भारत में भूमि व राष्ट्र की अवधारणा

प्रो.लल्लन प्रसाद

भारतीय जीवन दर्शन में पृथ्वी को मां की संज्ञा दी गयी है। रत्नगर्भा, वसुन्धरा ही जल, वायु, जीवन की पोषक है, पेड़, पौधे जंगल, पहाड़, फल, फूल, पशु-पक्षी, धन-धान्य की जननी है, हम सबकी मां है, कौटिल्य अर्थशास्त्र में मनुष्यों से युक्त भूमि को अर्थ कहा गया है। भूमि को प्राप्त करने और उसकी रक्षा करने वाले उपायों के निरूपण करने वाले शास्त्र को अर्थशास्त्र कहा गया है।

अर्थशास्त्र में जो विषय सम्मिलित किए गए उनमें प्रमुख है: कृषि, पशुपालन उद्योग-व्यापार, खनिज पदार्थ और सेवाएं, इसी विद्या से उपार्जित कोष और सेना के बल पर शासक स्वपक्ष तथा परपक्ष को वश में कर लेता है। चाणक्य के मत में राजा भूमि का स्वामी होता था। खेती, उद्योग-धन्धे, व्यापार, निवास, दुर्ग, नगर, गांव, वन, पक्षी विहार, हस्तिवन, मृगविहार, गुरुकुलों गुरुओं, वैद्यों, शिल्पियों, विद्वानों, चिंतको और समाज के सभी सदस्यों की भूमि की आवश्यकता की पूर्ति करता था। जलाशयों, कुओं, बावलियों, राजमार्गों, देवालयों, श्मशान, कोषागार, अन्न भण्डारण, शास्त्रागार, हाट बाजार आदि के लिए भूमि आवंटन करता था। भूमि के उपयोग पर नियन्त्रण राज्य का था, उसका दुरुपयोग दण्डनीय था। शक्तिशाली राजा उसे माना जाता था जो देश की सीमाओं का विस्तार करता था। दूसरे राज्यों की भूमि पर कब्जा करता था। चाणक्य के शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य ने भारत की सीमाओं का विस्तार करके इसे विश्व का सबसे बड़ा राष्ट्र बनाया था। भारत को इस ऊंचाई पर पहुंचाया कि इसे सोने की चिडिय़ा कहा जाने लगा।

चाणक्य के अनुसार भूमि पर भवनों का निर्माण बहुत नियोजित ढंग से होना चाहिए। वास्तुकला के विशेषज्ञों की सलाह पर नगर, ग्राम, दुर्ग, अन्त:पुर आदि का निर्माण करना चाहिए जो स्वास्थ्य, सुरक्षा और पर्यावरण के लिए अनुकूल हों। राजभवन का निर्माण मात्र राजा के भोगविलास के लिए नहीं जनहित को ध्यान में रखकर होना चाहिए। राज महल अन्त:पुर के बीच में होना चाहिए। अन्त:पुर के चारों ओर परकोटा एवं खाई बनायी जानी चाहिए राजमहल के पिछले भाग में निवास के अलावा प्रसूता, बीमार और असाध्य रोगिणी स्त्रियों के लिए अलग कमरे, छोटे बड़े उद्यान, जलशयों आदि की व्यवस्था का विवरण अर्थशास्त्र में मिलता है। मन्त्रणा का स्थान, राज दरबार, वरिष्ठ प्रशंसकों और राजकुमारों के आवास की भी व्यवस्था होनी चाहिए।

