गतांक से आगे….
चसोने के लिए तो घास और लकड़ी के बने हुए सादे झोंपड़े ही उत्तम हैं। ये झोंपड़े खुली वायु में जहां सघन वृक्षावलि और काफी रोशनी मिलती हो बनाने चाहिए। जमीन पर मुलायम घास बिछाकर अथवा रेतीली मिट्टी बालू बिछाकर सोना उत्तम है। मिट्टी के स्नान से दाह और अन्य पुराने रोग भी शांत हो जाते हैं।
चबिजली की रोशनी आंख के लिए महा हानिकारक है।
चऊंचे और बड़े मकानों से सदैव भूकंप में दबकर मर जाने का भय रहता है। जिन देशों में यह सभ्यता नही पहुंची, वहां लोग अब तक झोंपड़ों में ही रहते हैं और भूकंप से दुखी नही होते बड़े मकान शहरों में होते हैं। अत: शहरों और कस्बों से अपना स्थान तुरंत ही हटा लेना चाहिए। मनुष्य का असल स्थान तो जंगल है। शहरों में तो बीमारी और अशांति का ही साम्राज्य है।ancientman
चजंगल न हों वहां बड़े बड़े बगीचे लगाकर थोड़े दिन में जगल बना लेना चाहिए। मनुष्य जब फिर फल खाने लगेगा तो बगीचों से जंगल हो जाएंगे, जहां पशुओं का चारा होगा और मनुष्य के लिए फल उत्पन्न होंगे।
चविषय भोग तभी होना चाहिए जब प्रकृति आज्ञा दे।
चहम जितना ही नेचर की ओर बढ़ते जाएं, उतने ही अंश में प्राकृतिक विज्ञान और कला से हटते जाना रहिए। बिना ऐसा किये हम सत्य स्थान में नही पहुंच सकते।
चकातना, बुनना, सीना और अन्य गृहस्थी के आवश्यक पदार्थ सब घर में ही तैयार कर लेने चाहिए। चीजें और साज सामान एकदम हटा देना चाहिए। घर, बाग और खेतों के काम से तंदुरूस्ती और प्रसन्नता पड़ती है। उन्हें हम जितना ही अपनावेंगे, उतने ही सुखी होंगे।
चयह मानी हुई बात है कि सादगी ही सत्यता का चिन्ह है।
चपशुओं का पालन अच्छी तरह करना चाहिए। क्योंकि उनसे सवारी, बारबरदारी, दूध और खेती बंदी अनेक काम लिये जाते हैं। पशुओं को ताजा शुद्घ चारा देना चाहिए। जिन घोड़ों को पास के बजाए दाना अधिक दिया जाता है, वे बीमार हो जाते हैं। पर जिन बैलों को हरी घास दी जाती है, वे नीरोग रहते हैं।
चकृत्रिम खाद्य से उत्पन्न किया गया अन्न रोगी होता है। यहां (विलायत) के बराबरी विदेशी गेंहूं अधिक पसंद करते हैं। गंदी खाद से उत्पन्न अन्न को तो पशु भी पसंद नही करते। यही हाल कृत्रिम फलों का भी समझना चाहिए।
चइस तरह से यदि मनुष्य बड़ प्रकृति का मोह छोड़कर परमात्मा की तरफ फिरे, तो आपसे आप सामाजिक असमानता मिट जाए और परिश्रम में सबको बराबरी देखने को मिले। मनुष्य शुद्घ हो जाए, नीरोग हो जाए, बलवान और प्रतिभावान हो जाए। संसार के वैर, द्वेष, ईष्र्या चली जाए और एक बारगी हिंसा विदा हो जाए। भेडिय़ा भेड़ के साथ, चीता बकरी के साथ और सिंह गाय के साथ बैठकर प्रेम करें। अर्थात संसार में प्रेम, शांति और आनंद का दरिया भर जाए और दुख, दरिद्र, शोक, संताप का नाश हो जाए।
अब प्रश्न होता है कि पाश्चात्यों में ऐसे विचार क्यों उत्पन्न हुए? ऐसे विचारों की उत्पत्ति के चार कारण हैं-(1) पाश्चात्य विद्वानों को दिखलाई पड़ रहा है कि संसार में जनसंख्या बढ़ रही है अत: एक समय ऐसा आने वाला है कि पृथ्वी पर पैर रखने की भी जगह न रहेगी।
(2) पाश्चात्य विद्वानों में साम्यवाद की लहर उत्पन्न हुई है। इस लहर में गरीब, अमीर, मालिक, नौकर, राजा, प्रजा, छोटे बड़े और कुलीन अकुलीन के लिए स्थान नही है।
(3) शांतिमय दीर्घ जीवन की स्वाभाविक अभिलाषा, बीमारी और युद्घों के तिरस्कार ने भी विचारों में परिवर्तन किया है।
(4) नवीन वैज्ञानिक खोजों के आधार पर पुनर्जन्म, परमेश्वर, कर्मफल, और मोक्ष आदि की पारलौकिक चर्चा तथा सत्यता की प्रेरणा ने भी विद्वानों को विचार परिवर्तन की ओर आकर्षित किया है।
