मुद्रा स्फीति का तेज़ी से बढ़ना, समाज के हर वर्ग, विशेष रूप से समाज के ग़रीब एवं निचले तबके तथा मध्यम वर्ग के लोगों को आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक विपरीत रूप में प्रभावित करता है। क्योंकि, इस वर्ग की आय, जो कि एक निश्चित सीमा में ही रहती है, का एक बहुत बड़ा भाग उनके खान-पान पर ही ख़र्च हो जाता है और यदि मुद्रा स्फीति की बढ़ती दर तेज़ बनी रहे तो इस वर्ग के खान-पान पर भी विपरीत प्रभाव पड़ने लगता है। अतः, मुद्रा स्फीति की दर को क़ाबू में रखना देश की सरकार का प्रमुख कर्तव्य है।
सामान्य बोलचाल की भाषा में, मुद्रा स्फीति से आश्य वस्तुओं की क़ीमतों में हो रही वृद्धि से है। इसे कई तरह से आंका जाता है जैसे – थोक मूल्य सूचकांक आधारित; उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित; खाद्य पदार्थ आधारित; ग्रामीण श्रमिक की मज़दूरी आधारित; इंधन की क़ीमत आधारित; आदि। मुद्रा स्फीति का आश्य मुद्रा की क्रय शक्ति में कमी होने से भी है, जिससे वस्तुओं के दामों में वृद्धि महसूस की जाती है।
मुद्रा स्फीति की तेज़ बढ़ती दर, दीर्घकाल में देश के आर्थिक विकास की दर को भी धीमा कर देती है। इसी कारण से कई देशों में मौद्रिक नीति का मुख्य ध्येय ही मुद्रा स्फीति लक्ष्य पर आधारित कर दिया गया है।
मुद्रा स्फीति लक्ष्य की शुरुआत सबसे पहिले 1990 के दशक में न्यूज़ीलैंड (1990), कनाडा (फ़रवरी 1991) एवं इंग्लैंड (अक्टोबर 1992) में हुई थी। इस नीति के अन्तर्गत केंद्र सरकार द्वारा, देश के केंद्रीय बैंक को यह अधिकार दिया जाता है कि देश में मुद्रा स्फीति की दर को एक निर्धारित स्तर पर बनाए रखने हेतु मौद्रिक नीति के माध्यम से आवश्यक क़दम उठाए जाएं। अतः मुद्रा स्फीति की दर को इस निर्धारित स्तर पर बनाए रखने की ज़िम्मेदारी देश के केंद्रीय बैंक की होती है।
वर्ष 2014 में केंद्र में माननीय श्री नरेन्द्र मोदी जी की सरकार के आने के बाद, देश की जनता को उच्च मुद्रा स्फीति की दर से निजात दिलाने के उद्देश्य से, केंद्र सरकार एवं भारतीय रिज़र्व बैंक ने दिनांक 20 फ़रवरी 2015 को एक मौद्रिक नीति ढांचा करार पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के अंतर्गत यह तय किया गया था कि देश में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रा स्फीति की दर को जनवरी 2016 तक 6 प्रतिशत के नीचे तथा इसके बाद 4 प्रतिशत के नीचे (+/- 2 प्रतिशत के उतार चड़ाव के साथ) रखा जाएगा। उक्त समझौते के पूर्व, देश में मुद्रा स्फीति की वार्षिक औसत दर लगभग 10 प्रतिशत बनी हुई थी। उक्त समझौते के लागू होने के बाद से देश में, मुद्रा स्फीति की वार्षिक औसत दर लगभग 4/5 प्रतिशत के आसपास आ गई है। जिसके लिए केंद्र सरकार एवं भारतीय रिज़र्व बैंक की प्रशंसा की जानी चाहिए। अब तो मुद्रा स्फीति लक्ष्य की नीति को विश्व के 30 से अधिक देश लागू कर चुके है।
उक्त क़रार पर हस्ताक्षर करने के बाद से भारतीय रिज़र्व बैंक सामान्यतः उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई दर के 6 प्रतिशत (टॉलरन्स रेट) के पास आते ही रेपो रेट (ब्याज दर) में वृद्धि के बारे में सोचना शुरू कर देता हैं क्योंकि इससे आम नागरिकों के हाथों में मुद्रा कम होने लगती है एवं उत्पादों की मांग कम होने से महंगाई पर अंकुश लगने लगता है। इसके ठीक विपरीत यदि देश में महंगाई दर नियंत्रण में बनी रहती है तो भारतीय रिज़र्व बैंक