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भारतीय संस्कृति

वेद प्रचारकों/उपदेशकों का सफल उपासक होना आवश्यक

मनमोहन कुमार आर्य
महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना वेदों के प्रचार व प्रसार के लिए की थी और यही आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य भी है। वेदों के प्रचार व प्रसार के पीछे महर्षि दयानन्द का मुख्य उद्देश्य यही था कि वेद ईशवर से उत्पन्न व प्रेरित सब सत्य विद्याओं की ज्ञान की पुस्तक हैं। महर्षि दयानन्द ने जब वेदों का अध्ययन किया तो उन्हें लगा कि संसार में जितने भी धार्मिक मत, पन्थ, संगठन, संस्थायें, मजहब, रिलीजीयन आदि हैं, वह सब जनता के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं। सभी मत-मतान्तरों में ईश्वर, जीव व प्रकृति के स्वरूप के बारे में जो विवरण मिलता है, वह पूर्ण रूप से यथार्थ व सत्य नहीं है। सत्य मत व सिद्धान्तों के स्थान पर उनमें अज्ञान, असत्य काल्पनिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का मिश्रण भी है। उन्हें इस तथ्य का ज्ञान भी हुआ कि यदि वह सत्य का प्रचार नहीं करेंगे तो जितने भी मनुष्य संसार में हैं, वह मानव जीवन के यथार्थ उद्देशय से अपरिचित रहने के कारण अपने दुर्लभ मानव जीवन को व्यर्थ गंवाकर परजन्म में पुन: गहरे बन्धनों में फंस जायेंगे जिससे दुखों की प्राप्ति के कारण उनकी दुर्गति होना निश्चित है। संसार के सब मनुष्यों को दुखों से बचाने एवं उनके कल्याण के लिए ही उन्होंने वेदों के प्रचार के कार्य को चुना। यह संसार के लोगों का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि वह महर्षि दयानन्द की सर्वहितकारी व यथार्थ मंशा को समझ नहीं पाये या अज्ञानता व स्वार्थवश समझना नहीं चाहा और अपने साथ-साथ सारी मानव जाति के जीवन को अवनति के गर्त की ओर ढकेल दिया। अपने स्वाध्याय, विचार व चिन्तन-मनन से हमने इस तथ्य को जाना है कि वेदों का ज्ञान संसार के सभी धर्म व मत के ग्रन्थों से सर्वोच्च, सर्वोत्तम, सर्वहितकारी, ईश्वरप्रदत्त व सारी दुनिया के सभी मनुष्यों के लिए परम हितकारी है। इस वैदिक धर्म अथवा वेदों की शिक्षा को जानकर उसका आचरण करने से मनुष्य जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति कर सफलता प्राप्त कर सकता है। वेदों की महानता को जानने के लिए और जीवन के उद्देश्य एवं लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त, सफल व सिद्ध करने का सबसे सरल व सुगम मार्ग महर्षि दयानन्द के प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाशÓ का निष्पक्ष व किसी भी मत-मतान्तर के आग्रह से रहित होकर अध्ययन करना है।
