“ऋषि दयानन्द ने न्याय को दृष्टिगत कर सामाजिक सुधार कार्य किए”

दयानन्द (1825-1883) ने अपना जीवन ईश्वर के सत्यस्वरूप तथा मृत्यु पर विजय प्राप्ति के उपायों की खोज में लगाया था। इसी कार्य के लिए वह अपनी आयु के बाइसवें वर्ष में अपने पितृ गृह का त्याग कर अपने उद्देश्य को सिद्ध करने के लिए निकले थे। अपनी आयु के 38वे वर्ष में वह अपने उद्देश्य के अनुरूप सत्य ज्ञान को प्राप्त करने में सफल हुए थे। उन्होंने इस सृष्टि के रचयिता व पालक ईश्वर का सत्यस्वरूप जाना था और मृत्यु पर विजय के उपायों में भी ईश्वर के ज्ञान व उसकी सत्य वैदिक विधि से स्तुति-प्रार्थना-उपासना को सहायक पाया था। महर्षि सन् 1863 में सार्वजनिक जीवन में प्रविष्ट हुए थे। उन्होंने पाया था कि शुद्ध सनातन ज्ञान व विज्ञान पर आधारित वैदिक मत में महाभारत काल से कुछ समय पूर्व अविद्या का प्रवेश हो चुका था जो निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होता गया। इसका प्रभाव पूरे विश्व पर हुआ था। विश्व में प्रचलित सभी मत भी अविद्या व अज्ञान से युक्त मान्यताओं, सिद्धान्तों, विश्वासों व परम्पराओं से युक्त थे। मत-मतान्तरों की अविद्या तथा मनुष्य जीवन में अविद्या के कार्य मनुष्य जाति के दुःख का कारण बनते हैं। इस अविद्या को दूर करना किसी भी सभी सच्चे विद्वानों, मनीषियों, ईश्वर भक्तों, सज्जन साधु पुरुषों तथा दिव्य गुणों से युक्त मनुष्यों के लिए आवश्यक होता है।

ऋषि दयानन्द के विद्यागुरु प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती भी देश, समाज तथा मत-मतान्तरों में अविद्या से युक्त मान्यताओं व उनके देश व समाज पर कुप्रभाव से परिचित थे। वह सच्चे ईश्वर भक्त थे और मानवता का उपकार करने के लिए तथा विश्व से दुःखों को दूर कर सत्य पर आधारित ज्ञान से युक्त मान्यताओं व परम्पराओं का प्रचलन करने के उत्सुक थे। इसी की प्रेरणा उन्होंने ऋषि दयानन्द की गुरु दक्षिणा के अवसर पर स्वामी दयानन्द को की थी। स्वामी दयानन्द ने गुरु की प्रेरणा को गुरु की आज्ञा जानकर स्वीकार किया था और अपना शेष जीवन अविद्या, अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, मिथ्या परम्पराओं व कुरीतियों को दूर करने में लगाया था। इसी के अन्तर्गत उन्होंने अपने जीवन के सभी कार्य वेद प्रचार, समाज सुधार तथा देशसुधार आदि कार्यों को किया था। उनके कार्यों का न केवल भारत अपितु पूरे विश्व पर प्रभाव पड़ा है। इससे मत-मतान्तरों का ध्यान अपने अपने मत की मान्यताओं में निहित सत्यासत्य की परीक्षा करने सहित समाज सुधारों की ओर गया परन्तु यह बात अलग है कि क्या उन्होंने ऋषि दयानन्द द्वारा प्रस्तुत सत्य मत के स्वरूप व उसकी मान्यताओं को स्वीकार किया या नहीं, अथवा किस सीमा तक स्वीकार किया है।

ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के सत्यस्वरूप का अध्ययन व अन्वेषण किया तो वेदाध्ययन से उन्हें ज्ञात हुआ कि सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ एवं सर्वव्यापक ईश्वर ही सत्य सिद्धान्तों व कार्यों का पोषक एवं न्यायकारी है। वह अन्याय से दूर है तथा अन्यायकारियों को दण्ड देता है। सभी जीव, मनुष्य व इतर प्राणी उसकी सन्तानें हैं। वह सबके साथ निष्पक्षता का समान व्यवहार करता और असत्य व अशुभ कर्म करने वालों को दण्ड देता है। उन्होंने वेदों में ईश्वर की इस आज्ञा को भी पाया था कि ईश्वर भक्त व अनुयायियों को अपना जीवन पूर्ण न्याय व ज्ञान पर आधारित बनाना चाहिये। न्याय के यथार्थ स्वरूप को जानकर उन्होंने इसको निजी, धार्मिक व सामाजिक जीवन में भी अपनाया व इसका प्रचार कर सबको अपनाने पर बल दिया। ऋषि दयानन्द ने वेदों का ज्ञान प्राप्त कर सभी धार्मिक व सामाजिक मान्यताओं की समीक्षा की थी और सभी विषयों में वेदों के सत्य व न्याय पर आधारित कल्याणकारी दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया था। वह अपनी सभी मान्यताओं को सत्य, न्याय, निष्पक्षता, तर्क एवं युक्ति पर आधारित होने पर ही स्वीकार करते थे व इनके आधार पर प्रचलित मान्यताओं का संशोधन करते थे। इसी दृष्टि से उन्होंने समाज में प्रचलित सत्य मान्यताओं का मण्डन व पोषण करने के साथ असत्य व अज्ञान से युक्त धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताओं का खण्डन किया था।

ऋषि दयानन्द ने समाज को अज्ञान व पाखण्डों से मुक्त कराने का हर सम्भव उपाय व कार्य किया। उन्हीं के वेद प्रचार आदि कार्यों से लोगों को विद्या व अविद्या का यथावत् ज्ञान हुआ। उन्होंने मौखिक प्रचार द्वारा तो सत्य वैदिक मान्यताओं का प्रचार किया ही था, इसके साथ साथ मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक सभी सत्य वैदिक मान्यताओं का पोषण ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश लिखा जिसका अद्यावधि विश्व भर में प्रचार हुआ व हो रहा है। इसका परिणाम यह हुआ है कि शिक्षित व बुद्धिमान लोग वर्तमान में अपने जीवन के अधिकांश कार्य तर्क व युक्ति का आश्रय लेकर करते हैं। ऋषि दयानन्द के प्रयासों का ही परिणाम है कि देश व समाज से अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियां आदि पूर्णतः दूर तो नहीं हुए परन्तु कम अवश्य ही हुए हैं। देश की आजादी में भी ऋषि दयानन्द का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने ही स्वराज्य प्राप्ति का मूल मन्त्र सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के माध्यम से ओजपूर्ण शब्दों में दिया था और कहा था कि कोई कितना ही करे किन्तु जो स्वदेशी राज्य हेाता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। विेदशी राज्य के विषय में उन्होंने कहा है कि मत-मतान्तरों के आग्रह से रहित अपने और पराये का पक्षपातशून्य प्रजा पर पिता माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं होता है। भारत के इतिहास में देश को आजाद कराने वाले ऐसे प्रेरणादायक वचन उनसे पूर्व किसी मनीषी व विद्वान ने नहीं कहे हैं। इस कारण से ऋषि दयानन्द का देश की आजादी की प्रेरणा देने व उनके शिष्यों द्वारा उसको क्रियान्वित करने में सहयोगी होने के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान है।

ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन काल में ऐसा कोई अन्धविश्वास नहीं था जिस का खण्डन न किया हो और वैदिक विचारों के आधार पर उसका सत्य व हितकारी समाधान प्रस्तुत न किया हो। ऋषि दयानन्द ने धर्म के अन्र्तगत ईश्वर की मूर्तिपूजा का खण्डन भी इसे अन्धविश्वास बताकर किया और इसके प्रचुर प्रमाण भी अपने वचनों व ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में दिये हैं। ऋषि अवतारवाद की कल्पना को भी मिथ्या सिद्ध करते हैं। मृतक श्राद्ध का विधान भी उनकी दृष्टि में अवैदिक व मिथ्या है। मृत्यु के तुरन्त बाद मृतक आत्मा का पुनर्जन्म हो जाने के कारण उसे अपने पूर्व परिवारजनों से किसी प्रकार से पोषण की आवश्यकता नहीं होती। ऐसा करना अज्ञान व कुछ लोगों को अनुचित महत्व देने का कारण बनता है। फलित ज्योतिष को भी ऋषि दयानन्द वेद की विचारधारा व भावनाओं के विपरीत मिथ्या मानते थे। आर्यसमाज व इसके अनुयायी फलित ज्योतिष में किंचित विश्वास नहीं रखते और उसको न मानने का प्रचार करते हैं। ऋषि दयानन्द ने वेदों के अनुसार गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वर्ण व्यवस्था को प्रचारित किया था तथा जन्मना जातिवाद व भेदभावों से युक्त इस व्यवस्था का विरोध व खण्डन किया है। जन्मना जातिवाद की व्यवस्था वेद व ईश्वरीय नियमों के विरुद्ध है जिसका उन्मूलन तत्काल किया जाना चाहिये। इससे दुर्बल तथा कृत्रिम जन्मना निम्न जातियों के साथ अन्याय होता है।

ऋषि दयानन्द ने बाल विवाह, अनमेल विवाह, वृद्ध विवाह तथा बहु विवाह आदि का भी खण्डन किया और गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित पूर्ण युवावस्था में वर व कन्या की पसन्द के विवाह को उत्तम बताया। ऋषि दयानन्द व उनके अनुयायियों ने विधवाओं के साथ होने वाले अन्यायों को दूर करने का भी प्रयास किया। उनके एक प्रमुख अनुयायी उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द ने अपने समय में एक विधवा से विवाह कर अपनी ऋषि भक्ति का परिचय दिया था। आज विधवा विवाह होना सामान्य बात है परन्तु ऋषि दयानन्द के समय में कोई इस विषय में सोच भी नहीं सकता था। ऋषि दयानन्द ने समाज सुधार का कार्य करते हुए स्त्री व शूद्र बन्धुओं को वेद पढ़ने व पढ़ाने का अधिकार भी दिया। उनके प्रयास से वर्तमान में नारी वेद परायण महायज्ञों की ब्रह्मा के पदों पर सुशोभित होती हैं। ऋषि दयानन्द व उनके संगठन आर्यसमाज के प्रचार से ही छुआछूत वा अस्पर्शयता का उन्मूलन लगभग हो गया है।

ऋषि दयानन्द ने सभी समाजिक कुरीतियों सहित अन्धविश्वासों एवं पाखण्डों का अध्ययन कर एक सच्चा वेदभक्त एवं ईश्वरभक्त होने का परिचय दिया। उनके कार्यों से ही देश व समाज की तस्वीर बदली व सुन्दर बनी है। देश को ऋषि दयानन्द के मार्ग पर चलना चाहिये। इसी से विश्व का कल्याण तथा मानव जाति को सुखों की प्राप्ति होगी। ऋषि दयानन्द ने जीवन के हर क्षेत्र में विद्या व न्याय को दृष्टिगत रखकर वैदिक मान्यताओं का प्रचार किया। उनके द्वारा प्रचारित सभी मान्यतायें सत्य, न्याय व निष्पक्षता पर आधारित हैं। वेदों के प्रचार व प्रसार से ही विश्व में शान्ति आ सकती हैं। ऋषि दयानन्द ने देश व समाज सुधार के जो कार्य किये उसके लिये हम उनको नमन करते हैं।

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