ऋषि दयानंद ने ऋषि परंपरा का निर्वहन करते हुए वेद परंपरा को पुनर्जीवित किया

ओ३म
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आदि काल से महाभारत काल तक देश देशान्तर में ईश्वरीय ज्ञान वेदों का प्रचार था। वेद सृष्टि की आदि में ईश्वर द्वारा मनुष्यों को प्रेरित व प्राप्त ज्ञान है। वेद सब सत्य विद्याओं से युक्त हैं जिससे मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति होती है। ईश्वर, जीवात्मा तथा सृष्टि की उत्पत्ति, सृष्टि उत्पत्ति के प्रयोजन, मनुष्य जीवन के उद्देश्य, कर्म फल सिद्धान्त आदि का ठीक ठीक ज्ञान भी वेदों से ही होता है। ऋषियों ने वेदों के सन्देश का प्रचार करने के लिए अलग अलग विषयों पर अनेक ग्रन्थों की रचना की है। इनसे भी वेदों का आशय जाना जाता है। वेदों से जुड़ कर मनुष्य के जीवन का कल्याण एवं इससे दूर होने से पतन होता है। वेदों से मनुष्य को ईश्वर के उपकारों का ज्ञान होता है जिससे प्रत्येक मनुष्य एवं प्राणी लाभान्वित होता है। हम जिस संसार में रह रहे हैं और सुख पा रहे हैं, वह परमात्मा ने हमारे ही समान अनन्त जीवों के सुख व कल्याण सहित आत्मा की उन्नति करते हुए मोक्ष सुख की प्राप्ति के लिये रचा है। हम किसी भी व्यक्ति से कोई लाभ प्राप्त करते हैं तो उसका धन्यवाद अवश्य करते हैं। इसी प्रकार से मनुष्य व सभी प्राणियों पर परमात्मा के अनादि काल से अनन्त जन्मों में किए गये अगणित उपकार हैं। अतः हमें ईश्वर के उपकारों का विचार कर अपने कर्तव्य की पूर्ति के लिए उसका ध्यान व गुणगान करना चाहिये। इस उद्देश्य का ज्ञान व पूर्ति वेदों के अध्ययन व प्रचार से ही होती है।

वेद की कोई भी शिक्षा संसार के किसी मनुष्य के विरुद्ध नहीं है। वेदों को मानने से सभी को लाभ होता है तथा उनके जन्म व परजन्म सुधरते हैं, परन्तु आश्चर्य है कि सर्वजनोपयोगी व परम हितकारी वेदों को भी सभी लोग स्वीकार नहीं करते। इसका कारण लोगों की अविद्या एवं अपने अपने हित होते हैं जिन्हें वह छोड़ नहीं पाते। इस कारण से ही संसार में अनेकानेक समस्यायें व अशान्ति बनी हुई है। इसी कारण से संसार में अन्याय, शोषण, भेदभाव, हिंसा आदि कृत्य होते हैं। इन सब पर नियंत्रण का एक ही समाधान है कि संसार के सभी लोग वेदज्ञान से संयुक्त हों। ऐसा करके ही ही सभी मनुष्यों में विद्यमान काम, क्रोध, लोभ, मोह, इच्छा, द्वेष, स्वमत के प्रति विशेष प्रेम तथा परमत यदि उत्तम भी हो उसके प्रति भी उपेक्षा व विरोध का भाव देखने को मिलता है। महाभारत युद्ध के बाद देश व संसार में वेदों का प्रचार प्रायः बन्द व लुप्त हो गया था। वेदों के अध्ययन व अध्यापन तथा वेदों की शिक्षा के प्रचार की व्यवस्था भी धीरे धीरे समाप्त हो गई थी। गुरुकुल प्रणाली भी भंग हो गयी थी। अविद्या में वृद्धि हो रही थी। वेदों के मानने वाले विद्वान भी वेदों के अभिप्राय के विरुद्ध वेदमन्त्रों के अर्थ करते थे। देश के विद्वान व जनसमान्य वेदों की मान्यताओं को लेकर भ्रान्तियों से युक्त हो गये थे। वेदों के नाम पर ही संसार में अनेक अन्धविश्वास, कुरीतियों से युक्त सामाजिक परम्परायें आदि फैली हैं।

