्यालंकार’ मीमांसातीर्थ की सम्मति है कि-
इससे सूर्मी का कुछ स्वरूप मोटी-मोटी लम्बी का साधन प्रकट होता है। संहिता में कहे ‘शतघ्नी’ और असुरों को हनन करने का साधन होने से हम इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि वैदिक साहित्य में आयी ‘सूर्मी’ अवश्य ही ‘तोप’ है।
श्री पं० ज्योति प्रसाद मिश्र ‘निर्मल’ इस मन्त्र के सायण व्याख्या पर लिखते हैं-
यहां विचार करने की बात है कि लोहे का बना लम्बा यन्त्र जिसके बीच में सूराख हों और जिसमें से आग निकले तथा जिससे एक ही बार में सैकड़ों शत्रु काल-कवलित हो जायें, ऐसा यन्त्र सिवाय बन्दूक के और क्या हो सकता है?
अतः आकार-प्रकार के वर्णन से यह सिद्ध होता है कि आधुनिक बन्दूक ‘सूर्मी’ ‘नालीका’ का ही नया रूप है इसलिए हम आधुनिक बन्दूक को कोई नई वस्तु नहीं कह सकते।
महाकाव्यों के प्रमाण
वाल्मीकीय रामायण में ‘शतघ्नी’ (तोप) और ‘भुशुण्डी’ (बन्दूक) का वर्णन आया है, यथा-
स तु नालीकनाराचैर्गदाभिर्मुसलैरपि। (वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड ७३/३४)
सर्वयन्त्रायुधवती ………। शतघ्नीशतसंकुलाम्।। (वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड ५/१०-११)
अयोध्या नगरी सब यन्त्रायुद्धों से अथवा यन्त्रों और आयुधों से युक्त थी तथा सैकड़ों तोपों से युक्त थी।
तत्रेषूपलयन्त्राणि बलवन्ति महान्ति च। शतघ्न्यो रक्षसां गणै: … यन्त्रैरूपेता … यन्त्रैस्तैरवकीर्यन्ते परिखासु समन्तत:।। (वाल्मीकीय रामायण, युद्धकाण्ड ३/१२,१३,१६,१७)
यहाँ ‘इषु-उपल’ (गोलों) को फेंकने वाले यन्त्रों तथा तोपों का वर्णन है।
शतशश्च शतघ्नीभिरायसैरपि मुद्गरै:। (वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड ८६/२२)
रामायण के उत्तरकाण्ड में रावण दिग्विजय के स्थान पर ‘नालीकैस्ताडयामास’ आदि का उल्लेख है। रामायण के पश्चात् महाभारत में भी इन अस्त्रों का वर्णन है, यथा-
एवं स पुरूषव्याघ्र शाल्वराजो महारिपु:।
युद्धमानो मया संख्ये वियदभ्यगमत्पुनः।।१।।
तत: शतघ्नीश्च महागदाश्च, दीप्तांश्च शूलान् मुसलानसींश्च।
चिक्षेप रोषान्मयि मन्दबुद्धि: शाल्वो महाराज जयाभिकाङ्क्षी।।२।।
तानाशुगैरापततोऽहमाशु, निवार्य हन्तुं खगमान् ख एव।
द्विधा त्रिधा चाच्छिदमाशु, मुक्तैस्ततोऽन्तरिक्षे निनदो बभूव।।३।। (महाभारत, वनपर्व, अध्याय २१)
अर्जुन ने श्रीकृष्ण जी से कहा-
हे महाराज! वह शाल्वराज, मेरे साथ युद्ध करके फिर आकाश को ही उड़ गया और उसने आकाश में से ही शतघ्नी (तोप-गोला), महागदा, प्रकाशमान त्रिशूल, मसूल और खड्ग क्रोध में आकर मेरे ऊपर जय की आकांक्षा से फेंके। तब प्रतिकार में खड्ग नामक अस्त्रों से मैंने भी शीघ्रता से शीघ्रगामी शस्त्रों से उनको आकाश में ही निवारण कर दो तीन टुकड़े कर दिए। तब उनके टूटने से आकाश में भी एक महान् शब्द गुंजायमान हो गया।