ये चारों सिद्घांत ऐसे हैं जिनसे उपेक्षा नही की जा सकती। ये नजर के सामने हैं और व्यवहार में आ रहे हैं। जनसंख्या की वृद्घि, समता के भाव, जीने की स्वाभाविक इच्छा और परलोक चिंता ने पाश्चात्यों को कुदरत की ओर लौटने और वर्तमान भौतिक विलासिता से दूर भागने पर विवश किया है। साम्यवाद के पूर्ण प्रचार से कोई देश किसी अन्य देश का धन अपहरण नही कर सकता। वह यह इरादा नही कर सकता कि अपने व्यापार कौशल और सेना के दबदबे से दूसरे देशवासियों को निर्धन करके स्वयं धनवान हो जाए। ऐसी दशा में मशीनों, कल कारखानों और नाना प्रकार के शस्त्रास्त्रों का अंत होना ही चाहिए। साथ ही नौकर के नाम का भी अंत होने से अमारत का भी नाश होना संभव है। सबको समान अन्न वस्त्र मिलने मिलाने की व्यवस्था किये बिना साम्यवाद का कुछ भी अर्थ नही हो सकता। परंतु इस समता से भी यह न समझना चाहिए कि आजकल की भांति विपुल परिणाम में अन्न वस्त्र और सुख साधन की सामग्री सबको मिल सकेगी। जनसंख्या की वृद्घि के कारण बहुत ही थोड़ा-थोड़ा सामान मिल सकेगा। चाहे जितना थोड़ा-थोड़ा लिया जाए पर यदि संतति वृद्घि होती गयी, तो थोड़ा-थोड़ा भी न मिल सकेगा। संततिनिरोध के बिना और कोई उपाय नही है कि जनसंख्या की वृद्घि रोकी जा सके। संततिनिरोध के आज तक जितने कृत्रिम उपाय किये गये हैं, सबमें रोगों की वृद्घि हुई है। इसलिए बिना अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत के और कोई उपाय नही है। अखण्ड ब्रह्मचारी के लिए विलासिताहीन सादा जीवन ही उपयोगी हो सकता है। इसलिए भी वर्तमान आडंबर का नाश ही दिखता है। जनसंख्या की वृद्घि के नाश होने का एक दूसरा नियम है जो अब तक चलता रहा है, वह है युद्घ, दुष्काल और बीमारी। परंतु सभ्यता का दम भरने वाले पाश्चात्य कहते हैं कि यदि अब भी युद्घ होते ही रहे, दुष्काल और बीमारियों को हम न रोक सकें तो कहना पड़ेगा कि विकासवाद असत्य है। क्योंकि लाखों वर्ष पूर्व भी जीने के लिए युद्घ ही होते थे और बीमारी तथा दुष्काल से जनसंख्या का संहार होता था। परंतु अब वह समय नही है। अब वह ज्ञान विज्ञान का काल है, इसलिए अब बर्बरतापूर्ण रक्तपात नही किया जा सकता। युद्घ तो बंद ही करना पड़ेगा और नहरों तथा वैज्ञानिक वर्षा से दुष्काल हटाने पड़ेंगे, तथा बीमारियों को दूर करना ही पड़ेगा। लीग ऑफ नेशंस अर्थात संसार की समस्त जातियों की महासभा का जन्म युद्घों के रोकने के लिए हुआ है।
क्यों यह सब करना पड़ेगा? इसलिए कि न करने से सभ्यता का नाश होगा। क्यों सभ्यता की रक्षा ही करनी चाहिए? इसलिए कि ज्ञान से उत्पन्न न्याय, दया, प्रेम और चरित्र का उपयोग हो। न्याय, दया प्रेम विचार और चरित्र गठन ने जब मनुष्य सभ्यता को इतने ऊंचे दरजे पर पहुंचा दिया कि वह अपनी और अन्यों की जिंदगी को अमूल्य समझने लगा है। जिस प्रकार स्वभावत: कोई मनुष्य किसी के द्वारा मरना नही चाहता, उसी प्रकार उच्च सभ्यता से प्रेरित होकर वह किसी को मारना भी नही चाहता। ऐसी दशा में युद्घों बीमारियों और दुष्कालों को होने देना, अब अंत:करण गवारा नही करता। यहां से दीर्घ जीवन की कामना और महत्ता आरंभ होती है। दीर्घ जीवन के लिए ब्रह्मचर्य सादगी, सात्तिवक आहार, प्राणायाम, चिंतात्याग और वन निवास आदि साधन अनिवार्य है। इससे भी वर्तमान भौतिक सभ्यता का अंत ही प्रतीत होता है। दीर्घ जीवन यदि बिना किसी उद्देश्य के केवल जीते ही रहने के लिए है तो वह निरर्थक ही सा है। पर बात यह नही है मनुष्य के सामने जन्म मरण, सुख दुख, लोक परलोक, आत्मा परमात्मा और बंध मोक्ष जैसे महान आवश्यक और विज्ञानपूर्ण इतने ज्यादा योग्य प्रश्न है और उनके सच्चे उत्तर पाने के लिए इतन अधिक काम है कि दीर्घ जीवन के लिए लंबे से भी लंबा समय बहुत ही थोड़ा है। यदि वह इस मार्ग से जो उसकी खास जिंदगी से संबंध रखता है, ईमानदारी के साथ आगे चले तो वह अपने और संसार के लिए अत्यंत अमूल्य वस्तु सिद्घ हो सकता है। अतएव इस दृष्टि से भी पाश्चात्य वर्तमान युग का नाश ही होना है। क्रमश:

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