ऋषि दयानन्द को अपनी किशोर अवस्था में ही ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानने की जिज्ञासा व प्रेरणा प्राप्त हुई थी। उनकी शंकाओं का समाधान तत्कालीन कोई विद्वान व पंडित नहीं कर सका था। अपने प्रिय जनों की मृत्यु को देखकर उनको भय ने आ घेरा था। इस मृत्यु पर विजय का उपाय भी उन्हें किसी से प्राप्त नहीं हुआ था। यदि उनको उस समय वह ज्ञान मिल जाता जो हमें आज उनके ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में उपलब्ध होता है, तो अनुमान होता है कि उन्हें घर न छोड़ना पड़ता और वह साधना व प्रचार के मार्ग पर चलते हुए लोगों को जगाते जैसा कि उन्होंने सन्1863 में अपने विद्यागुरु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से विद्या पूरी करके किया था। ऋषि दयानन्द ने जो ज्ञान प्राप्त किया था उसके लिये उन्हें अपूर्व पुरुषार्थ करना पड़ा था। ऐसा पुरुषार्थ इतिहास में किसी मनुष्य के जीवन में देखने को नहीं मिलता। उनको जो सत्य व यथार्थ ज्ञान प्राप्त हुआ था उसकी समाज को आवश्यकता थी। लोगों को अविद्या व इससे होने वाले दुःखों को दूर करने के लिए उन्होंने सत्य ज्ञान वेदों की मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रचार किया। एक प्रकार से ऋषि दयानन्द ने लोगों को वेदज्ञान रूपी अमृत पिलाया था। मनुष्यों की ज्ञान आदि की आवश्यकताओं को समझ कर ही उन्होंने ज्ञान को स्थायी रूप से प्राप्त कराने के लिये सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ऋग्वेद भाष्य आंशिक तथा यजुर्वेद भाष्य सम्पूर्ण सहित संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया।

विज्ञान के क्षेत्र में कोई आविष्कार व नियम ज्ञात होता है तो संसार के वैज्ञानिक उसे हाथो हाथ स्वीकार कर लेते हैं। परन्तु धर्म व सम्प्रदाय से जुड़ी मनुष्य जाति का स्वभाव इसके विपरीत देखने को मिलता है। ऋषि दयानन्द ने समाधि व वेदाध्ययन सहित शीर्ष विद्वानों से जो सत्यज्ञान प्राप्त किया, उसे उन्होंने जब लोगों तक पहुंचाने के उद्देश्य से प्रयत्न किये तो लोगों में सत्य ज्ञान को जानने व उसे स्वीकार करने में रुचि का अभाव प्रतीत हुआ। अविद्यायुक्त मत-मतानतरों के आचार्यों ने भी उनका विरोध किया। इसका कारण सत्य के प्रकाश से मत-मतान्तरों व सम्प्रदायों के हित प्रतिकूल रूप से प्रभावित होते थे। कहा व माना भी जाता है कि सत्य पर चलना तलवार की तेज धार पर चलने से भी अधिक कठिन होता है। सम्भवतः इसी कारण मत-मतान्तर के लोगों ने उनके सत्य पर आधारित ज्ञान व विचारों को स्वीकार नहीं किया। ऐसा करके मत-मतान्तरों के लोगों ने अपनी व अपने अनुयायियों की ही हानि की है। इस कारण से मनुष्य की शारीरिक, सामाजिक एवं आत्मिक उन्नति में बाधा पड़ी है।

इस स्थिति में भी ऋषि दयानन्द निराश नहीं हुए। उन्होंने परमात्मा की आज्ञा को जाना व समझा और अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक वह वेदों की सत्यज्ञान से युक्त मान्यताओं एवं सिद्धान्तों के प्रचार व प्रसार में अडिग रहे। वेदों व सत्य ज्ञान का प्रचार करने के कारण ही असहिष्णु व अविवेकशील लोगों ने उनके प्राणहरण की चेष्टायें की। इसी कारण से उनको एक षडयन्त्र के अन्तर्गत जोधपुर प्रवास में विष दिया गया था जो अजमेर में दीपावली के दिन दिनांक30-10-1883 को उनकी मृत्यु का कारण बना था। ऋषि दयानन्द ने अविद्या दूर कर विद्या की वृद्धि का जो कार्य किया वह उनके बाद भी पल्लवित एवं पुष्पित हुआ है। आज भी उनका कार्य उनके अनुयायी अपनी सामथ्र्य के अनुसार जारी रखे हुए हैं। हम आशा करते हैं कि आज भले ही वेदों का प्रचार कुछ शिथिल पड़ गया हो परन्तु भविष्य में ईश्वर की कृपा से वह पुनः वैदिक काल व युग की स्थिति उत्पन्न कर सकता है। ऋषि दयानन्द के अनुयायियों को अपनी सामथ्र्य के अनुसार कार्य करते रहना चाहिये। इसका अवश्य ही लाभ होगा। इससे उन्हें श्रेष्ठ कर्मों को करने के फल भी प्राप्त होंगे ही। इसी भावना से आर्यसमाज के अनेकानेक विद्वान वेदप्रचार, लेखन व धर्मोपेदेश व इतर कार्यों को करते हुए प्रचार कर रहे हैं।