जनपदों के निर्माण की विधि का विस्तृत विवरण अर्थशास्त्र में पाया जाता है। प्रत्येक जनपद में कम से कम सौ और अधिक से अधिक पांच सौ घरों के गांव होने चाहिये जो किसानों और श्रमिकों के लिए हो।, गांवों की सीमा नदी, पहाड़ों जंगलों बेर के वृक्ष, खाई, जलाशय, सेमल, शमी और बरगद के पेड़ों से बनायी जाए। प्रकृति की गोद में मानव आवास की ऐसी सुन्दर परिकल्पना चाणक्य की थी। वनचर जाति के आवभगत की व्यवस्था की बात भी अर्थशास्त्र में आयी है। विद्वानों, आचार्यों, पुरोहितों को भूमि दान में देनी चाहिए और उनसे किसी प्रकार के कर नहीं वसूल किये जाने चाहिए। विभागीय अध्यक्षों, कर्मचारियों, गांव और नगर के अधिकारियों, वैश्यों और शिक्षिकों को भी भूमि आवास के लिए राज्य की ओर से उपलब्ध करायी जानी चाहिए। किन्तु इस प्रकार की जमीन का स्वामित्व आवंटको के जीवनकाल तक के लिए होता था। उसे बेचने या गिरबी रखने का अधिकार उन्हें नहीं था। खेती योग्य भूमि किसानों को दी जाती थी और उनपर उनके नाम दर्ज होते थे किन्तु यह उनके जीवन तक के लिए ही होते थे। उनके वाद राज्य को अधिकार था कि उनके परिवार को दे या न दे। इस व्यवस्था में परिवार बढऩे से जमीन के टुकड़े नहीं किये जा सकते थे। खेती योग्य भूमि जिसे आवंटित की जाती थी, उस पर फसल उगाना उसका दायित्व होता था। खेत को खाली छोडऩा या भूमि का दुरुपयोग करना दण्डनीय था। ऐसी स्थिति में आवंटन रद्द करने की व्यवस्था थी।

अपने परिश्रम से ऊसर और बंजर जमीन को कृषि योग्य बनाने में लगे किसानों को प्रोत्साहित किया जाता था। उनको जमीन का पूर्ण स्वामित्व दे दिया जाता था। किसानों को बीज, बैल और आर्थिक सहायता भी राज्य की ओर से दी जाती थी। फसल तैयार हो जाने पर उनकी जिम्मेदारी होती थी कि कर्ज वापस कर दें। किसान खुशहाल हों और स्वस्थ रहें, इसके लिए भी राज्य की ओर से अनुदान की व्यवस्था थी। चाणक्य का मानना था कि समृद्ध किसान ही राजकोष को समृ़द्ध करते हैं। जंगली जानवरों और प्राकृतिक आपदाओं से किसानों की सुरक्षा पर राज्य अपनी जिम्मेदारियों के प्रति सजग था। बेगार और कर का अधिक बोझ कृषि के लिए बाधक माना जाता था। किसानों के पशुओं की जंगली जानवरों, चोरों और ऐसी दूसरी बाधाओं से रक्षा भी राज्य की जिम्मेदारी थी।

सिंचाई के साधनों के विकास के लिए भूमि राज्य देता था। बांध, जलाशय, कुएं, नहरें बनवाना भी उसकी जिम्मेदारी थी। जो किसान स्वयं इस प्रकार के निर्माण करते थे, उन्हें नहर के लिए रास्ता, और निर्माण के लिए आवश्यक अन्य सभी सामग्री राज्य देता था। देवालयों और बाग बगीचों के लिए भी भूमि आवंटित की जाती थी। बड़े बड़े जलाशयों में मछली, जल पक्षी कमलदण्ड आदि व्यापार योग्य चीजें राज्य की सम्पत्ति माने जाते थे। कृषि पदार्थों की बिक्री आयात निर्यात और बड़े पैमाने के व्यापार के लिए मण्डियों की व्यवस्था भी सरकार करती थी।

हाथियों के व्यापार के लिए जंगल, चन्दन और उत्तम श्रेणी के लकड़ी की बिक्री की मण्डी के लिए भूमि की व्यवस्था राज्य की जिम्मेदारी थी। खानों की भूमि राज्य के नियन्त्रण में थी और खनिज सम्पत्ति के दोहन और बिक्री भी उसके दूसरे नियुक्त अधिकारी करते थे। नये जंगल लगाने और पुराने के विस्तार के लिए कुप्याध्यक्ष की नियुक्ति होती थी। चन्दन, पलाश, अशोक आदि के लिए अलग अलग वन लगाए जाते थे। जंगलों की व्यवस्था में वहां के निवासियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। जो भूमि खेती के लिए उपयुक्त नहीं थी, उन्हें चारागाह, शिक्षालय, देवालय आदि के लिए दे दिया जाता था।

