*कोरोना अवसाद: स्वयं से संघर्ष*

राजेश बैरागी

इतना अवसाद जीवन में कभी न था। घरेलू कष्टों से लेकर कार्यस्थल पर वरिष्ठ अधिकारी के सौतेले व्यवहार तक से होने वाला अवसाद बेहद कम था। जीवन इस प्रकार ठहर जाएगा और जीवन घरों में कैद हो जाएगा,ऐसी कल्पना भी कभी नहीं की थी।कोरोना के बीते चौदह महीनों में अपने ही घर से चिढ़न सी हो गई है। अड़ोस-पड़ोस,नाते रिश्तेदारों से कोई उमंग भरी सूचना नहीं। दहशत इतनी कि घर की चारदीवारी से बाहर जाने की शक्ति न जाने किसने छीन ली है।जब भी कोई बाहर से आता है, किसी शोक संदेश का अंदेशा भयभीत करने लगता है।
एक लंबे समय तक आनंद का जीवन हमें अंदर से चुपचाप शक्तिहीन बना देता है। जंगल में रहने वाले को सन्नाटा अजीब नहीं लगता परंतु घर में रहने वाला सन्नाटे से घबरा जाता है। अवसाद हमारे भीतर का सन्नाटा ही तो है। इसमें वार करने वाले भी हम ही होते हैं और वार खाने वाले भी। स्वयं से संघर्ष बहुत भारी पड़ता है।हम में से अनेक लोग इस स्वयं से संघर्ष को सहन नहीं कर पाते। नतीजतन कायरों की भांति जीवन और संघर्ष से भाग खड़े होते हैं। क्या यह सही है? मैं कुत्ते, बिल्ली और दूसरे बहुत से जीवों को देखता हूं जो नितांत अकेले हैं।न उनके खाने का ठौर है और न रहने का ठिकाना। और तो और उनके जीने का कोई उद्देश्य भी दिखाई नहीं पड़ता। परंतु उन्हें कोई अवसाद छू भी नहीं पाता। मनुष्य से उनकी तुलना नहीं की जा सकती है परंतु उनसे मनुष्य कुछ सीख अवश्य सकता है। विशेषतः जबकि जीवन का एक बहुत छोटा सा समय हमें अवसाद में ढकेले दे रहा हो। मुझे सूर्य पर पूरा ऐतबार है कि संध्या के आगमन के सम्मान में आज छिप जाने के बावजूद कल सुबह नियत समय वह फिर उगेगा और उसकी आभा आज से कहीं ज्यादा होगी।

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