नाराच नालीक वराह कर्णान्।
क्षुरांस्तथा साञ्जलिकार्ध चन्द्रान्।। (महाभारत, कर्णपर्व, अध्याय ८९)
… तीक्ष्णाङ्कुश शतघ्नीभिर्यन्त्रजालैश्चशोभितम्। (महाभारत, आदिपर्व, अध्याय २०६, श्लोक ३४)
पट्टिशाश्च भुशुण्ड्यश्च प्रपतन्त्यनिशं मयि। (महाभारत, वनपर्व, अध्याय २०, श्लोक ३४)
चतुश्चक्रा द्विचक्राश्च शतघ्न्यो बहुला गदा: …। (महाभारत, द्रोणपर्व, अध्याय १९९)
……… कडङ्गरैर्भुशुण्डीभि: ………। (महाभारत, द्रोणपर्व, अध्याय २५, श्लोई ५८)
‘शतघ्नी’ के विषय में Rama and Homer, pp 55 में लिखा है-
Which Colonel Yule believed to have been a prehistoric Rocket or Torpedo अर्थात् बिजली की मछली से मिलता जुलता अस्त्र।
प्राच्य विद्वानों के मत
शास्त्रार्थ महारथी, विद्याभास्कर पं० बिहारीलाल जी शास्त्री काव्यतीर्थ लिखते हैं-
शतघ्नी और भुशुण्डी संस्कृत ग्रन्थों के टीकाकारों ने तो एक प्रकार के लोहे के कीलों से जड़े हुए लकड़ी के तख्त जैसे अस्त्र ही बताए हैं जिन्हें बलवान योद्धा हाथों से ही शत्रुओं पर फैंकते थे। परन्तु वाल्मीकीय रामायण के युद्धकाण्ड, सर्ग ३, श्लोक १३ से पता चलता है कि- शतघ्नी गोला फेंकने वाली तोपें ही हो सकती हैं।
ऋग्वेद में भी ‘सीसेन विध्याम:’ पद सीसे की गोली या गोलों से वेधने का ही द्योतक मालूम पड़ता है। वाल्मीकीय रामायण में भी आया है, देखिये श्लोक इस प्रकार है-
द्वारेषु संस्कृता भीमा: कालायसमया: शिता:।
शतशो रचिता वीरै: शतश्यो रक्षसांगणै:।।
यहां लोहे की भयंकर तेज सैकड़ों तोपों लडून के किले पर चढ़ी रहने का वर्णन श्री हनुमान जी ने भगवान् राम से किया है।
महामहोपाध्याय पं० आर्यमुनि जी लिखते हैं-
युद्ध के अस्त्र शस्त्रों का ऋग्वेद में पूर्णतया वर्णन मौजूद है, अधिक क्या तलवार, धनुष-निषंग तथा नानाविध विद्युत के अस्त्रों का वर्णन निम्नलिखित मन्त्र में स्पष्ट दर्शाया गया है-
वाशीमन्त ऋष्टिमन्तो मनीषिण: सुधन्वान इषुमन्तो निषङ्गिण:।
स्वश्वा: स्थ सुरथा: पृश्निमातर: स्वायुधा मरूतो याथना शुभम्।। (ऋग्वेद ५/५७/२)
इस मन्त्र में ही नहीं किन्तु सूक्त ५७ में विद्युत सम्बन्धी अनेक अस्त्र शस्त्रों का विस्तृत वर्णन विद्यमान है, उक्त मन्त्र में ‘निषङ्ग’ के अर्थ तोप तथा बन्दूक के हैं, जैसा कि-
निसज्यन्तेगोलकादिकं अत्र इति निषङ्ग।
जो गोली तथा गोलों के भरने या डालने का स्थान हो उसका नाम यहां ‘निषङ्ग’ है। जो लोग निषङ्ग के अर्थ ‘बाण’ मात्र के करते हैं, यह उनकी भूल है क्योंकि इसी मन्त्र में ‘इषु’ पद पड़ा है जिसका अर्थ ‘बाण’ है। यदि (निषङ्ग) शब्द का प्रयोग भी ‘इषु’ के अर्थों में किया जाये, तो अर्थ सर्वथा पुनरूक्त हो जाता है। अतएव ‘निषङ्ग’ शब्द के अर्थ यहां बन्दूक तथा तोप ही हैं।