यह जान लेने के बाद वेदों व वैदिक मान्यताओं के प्रचार प्रसार का प्रयत्न आवशयक हो जाता है। इसके लिए हमें ऐसे ज्ञानी विद्वानों की आवशयकता है जो वेदों के विद्वान होने के साथ-साथ अन्य मत-पन्थों का भी पर्याप्त ज्ञान रखते हों। हमारे गुरूकुल ऐसे विद्वानों को तैयार करने की भावना से ही खोले गये थे परन्तु इनसे उद्देश्यानुसार लाभ प्राप्त नहीं हो सका। आज आवश्यकता गुरूकुल प्रणाली में देश, काल, परिस्थितियों के अनुसार कमियों को दूर करने की है। गुरूकुल का आर्य समाज की पृष्ठभूमि में मुख्य उद्देश्य केवल व केवल वेदाध्ययन व अन्य मत की पुस्तकों का अध्ययन कराकर उन विद्या स्नातकों को वेदों के महत्व से स्वदेश को ही नहीं अपितु संसार को प्रकाशित करना व जानकारी देना है। इसके साथ ही मत-मतान्तरों की त्रुटियों व अज्ञानमूलक मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रकाश करना भी उनका उद्देश्य है जिससे लोग सत्य व असत्य का निर्णय स्वयं कर सकें। इसके लिए आज की आवशयकता के अनुरूप हिन्दी, अंग्रेजी सहित दुनिया की प्रमुख भाषाओं में उच्च स्तरीय साहित्य तैयार कर जन-जन तक पहुंचाना होगा। दूसरी लड़ाई यह भी लडऩी पड़ सकती है कि सत्य के प्रचार के मार्ग में नाना प्रकार की बाधायें आयेंगी। अज्ञानी स्वार्थी लोग सत्य के विरोधी होते हैं। उन्हें सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता। उन्हें तो अपना स्वार्थ ही प्रिय होता है। उनका सामना व मुकाबला भी आर्य समाज के संगठन को करना होगा लगभग वैसे ही जैसे स्वामी दयानन्द, पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द आदि ने किया व अन्तत: अपने प्राणों की आहुति देकर वैदिक धर्म पर शहीद हो गये और हकीकत राय की तरह बलिदान की परम्परा को जन्म देकर उसका निर्वाह किया। हमें यह भी देखना होगा कि हमारे संगठन में भी कुछ लोग किन्हीं महत्वकांक्षाओं के कारण आर्य समाज के विरोधियों को सहयोग कर समाज के संगठन को कमजोर तो नहीं कर रहे हैं? ऐसे लोगों का पता लगाना और उन्हें आर्य समाज से पृथक करना होगा। आर्य समाज में शीर्ष स्थानों पर बैठे लोग पूरी तरह समर्पित वैदिक धर्मी, सत्यप्रेमी व पक्के आर्य समाजी होने चाहिये। केवल बड़ी-बड़ी बातें व प्रभावशाली व्याख्यान देने मात्र से ही कोई व्यक्ति महर्षि दयानन्द, वैदिक धर्म व आर्य समाज का पक्का अनुयायी नहीं हो जाता। अत: इस ओर भी सावधानी रखने की आवशयकता है।
आर्य समाज कोई मत-मतान्तर नहीं है, अपितु यह सत्य ज्ञान से युक्त वेदों के मानव सर्वहितकारी विचारों, मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रचार करने वाली एक मिशनरी संस्था है जिससे मनुष्यमात्र सहित प्राणिमात्र का हित व कल्याण होता है। आर्य समाज सभी मतों व पन्थों से भिन्न एक सर्वोत्कृष्ट संगठन एवं आन्दोलन है जो संसार से सभी बुराईयों को दूर कर श्रेष्ठता को स्थापित करने की भावना से ओतप्रोत है। इसका लक्ष्य बहुत बड़ा व महान है। इसके पूर्ण होने में कई वर्ष, शताब्दियां व युग भी लग सकते हैं। यदि सभी आर्यबन्धु संगठित होकर कार्य करेंगे तो उसका प्रभाव तो देश व समाज पर अवश्यमेव होगा ही। अत: इस भावना को रखकर हमें अपने गुरूकुल के ब्रह्मचारियों का उद्देश्य उन्हें शिक्षित कर यत्र-तत्र धनोपार्जन हेतु नौकरी करवाने का न होकर धर्मरक्षा व धर्मप्रचार के कार्य में लगाने का होना चाहिये। यदि आवशयक हो तो इस कार्य के लिए आर्य समाजें अपने कोष से उन्हें आज की आवशयकता के अनुसार दक्षिणा या आवश्यकता की पूर्ति करने वाला उचित वेतन भी दे