ब्याज दरों में कमी करने लगता है ताकि आम नागरिकों के हाथों में मुद्रा की उपलब्धता बढ़े एवं देश के आर्थिक को बल मिल सके। परंतु, देश में यदि मुद्रा स्फीति सब्ज़ियों, फलों, आयातित तेल आदि के दामों में बढ़ोतरी के कारण बढ़ती है तो रेपो रेट बढ़ाने का कोई फ़ायदा भी नहीं होता है क्योंकि रेपो रेट बढ़ने का इन कारणों से बढ़ी क़ीमतों को कम करने पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। अतः यदि देश में मुद्रा स्फीति उक्त कारणों से बढ़ रही है तो रेपो रेट को बढ़ाने की कोई ज़रूरत भी नहीं होना चाहिए। इस प्रकार देश में मुद्रा स्फीति की दर को भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में बदलाव कर नियंत्रित करने का प्रयास किया जाता है।
भारतीय रिजर्व बैंक ने दिनांक 5 फ़रवरी 2021 को घोषित की गई मौद्रिक नीति में लगातार चौथी बार नीतिगत ब्याज दरों में कोई बदलाव नहीं किया है। भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने रुख को नरम रखा है। दिसंबर 2020 में भी आरबीआई ने नीतिगत दरों को यथावत रखा था। मार्च और मई 2020 में रेपो रेट में लगातार दो बार कटौती की गई थी। भारतीय रिजर्व बैंक के इस एलान के बाद रेपो रेट 4 फीसदी और रिवर्स रेपो रेट 3.35 फीसदी पर बनी रहेगी। रेपो रेट वह दर है, जिस पर भारतीय रिज़र्व बैंक अन्य बैंकों को ऋण प्रदान करता है। भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर श्री शक्तिकांत दास ने मौद्रिक नीति का एलान करते हुए कहा है कि मौद्रिक नीति समिति ने सर्वसम्मति से रेपो रेट को बरकरार रखने का फैसला किया है क्योंकि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई दर के 6 प्रतिशत के सह्यता स्तर (टॉलरेंस लेवल) से नीचे रहने की सम्भावना है। वित्त वर्ष 2021-22 का बजट पेश होने के बाद यह भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा घोषित की गई पहली मौद्रिक नीति है। भारतीय रिज़र्व बैंक ने हालांकि फरवरी 2020 से अब तक, महंगाई दर के नियंत्रण में रहने के चलते रेपो रेट में 1.15 फीसदी की कटौती की है। साथ ही, चालू वित्त वर्ष 2020-21 की चौथी तिमाही जनवरी-मार्च 2021 में खुदरा महंगाई दर का लक्ष्य संशोधित कर 5.2 प्रतिशत कर दिया है और अप्रेल-सितम्बर 2021 में यह 5 से 5.2 प्रतिशत के बीच रह सकता है तथा वित्तीय वर्ष 2021-22 के दौरान यह 4.3 प्रतिशत तक नीचे रहने की सम्भावना व्यक्त की गई है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई की दर जून 2020 में 6 प्रतिशत से भी अधिक हो गई थी एवं नवम्बर 2020 में 6.9 प्रतिशत के स्तर को छूते हुए दिसम्बर 2020 में घटकर 4.6 प्रतिशत तक नीचे आ गई है।
इस प्रकार इस मौद्रिक नीति में यह भी बताया गया है कि महंगाई दर में कमी आई है और आगे आने वाले समय में इसके 6 प्रतिशत के सह्यता स्तर (टॉलरेंस लेवल) से नीचे बने रहने की प्रबल सम्भावनाएं नज़र आ रही हैं क्योंकि खरीफ एवं रबी के मौसम में अनाज की पैदावार बहुत अच्छी होने जा रही है। हां, हाल ही के समय में पेट्रोल की क़ीमतों एवं सब्ज़ियों की क़ीमतों पर ज़रूर कुछ दबाव देखने में आ रहा है। फिर भी, चूंकि इंडेक्स में शामिल अन्य वस्तुओं की क़ीमतों पर अंकुश बना रह सकता है अतः कुल मिलाकर देश में आगे आने वाले समय में भी मुद्रा स्फीति के नियंत्रण में बने रहने की सम्भावनाएं व्यक्त की जा रही हैं, जो केंद्र सरकार की नीतियों की सफलता ही कहा जाना चाहिए।