जैसा जिव्हा जप करे वैसे मन में भाव

बिखरे मोती

 

जैसा जिह्वा जप करे,
वैसे मन में भाव।
दोनों में हो एकता,
पार लगेगी नाव ॥1463॥

व्याख्या:- प्रायःदेखा गया है कि कतिपय लोग अपनी रसना से किसी वेद – मंत्र अथवा श्लोक का जप तो करते हैं किंतु चित्त में आर्जवता(सरलता) नहीं कुटिलता होती है अर्थात् छल, कपट, ईर्ष्या, द्वेष,प्रतिशोध और जघन्य अपराधों की जहरीली नागफनी के कांटे भी पाले रखते हैं। यह जप ,नहीं ढोंग है,पाखण्ड है, आत्मप्रवचना है।इसलिए ऐसे लोगों को समाज ढोंगी, पाखंडी और फण्डी कहता हैं क्योंकि उनके आदर्श और यथार्थ में जमीन – आसमान का अंतर होता है।इस प्रकार के लोगों के बारे में अक्सर लोग उनकी पीठ पीछे कहते हैं – “भाई ज़रा बचके रहना, इसके मुँह में राम बगल में छुरी है।” इससे सिद्ध होता है कि आचरण की पवित्रता सर्वोपरि है।

ध्यान रहे,चित्त का दर्पण है। जैसा चित्त होता है वैसा ही व्यक्ति की वाणी और व्यवहार होता है। चारों वेदों की ऋचाएँ अजस्र ऊर्जा के कण है । इन्हें केवल जपना ही नहीं अपितु आचरण में उतार कर तो देखिए, जीवन में अद्भुत परिवर्तन होगा, दुर्भावों का ह्रास और नूतन सद्भावों का आविर्भाव होगा। इसलिए जप और मन के भावों में तादात्म्य होना नितांत आवश्यक है, तभी मनुष्य – जीवन की नैया पार लगेगी अर्थात् मानव जीवन सार्थक होगा, आपका जप फलदायक होगा।

सत् चिंतन सत्कर्म की,
घड़ी बड़ी ही पुनीत।
सत् चर्चा में मन लगै,
पावै प्रभु की प्रीत॥1464॥

व्याख्या:- जिस प्रकार शारीरिक स्वास्थ्य के लिए रज, तम ,सत्व और कफ,पित्त, वायु तीनों में समन्वय अथवा संतुलन आवश्यक है, ठीक इसी प्रकार भक्त की भक्ति परवान चढ़े,इसके लिए आवश्यक है कि भक्त का मन सत् चर्या, सत् कर्म (पुण्य) और सत् चिंतन में आठों याम रत रहे।ऐसे क्षण बड़े पवित्र होते हैं, जो परम सौभाग्यशालियों को मिलते हैं, जीवन में बड़ी मुश्किल आते हैं।जो भक्त ऐसे अवस्था को प्राप्त होते हैं,वह प्रभु-कृपा के प्रिय पात्र होते हैं।प्रभु – कृपा का कवच सर्वदा उनकी रक्षा करता है।
क्रमशः

 

प्रोफेसर विजेंद्र सिंह आर्य

संरक्षक :  उगता भारत

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