डॉ० बालकृष्ण जी, एम०ए०, पी०एच०डी०, एफ०आर०एस०एस०, एफ०आर०ई०एस० लिखते हैं-
अब इस बात से कौन इन्कार कर सकता है कि प्राचीन भारत में आर्यों ने धर्म-दर्शन, विज्ञान, ज्योतिष, कला-कौशल, शिल्प-व्यापार, व्यवसाय में ईसा के जन्म से पूर्व ही कमाल हासिल कर लिया था। उनके विमान गगन में स्वच्छन्द रूप में उड़ा करते थे। उनकी तोपों, बन्दूकों, शतघ्नियों, भुशुण्डियों, विद्युत्अस्त्र, मोहनास्त्र, प्रज्ञानास्त्र, अन्तर्धानास्त्र, वारूणोयास्त्र, वायवास्त्र, आग्नेयास्त्र, पर्जन्यास्त्र, मौनास्त्र, पिनाकास्त्र, बिलापगास्त्र, तामसास्त्र, मातास्त्र, सौधास्त्र, वज्रास्त्र, ब्रह्मास्त्र, क्रौञ्चास्त्र और इसी प्रकार के सैकड़ों शास्त्रों के आविष्कारों के कारण सर्व जातियों पर आर्यों का चक्रवर्ती राज्य था।
प्रतीच्चों की स्पष्ट घोषणा
तोपों और मशीनगनों के सम्बन्ध में प्रख्यात पाश्चात्य पण्डित स्वीकार करते हैं कि ब्राह्मणों के पास इस प्रकार की मशीनें थीं।
प्रोफेसर विल्सन की राय है कि-
आग्नेयास्त्रों के प्रयोगों में प्राचीन भारतीय अत्यन्त पुरातन काल से ही होशियार थे।
प्रसिद्ध इतिहासकार एल्फिस्टन बहुत काल की बीती बातों का स्मरण दिलाते हैं कि-
विजयादशमी के दिन आग्नेयास्त्रों के आलोक में लंका बर्बाद हुई।
शतघ्नी का अर्थ होता है, एक बार में सौ मनुष्यों या उससे अधिक को नष्ट करने वाली। संस्कृत कोषों के अनुसार वह जो मशीन लोहे के टुकड़ों आदि के गोले के रूप में फैंककर बहुसंख्या में प्राणोपहरण करे। मिस्टर हार्लेड साहब भी खुले शब्दों में इसका अनुमोदन करते हैं।
पाद टिप्पणियां-
१. ‘सत्यार्थप्रकाश’ एकादश समुल्लास। -महर्षि दयानन्द कृत
२. ‘सत्यार्थप्रकाश’ एकादश समुल्लास। -महर्षि दयानन्द कृत
३. ‘आर्याभिविनय:’ प्रार्थना मन्त्र २२। -महर्षि दयानन्द कृत
४. ‘वेद और विज्ञानवाद’ प्रथम संस्करण, पृष्ठ १५।
५. मासिक पत्र ‘दयानन्द सन्देश’ देहली का ‘असिधारा अंक माला’ ३ जनवरी सन् १९४१ ई० मुक्ता १, प्रकाशित वेद और शस्त्रास्त्र प्रयोग शीर्षक लेख पृष्ठ २५-२६।
६. मासिक पत्र ‘सार्वदेशिक’ देहली फरवरी सन् १९३० ई०, पृष्ठ २१, कॉलम १।
७. मासिक पत्र ‘सार्वदेशिक’ फरवरी सन् १९३० ई०।
८. ‘सार्वदेशिक’ मासिक पत्र फरवरी १९३०।
९. मासिक पत्रिका ‘प्रभा’ कानपुर, वर्ष ५, खण्ड २, अक्टूबर १ सन् १९२४ ई०, संख्या ४, पृष्ठ २५१, कॉलम १ ‘क्या आर्यों के पास बन्दूकें थी?’ शीर्षक लेख।
१०. ‘सुमन संग्रह’ प्रथम संस्करण, पृष्ठ ४८ तथा मासिक पत्र ‘दयानन्द सन्देश’ का असिधारा अंक, पृष्ठ १२७।
११. ‘वैदिक काल का इतिहास’ प्रथम संस्करण, पृष्ठ ११९-१२०।
१२. ‘ईश्वरीय ज्ञान वेद’ प्रथमावृत्ति, पृष्ठ ४६।
१३. Elphinstons history of India PP. 178
१४. Code of gouto laws introduction PP. 52

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