साईं बाबा यानी नए जमाने के नए भगवान

नए जमाने के भगवान
हिंदुओं को हर कुछ साल मे नए भगवान कि जरूरत पड़ती है। चमत्कार के पीछे पागल होकर भागते हैं। निर्मल बाबा, राधे माँ, राम रहीम, रामपाल और न जाने कितने चमत्कारिक नौटंकीबाज इस तरह हमे मूर्ख बनाते हैं। गुजरात मे इसाइयों ने उंटेश्वरी माता का मन्दिर बना दिया और उसमे अविवाहित मैरी (Virgin Mary) की मूर्ति लगवा दी। हमारी इसी भेड़चाल से हम बर्बाद होते आए हैं और होते रहेंगे। धर्म और अध्यात्म शिक्षण सिनेमा, टेलीविज़न और चमत्कार के अधीन हो गया।

आज से 40 साल पहले कोई साईं का नाम तक न जानता था तब एक नया चलन सामने आया था कुछ लोग जो की साईं की मार्केटिंग कागज़ के पर्चे छपवा कर करते थे …उन पर लिखा होता था की अगर आप इस पर्चे को पढने के बाद छपवा कर लोगों में बांटेंगे तो दस दिन के अन्दर आपको लाखों रूपये का धन अचानक मिलेगा ।
….फलाने ने झूठ माना तो उसका सारा कारोबार ..खत्म हो गया और भिखारी हो गया

1980 – 1990 के दशक यह बहुत चला था उसके बाद टी वी पर आने लगा, सीरियल बनाए जाने लगे ..फिल्में बनने लगी …..अमर अकबर अन्थोनी में सबसे पहले साईं के नाम अक गाना आया जिसमे साईं की एक झूठी कहानी बना कर एक बुढिया की आँखों कि रौशनी ठीक साईं के सामने ठीक हो जाती है इसके बाद साईं की मार्केटिंग करने वालो ने फिल्म बना ली जिसका परिणाम कई सालो बाद यह हुआ कि साईं मंदिरों में बैठ चूका था

जब चैनल आये तब 2003 के बाद साईं के एक सीरियल आया जिसके बाद साईं की प्रसिद्धि बढ़ गयी, इस सीरियल में साईं की कई झूठी कहानियो का प्रचार करके साईं को प्रसिद्ध किया गया था। इस प्रचार का प्रभाव यह हुआ कि शिरडी का साई मन्दिर आय कि दृष्टि से भारत के मुख्य 10 मंदिरों मे गिना जाने लगा।

1975 में बॉलीवुड की एक फ़िल्म रिलीज़ हुई थी, नाम था जय संतोषी माँ।

15 लाख की लागत से बनी इस फ़िल्म नें बॉक्स ऑफिस पर उस वक्त के भारत मे पाँच से छः करोड़ रुपए कमाए थे। अपने समय में ये शोले के बाद सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म थी। इस फ़िल्म को देखने के लिए लोग सिनेमा हॉल तक बैलगाड़ियों में मीलों की यात्रा करते थे।

दर्शक हॉल की सिनेमा स्क्रीन पर फूल औऱ सिक्के फेंकते थे। कई सारे थिएटर, जहां ये फ़िल्म लगी थी, मन्दिर कहलाये जाने लगे थे। जैसे शारदा टॉकीज को शारदा मन्दिर कहा जाने लगा था औऱ बन्द होने तक इस सिनेमा हॉल का नाम यही रहा। फ़िल्म देखने आने वाले लोग थिएटर के बाहर जूते चप्पल उतारते थे।
दिलचस्प बात ये है कि सन 1975 में जब ये फ़िल्म रिलीज़ हुई थी तो उससे पहले तक तमाम लोगों ने इन देवी के बारे में सुना तक नहीं था। सन्तोषी माता का जिक्र पुराणों में कहीं भी नहीं है। सन्तोषी माता दरअसल भारत के कुछ गांवों में पूजी जाने वाली ग्राम देवी थीं जिनकी मान्यता रोगों के उपचार के लिए थी।
सम्भवतः सन 1960 में भीलवाड़ा में सन्तोषी माता का पहला मन्दिर बना था, जो कुछ हद तक प्रचलित था। इसके अलावा उनके कुछ छोटे छोटे मन्दिर रहे होंगे, पर वो आबादी के बहुत ही छोटे हिस्से तक सीमित थे।

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