भारतीय वांग्मय में पाप और पुण्य

#डॉ_विवेक_आर्य

(दार्शनिक विचार)

पाप और पुण्य कर्मों को लेकर अनेक मित्र पूछते है कि ईश्वर की प्रार्थना करने से पाप कैसे नष्ट हो जाते है? मनुष्य कर्म करने के लिए स्वतन्त्र है मगर फल पाने के लिए परतन्त्र है। पाप कर्मों का फल दुःख और पुण्य कर्मों का फल सुख है। यही सुख विशेष स्वर्ग और विषय तृष्णा में फंसकर दुःख विशेष भोग करना नरक कहलाता है। जो सांसारिक सुख है वह सामान्य स्वर्ग और जो परमेश्वर की प्राप्ति का आनंद है। वही विशेष स्वर्ग कहलाता है। उसके विपरीत का नाम नरक है। सुख की प्राप्ति के लिए पाप कर्मों का त्याग और पुण्य कर्मों का धर्म अनुसार करना अनिवार्य हैं। क्योंकि जब तक मूल होता है अर्थात पाप कर्म होता है। तब तक सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती। ईश्वर की प्रार्थना करने से मनुष्य पुण्य कर्म करने की प्रेरणा लेता है। अपनी अन्तरात्मा में स्थित ईश्वर से पाप कर्म न करने के लिए आत्मबल देने की प्रार्थना करता है।

इसी सन्देश को इस प्रकार से कहा गया हैं-

छिन्ने मूले वृक्षों नश्यति तथा पापे क्षीणे दु:ख नश्यति।

जैसे मूल कट जाने से वृक्ष नष्ट हो जाता है वैसे पाप को छोड़ने से दु:ख नष्ट होता है।

देखो! मनुस्मृति अध्याय 11 में पाप और पुण्य की बहुत प्रकार की गति-के बारे में 15 श्लोक दिए हैं।

मानसं मनसैवायमुपभुङ्क्ते शुभाऽशुभम्।

वाचा वाचा कृतं कर्म कायेनैव च कायिकम्।।१।। से

तमसो लक्षणं कामो रजसस्त्वर्थ उच्यते।

सत्त्वस्य लक्षणं धर्मः श्रैष्ठ्यमेषां यथोत्तरम्।।१५।। मनु० अ० १२।। तक

अर्थात् मनुष्य इस प्रकार अपने श्रेष्ठ, मध्य और निकृष्ट स्वभाव को जानकर उत्तम स्वभाव का ग्रहण; मध्य और निकृष्ट का त्याग करे और यह भी निश्चय जाने कि यह जीव मन से जिस शुभ या अशुभ कर्म को करता है उस को मन, वाणी से किये को वाणी और शरीर से किये को शरीर से अर्थात् सुख दुःख को भोगता है।।१।।

जो नर शरीर से चोरी, परस्त्रीगमन, श्रेष्ठों को मारने आदि दुष्ट कर्म करता है उस को वृक्षादि स्थावर का जन्म; वाणी से किये पाप कर्मों से पक्षी और मृगादि तथा मन से किये दुष्ट कर्मों से चाण्डाल आदि का शरीर मिलता है।।२।।

जो गुण इन जीवों के देह में अधिकता से वर्त्तता है वह गुण उस जीव को अपने सदृश कर देता है।।३।।

जब आत्मा में ज्ञान हो तब सत्त्व; जब अज्ञान रहे तब तम; और जब राग द्वेष में आत्मा लगे तब रजोगुण जानना चाहिये। ये तीन प्रकृति के गुण सब संसारस्थ पदार्थों में व्याप्त हो कर रहते हैं।।४।।

उस का विवेक इस प्रकार करना चाहिये कि जब आत्मा में प्रसन्नता मन प्रसन्न प्रशान्त के सदृश शुद्धभानयुक्त वर्त्ते तब समझना कि सत्त्वगुण प्रधान और रजोगुण तथा तमोगुण अप्रधान हैं।।५।।

जब आत्मा और मन दुःखसंयुक्त प्रसन्नतारहित विषय में इधर उधर गमन आगमन में लगे तब समझना कि रजोगुण प्रधान, सत्त्वगुण और तमोगुण अप्रधान है।।६।।

जब मोह अर्थात् सांसारिक पदार्थों में फंसा हुआ आत्मा और मन हो, जब आत्मा और मन में कुछ विवेक न रहै; विषयों में आसक्त तर्क वितर्क रहित जानने के योग्य न हो; तब निश्चय समझना चाहिये कि इस समय मुझ में तमोगुण प्रधान और सत्त्वगुण तथा रजोगुण अप्रधान है।।७।।

अब जो इन तीनों गुणों का उत्तम, मध्यम और निकृष्ट फलोदय होता है उस को पूर्णभाव से कहते हैं।।८।।

जो वेदों का अभ्यास, धर्मानुष्ठान, ज्ञान की वृद्धि, पवित्रता की इच्छा, इन्द्रियों का निग्रह, धर्म क्रिया और आत्मा का चिन्तन होता है यही सत्त्वगुण का लक्षण है।।९।।

जब रजोगुण का उदय, सत्त्व और तमोगुण का अन्तर्भाव होता है तब आरम्भ में रुचिता, धैर्य-त्याग, असत् कर्मों का ग्रहण, निरन्तर विषयों की सेवा में प्रीति होती है तभी समझना कि रजोगुण प्रधानता से मुझ में वर्त्त रहा है।।१०।

जब तमोगुण का उदय और दोनों का अन्तर्भाव होता है तब अत्यन्त लोभ अर्थात् सब पापों का मूल बढ़ता, अत्यन्त आलस्य और निद्रा, धैर्य्य का नाश, क्रूरता का होना, नास्तिक्य अर्थात् वेद और ईश्वर में श्रद्धा का न रहना, भिन्न-भिन्न अन्तःकरण की वृत्ति और एकाग्रता का अभाव जिस किसी से याचना अर्थात् मांगना, प्रमाद अर्थात् मद्यपानादि दुष्ट व्यसनों में फंसना होवे तब समझना कि तमोगुण मुझ में बढ़ कर वर्त्तता है।।११।।

यह सब तमोगुण का लक्षण विद्वान् को जानने योग्य है तथा जब अपना आत्मा जिस कर्म को करके करता हुआ और करने की इच्छा से लज्जा, शंका और भय को प्राप्त होवे तब जानो कि मुझ में प्रवृद्ध तमोगुण है।।१२।।

जिस कर्म से इस लोक में जीवात्मा पुष्कल प्रसिद्धि चाहता, दरिद्रता होने में भी चारण, भाट आदि को दान देना नहीं छोड़ता तब समझना कि मुझ में रजोगुण प्रबल है।।१३।।

और जब मनुष्य का आत्मा सब से जानने को चाहै, गुण ग्रहण करता जाय, अच्छे कर्मों में लज्जा न करे और जिस कर्म से आत्मा प्रसन्न होवे अर्थात् धर्माचरण में ही रुचि रहे तब समझना कि मुझ में सत्त्वगुण प्रबल है।।१४।।

तमोगुण का लक्षण काम, रजोगुण का अर्थसंग्रह की इच्छा और सत्त्वगुण का लक्षण धर्मसेवा करना है परन्तु तमोगुण से रजोगुण और रजोगुण से सत्त्वगुण श्रेष्ठ है।।१५।।

इसीलिए हे मनुष्यों ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करते हुए केवल पुण्य कर्म करने और पाप कर्मों के त्याग का संकल्प लेकर सुख के भागी बने।

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