सकती हैं। हमें लगता है कि हमारे समाज व सभायें इस विषय में उदासीन हैं जो कि प्रचार में सफलता प्राप्त न होने का एक कारण हो सकता है। हम यहां यह उदाहरण देना चाहते हैं कि यदि एक गुरूकुल के योग्य ब्रह्मचारी को हम उचित वेतन या दक्षिणा देकर वेद प्रचार के कार्य पर नियुक्त नहीं करेंगे तो उसे आजीविका के लिए अन्यत्र नौकरी करनी होगी। कई परिस्थितियों में अन्य मतावलम्बियों के यहां भी कार्य या नौकरी करनी पड़ सकती है। क्या उन सभी स्थितियों में वह आर्य समाज व वैदिक धर्म की सेवा कर पायेगा जो वह आर्य समाज से वेतन लेकर कर सकता था? हमें लगता है कि हमें अपने योग्यतम गुरूकुल के ब्रह्मचारियों को आर्य समाज से बाहर आजीविका के लिए न जाने देकर उन्हें उचित वेतन व सुविधायें देनी चाहिये और उनसे उपयुक्त कार्य लेना चाहिये जिससे वेद प्रचार का अधिकाधिक कार्य हो सके।
आजकल हम देखते हैं कि आर्य समाज के साधारण कार्यकर्ताओं से लेकर बड़े-बड़े विद्वानों में ईश्वर प्राप्ति के लिए आवशयक साधना का अभाव है। हम आर्य समाज में ऐसे लोग तैयार नहीं कर सके जिनके परिचय में दूसरों को बता सके कि हमारे यह विद्वान ईशवर का साक्षात्कार किए हुए हैं? क्या कार्यकर्ता, क्या विद्वान, नेता, संन्यासी, अपवाद को छोड़कर, सभी साधना मे कोरे हैं। यदि यह विचार करें कि महर्षि दयानन्द ने सन्ध्योपासना की विधि किस प्रयोजन से लिखी थी तो हम पाते हैं कि वह स्वयं साधना में शिखर पर पहुंचे हुए सिद्ध साधक, योगी, उपासक व भक्त थे। उन्होंने अवशय ही ईशवर का साक्षात्कार किया हुआ था। तभी वह वेदों का ऐसा अत्युत्तम भाष्य कर सके व सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, गोकरूणानिधि, व्यहारभानू आदि ग्रन्थों का प्रणयन कर सके। सन्ध्या में ईशवर के ध्यान करते हुए जो विचार, चिन्तन व ध्यान किया जाता है, उसकी विधि व उसकी तैयारी करने का उपक्रम उन्होंने बताया है। उन्होंने अपने साहित्य में ईशवर को प्राप्त करने के जो विचार प्रस्तुत किए हैं, उसका उद्देश्य ही सभी आर्यों व इतर सभी मतस्थ व वर्णस्थ मनुष्यों को उपासना में प्रवृत्त कर उन्हें ईश्वर का साक्षात्कार कराना था। यह हम सबका दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि हम प्रवचन व उपदेश तो खूब देते हैं, तालियां भी बजती हैं, परन्तु उपदेश देने वाला आयु व ज्ञान वृद्ध होने पर भी ईश्वर का साक्षात्कार किया हुआ नहीं होता है। हमें लगता है कि सभी प्रचारकों, उपदेशकों व व्याख्यानताओं को ध्यान द्वारा समाधि को सिद्ध करने का अधिकाधिक प्रयास करना चाहिये और श्रोताओं सहित सभी के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिये। यदि ऐसा होगा तो प्रचार का प्रभाव न केवल देश में अपितु विश्व में भी अधिक होगा।
हम विद्वानों पर छोड़ते हैं कि वह इस सम्बन्ध में और विचार कर अपने लेखों से आर्य जनता का मार्गदर्शन करें। अपने इन विचारों को हम छोटा मुंह बड़ी बात मानते हैं, परन्तु आवश्यकता, उपयोगिता व सद्भावना से यह वाक्य लिखे हैं।
(प्रवक्ता डॉट कॉम से साभार)

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