आदि काल से महाभारत के समय तक देश में ऋषि परम्परा रही है। ऋषि वेदों की परम्पराओं में अपने जीवन को ढालने वाले, योग विधि से ईश्वर का साक्षात्कार करने वाले, वेद-वेदांगों के मर्मज्ञ तथा त्याग से पूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए ब्रह्मचर्य आदि का पालन करने वाले, वेदों के सत्य अर्थों के यथार्थ द्रष्टा व प्रचारक हुआ करते थे। देश व समाज में उनका अत्यधिक सम्मान हुआ करता था। देश के राजा महाराजा भी उनका आदर व सम्मान करते थे तथा उनकी आज्ञाओं का पालन करते थे। ऐसा समय देश में सुख, शान्ति, उन्नति, समृद्धि का समय था। महाभारत से कुछ समय पूर्व यह स्थिति बदल गई थी। महाभारत का युद्ध हुआ। इसमें अपार जान व माल की हानि हुई। शिक्षा व्यवस्था भी कालान्तर में ध्वस्त हो गई। अज्ञान से युक्त लोगों ने वेदों की मनमानी व्याख्यायें की। इससे समाज में अज्ञान व अन्धविश्वास उत्पन्न हुए। ऋषियों के बनाये प्राचीन अनेक ग्रन्थों मनुस्मृति, बाल्मीकि रामायण, महाभारत आदि में प्रक्षेप किये गये। वेदों की मान्यताओं के विपरीत मान्यताओं से युक्त पुराण आदि ग्रन्थों की रचना मध्यकाल के समय में हुई। यज्ञों में पशुओं की हत्या व हिंसा होने लगी। इस कारण से बहुत से लोगों व आचार्यों ने ईश्वर व यज्ञ को मानना ही छोड़ दिया था तथा अपने अपने मत बना लिये थे। नये नये मत-मतान्तर बनने की जो प्रक्रिया आज से तीन चार हजार वर्ष पूर्व आरम्भ हुई थी वह निरन्तर चलती रही। देश विदेश में अनेक मत व वाद स्थापित हो गये। इन सबके कारण सामान्य लोगों को हिंसा का भी शिकार होना पड़ा। इनके कारण ही परस्पर मतभेद उत्पन्न हुए और युद्ध भी हुए। भारत में तो विधर्मियों ने नरसंहार तक किये। नारी जाति का अपमान किया। उनका धर्मान्तरण किया। मन्दिरों को तोड़ा तथा ज्ञान के भण्डार व संग्रहालयों को अग्नि को समर्पित कर दिया। सोमनाथ आदि मन्दिरों में विद्यमान हीरे, स्वर्ण, रत्न तथा धन सम्पदा आदि को लूटा। यह सब वेदों से दूर जाने व अविद्या के कारण हुआ था।