दुर्ग (किला) और उसके अन्दर समस्त सुविधाओं से युक्त शहर का निर्माण प्राचीन भारत में भूमि प्रबन्धन और स्थापत्य कला के विकास की कहानी कहते हैं। पुराने किलों के अवशेष इसके प्रमाण है। ये राज्य की सुरक्षा, जनहित और पर्यावरण की सुरक्षा, तीनों का अनोखा सम्मिश्रण थे। चार तरह के दुर्ग बनाये जाने की व्यवस्था का अर्थशास्त्र में उल्लेख है – औदक, पार्वत, धानवन और वन दुर्ग। चारों ओर पानी से घिरा हुआ टापू के समान गहरे जलाशयों से आवृत भूमि पर बनने वाले दुर्ग को औदक दुर्ग कहा जाता था। पार्वत दुर्ग बड़ी बड़ी चट्टानों अथवा पर्वत की कन्दराओं के रूप में बनाया जाता था। धानवन दुर्ग ऊसर भूमि पर निर्मित किया जाता था। चारों ओर दलदल से घिरा और सघन झाडिय़ों से बना दुर्ग वन दुर्ग कहलाता था।

व्यापार के केन्द्र के रूप में बड़े नगरों का निर्माण होता था। वास्तु विद्या के विद्वानों की सलाह पर नदी या बड़े जलाशय के किनारे शहर बसाने की योजना क्रियान्वित की जाती थी। नगर निर्माण में भूमि के आकार प्रकार का विशेष ध्यान दिया जाता था। नगर में आने जाने के लिए जलमार्गों और स्थल मार्गों दोनों की व्यवस्था होती थी। नगर के चारों ओर बड़ी दीवारों के निर्माण में वही मिट्टी काम में लाई जाती थी जो खाई खोदने और अन्य कामों से निकाली जाती थी।

सुरक्षा की दृष्टि से सुरंगों का निर्माण भी कराया जाता था। किले की प्राचीर के बाहर शत्रुओं के घुटने तोड़ देने वाले खुंटे, त्रिशूल, अंधेरे गड्डे, नुकीले कांटे, कंटक के ढेर आदि फैला दिए जाते थे। दुश्मन की राह आसान न हो, इसके लिए पूरा प्रयास किया जाता था। किले के द्वार लोहे के कई परतों के बने होते थे। किले में आने जाने वाले हर व्यक्ति की जांच होती थी। राजमार्गों की चौड़ाई, विभिन्न स्थानों को जोडऩे वाली सड़कों और गालियों के बारे में भी अर्थशास्त्र में जानकारी दी गई है। शहर के किस भाग में किन चीजों की दुकानों होगी। किनके आवास स्थान होंगे, शस्त्रागार, अन्न भण्डार, अधिकारियों के निवास स्थान आदि के निर्माण में वास्तुशास्त्र और पर्यावरण का ध्यान रखा जाता था।

कोषगृह, पण्यगृह (राजकीय वस्तुओं की बिक्री की जगह), कोषागार (भंडार गृह), कुप्यगृह (अस्त्रागार) और कारागार (जेल) के लिए स्थान निर्धारण और निर्माण सम्बन्धी जानकारी अर्थशास्त्र में दी गई है। इनके निर्माण की जिम्मेदारी जिस अधिकारी को दी जाती थी उसे सन्निधाता कहते थे। कोषगृह शील रहित भूमि में होनी चाहिए। मोटी दीवारों से घिरी हो और उसमें भूमिगृह (तहखाना) भी बनवाया जाय। अनेक मंजिल और पक्के चबूतरों वाले पण्यगृह लम्बे दालानों से युक्त अनेक कोठरियों से घिरी हुई दीवारों वाले कुप्यगृह, स्त्रियों और पुरूषों के लिए अलग अलग कारागार के निर्माण कराये जाने और अग्नि और प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा की व्यवस्था का भी उल्लेख मिलता है।

भूमि का, विस्तार, सुरक्षा और प्रबन्धन राष्ट्र और समाज के हित में हो, यह राज्य की जिम्मेदारी है। किसान, मजदूर व्यापारी, शिल्पी, बुद्धि जीवी, महिलाओं, बच्चों और बुजर्गों तथा समाज के सभी वर्गों के लिए हितकारी व्यवस्था चाणक्य नीति का अभिन्न अंग है। चाणक्य अपने समय से बहुत आगे थे। वास्तु और स्थापत्य कलाओं और पर्यावरण संरक्षण के जो सिद्धान्त उन्होंने प्रतिपादित किये, उनमें से अधिकांश आज भी काफी उपयोगी हैं।

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