ऋषि दयानन्द ने इन सबका अध्ययन किया व इन स्थितियों को देखा व समझा था। वह ईश्वर उपासना, साधना तथा ध्यान आदि क्रियाओं से ईश्वर को प्राप्त हुए थे। गुरु विरजानन्द सरस्वती जी से वे वेदांगों का अध्ययन कर वेदज्ञ बने थे। उन्होंने समाज में प्रचलित व व्याप्त अन्धविश्वासों, हानिकारक मिथ्या सामाजिक परम्पराओं का भी अध्ययन कर उन्होंने जाना व समझा था। मत-मतान्तरों की अविद्या व उनके दुष्प्रभावों से भी वह अभिज्ञ थे। अतः मानवजाति के हित के लिये उन्होंने सत्यज्ञान वेदों व उसकी शिक्षाओं का प्रचार किया और मनुष्य की धर्म व संस्कृति के विषय में जो भी शंकायें व भ्रान्तियां हो सकती हैं, उन्हें दूर किया। उन्होंने वेदभाष्य सहित सत्यार्थप्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थ अविद्या व मत-मतान्तरों की मिथ्या शिक्षाओं को दूर करने के उद्देश्य से लिखे। असत्य को छोड़ना तथा सत्य का ग्रहण करना व कराना उनके जीवन का ध्येय वाक्य था। वह सबको उपासना में प्रवृत्त कर ईश्वर का साक्षात्कार कराना चाहते थे। स्वामी दयानन्द सच्चे ऋषि थे। महाभारत के बाद एक ऐसा वेदज्ञ मनुष्य उत्पन्न हुआ था जिसमें चारों वेदों के सभी मन्त्रों के सत्य वेदार्थ जिनसे मानवजाति का अधिकतम उपकार व पूर्ण हित होता है, किसी से किसी प्रकार का भेदभाव व अन्याय नहीं होता, उसका प्रचार करते हुए उसे जन जन तक पहुंचाने का कार्य किया।

करोड़ों व अरबों की जनसंख्या वाले विश्व में एक मनुष्य अधिक से अधिक जितना ज्ञान का प्रचार कर सकता है वह सब ऋषि दयानन्द ने किया। उनके प्रयासों से अविद्या दूर हुई और देश व समाज उन्नति को प्राप्त हुए। देश की आजादी का मूल मन्त्र‘स्वराज्य प्राप्ति’ भी उन्होंने ही दिया था। सभी अन्धविश्वासों, मिथ्या सामाजिक परम्पराओं, सभी भेदभावों व छुआछूत की बातों का भी उन्होंने सप्रमाण खण्डन व उनका उन्मूलन करने का प्रयास किया। वह पीड़ित व दलितों के सच्चे हितैषी थे। उन्होंने स्वादिष्ट पकवानों को छोड़कर श्रद्धा से प्रस्तुत एक दलित नाई की सूखी रोटी खाकर समाज को भेदभाव दूर करने का सन्देश दिया था। उनका बनाया आर्यसमाज संगठन संसार में एकमात्र ऐसा संगठन है जो वेद के सभी सत्यसिद्धान्तों को मानता है तथा जहां किसी मत, पंथ व सम्प्रदाय व वर्ग के बन्धुओं से किसी प्रकार का भेदभाव व ऊंच-नीच का व्यवहार नहीं किया जाता। छुआछूत का प्रश्न तो उत्पन्न ही नहीं होता। अतः आर्यसमाज एक आदर्श व श्रेष्ठ धार्मिक एवं सांस्कृतिक संस्था व वेद प्रचार आन्दोलन है। आर्यसमज के विचारों व सिद्धान्तों को अपनाकर ही विश्व का कल्याण हो सकता है। वेद विश्व के सभी मनुष्यों की सामूहिक सम्पत्ति है जिससे लोक कल्याण तथा परमार्थ के कार्य सिद्ध होते हैं। सबका वेदों पर समान अधिकार है। उसको अपनाने से ही मनुष्यों के सभी क्लेश दूर होंगे। ऐसा करके ही ऋषि दयानन्द का मिशन पूरा होगा। यही ईश्वर की भी भावना व अपेक्षा है। अतः सबको वेद एवं आर्यसमाज को अपनाना चाहिये।

सृष्टि के आदिकाल में आरम्भ ऋषि परम्परा महाभारत के बाद ऋषि जैमिनि पर टूट गई व समाप्त हो गई थी। महर्षि दयानन्द ने उसे अपने पुरुषार्थ, वैदुष्य तथा ऋषित्व को प्राप्त कर पुनः जीवित किया। उन्होंने वह सभी कार्य किये जो प्राचीन वैदिक काल में वेद ऋषि किया करते थे। उन्हीं कार्यों व सिद्धान्तों को अपने व्यक्तित्व में धारण कर उन्होंने अपने काल में वैदिक काल जैसा अपूर्व व आदर्श श्रेष्ठ सामाजिक वातावरण तैयार करने के लिये अथक प्रयास किया। ऋषि दयानन्द सच्चे वैदिक ऋषि थे। उनको सादर नमन है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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