मनुष्य का आदिम ज्ञान और भाषा-10
इस पुस्तक के उपक्रम से यह बात स्पष्ट हो रही है कि योरप के विचारवान लोग वर्तमान भौतिक उन्नति से संतुष्ट नही है, प्रख्यात मनुष्य की स्वाभाविक स्थिति की खोज में है। उन्होंने यह बात निश्चित कर ली है कि मनुष्य अपनी उत्पत्ति के समय स्वाभाविक स्थिति में था और सुखी था। परंतु वह स्वाभाविक स्थिति कैसी थी, ज्ञानयुक्त थी या ज्ञानहीन, इसका कोई प्रमाण नही मिलता। केवल अनुमान के सहारे कहा जाता है कि वह स्वाभाविक दशा थी, कुदरती हालत थी और सबका व्यवहार नेचर के अनुसार था। परंतु विचार करने से ज्ञात होता है कि मनुष्य के साथ कुदरत का वह संबंध नही है, जो उसका पशुओं के साथ है। इसलिए उसकी स्थिति बिलकुल ही नेचर के सहारे नही रह सकती। इसका कारण यही है कि मनुष्य पशु नही है, किंतु ज्ञानी जीव है। अत: उसको नेचर के बाहय अंश से कोई प्रेरणा नही मिल सकती। उसे तो नेचर के आंतरिक और बौद्घिक अंश से ही ज्ञान का स्पष्ट उपदेश होता है। तभी वह बुद्घिपूर्वक अपनी स्थिति बना सकता है और सुखी रह सकता है। इसीलिए आर्यों का विश्वास है कि आदि सृष्टि के समय अर्थात उत्पत्ति के साथ ही मनुष्य को परमात्मा की ओर से ज्ञान की प्रेरणा हुई। वही ज्ञान वेद है। परंतु वेदों की इतनी लंबी प्राचीनता पर, उसकी आदिमकालीनता पर एवं अपौरूषेयता पर अनेक विद्वानों का विश्वास नही है। वे कहते हैं कि वेदों में जिन ऐतिहासिक नामों का उल्लेख पाया जाता है और ज्योतिष संबंधी जिन घटनाओं के संकेत पाये जाते हैं, उनसे वेदों का समय मिश्र की सभ्यता से भी कम सिद्घ होता है। किंतु हम देखते हैं कि इस आरोप में कुछ भी दम नही है, क्योंकि वेदों में ऐतिहासिक अथवा ज्योतिष संबंधी किसी भी ऐसी घटना का उल्लेख नही है, जिससे कि वेदों की आदिमकालीनता पर यह आक्षेप किया जा सके।
मिश्र की सभ्यता
रही मिश्र की सभ्यता, वह तो बहुत ही अर्वाचीन है। हाम्र्सवर्थ हिस्ट्री ऑफ दि वल्र्ड में मिश्र की भूमि की उत्पत्ति के विषय में लिखा है कि मिश्र की जमीन प्रति एक सौ वर्ष में 5 इंच के हिसाब से नील नदी द्वारा मिट्टी एकत्रित करती है। इस समय तक मिट्टी का जो सबसे बड़ा स्तर एकत्रित हो पाया है उसकी मोटाई 26 फीट से 30 फीट तक है। अत: 25 फीट की औसत मानने से यह जमीन 6000 वर्षों में इतनी मोटी हो पाई होगी। किंतु उससे भी अधिक उसे 10000 वर्ष की मानना चाहिए। इसके पहिले वहां बिलकुल ही मैदान था और बुशमैनों की मान्यता है कि यहां जंगली मनुष्य रहते थे।….मिश्र का लिखित इतिहास वहां के प्रथम राजवंश से आरंभ होता है, जो ईस्वी पूर्व 5500 तक जाता है और छठे, बारहवें तथा अठारहवें राजवंश से मिल जाता है। इस लिखित इतिहास के पूर्व का समय नही कहा जा सकता कि वह और कितने समय पूर्व तक जाता है।
इसका मतलब यह है कि मिश्र की जमीन केवल 10000 वर्ष की पुरानी है और वहां की लिखित सभ्यता तो वहां के प्रथम राजवंश से ही आरंभ होती है जो केवल (5500+1929) 7429 वर्ष की ही प्राचीन सिद्घ होती है। इसके पूर्व का समय अंधकार में है। अत: वह वहां की सभ्यता का साधक है बाधक नही है। अतएव वहां की सभ्यता जो लिखित प्रमाणों से सिद्घ होती है वह 7429 वर्ष की प्राचीन है और हमें मान्य है। किंतु हम देखते हैं कि भारतीय आर्यों की लिखित सभ्यता इससे बहुत अधिक प्राचीन प्रमाणित होती है। क्योंकि सभी इतिहासप्रेमी जानते हैं कि भारत के अंतिम सम्राट राजा चंद्रगुप्त के दरबार में यूनान का राजूदत मेगस्थनीज रहा करता था और उसने राज्य के पुस्तकालय से एक वंशावली प्राप्त की थी जिसे उसने ग्रंथ में उद्धृत किया था। इसी प्रकार उस वंशावली को ओरायन ने भी लिखा था। इस वंशाबली के विषय में मेगस्थनीज ने लिखा है कि इसमें बकस के समय से अलेंकजेंडर चंद्रगुप्त के समय तक 154 राजाओं की गणना है। जिनके राज्यकाल की अवधि 6451 वर्ष तीन मास है। ओरायन इतना और कहता है कि इस अवधि में तीन बार प्रजासत्तात्मक राज्य भी स्थापित हुए थे। इस वर्णन को कई एक विद्वानों ने कुछ मतभेद के साथ अपने अपने गं्रथों में उद्धृत किया है। यह वर्णन सम्राट चंद्रगुप्त के समय का है। चंद्रगुप्त को हुए आज तक 2250 वर्ष हो चुके हैं। अतएव दोनों समयों को मिलाने से 8701 वर्ष होते हैं, जो मिश्र की सभ्यता से (8701-7429) 1272 वर्ष अधिक होते हैं। यदि मिश्र के पहले राजा से बारह सौ वर्ष पूर्व तक भी वहां की सभ्यता को मान लें, तो भी वह यहां की सभ्यता प्राचीन नही हो सकती। इसी तरह एक दूसरे ऐतिहासिक प्रमाण से भी आर्यों की लिखित सभ्यता 8000 वर्ष से भी अधिक प्राचीन सिद्घ होती है। इतिहास के पढऩे वाले जानते हैं कि ‘दविस्तान’ नामक लेख जो कश्मीर में मिले हैं, उन बेक्ट्रिया में राज्य करने वाले हिंदू राजाओं की नामावली लिखी है। यह नामावली सिकंदर तक 5600 वर्ष की होती है। इन राजाओं के लिए मिल महोदय ने लिखा है कि ये राजा निश्चय ही हिंदू थे। इससे भी मिश्र सभ्यता भारत की सभ्यता से प्राचीन सिद्घ न ही होती, किंतु वहां अर्वाचीन ही सिद्घ होती है।
ऊपर मेगस्थनीज द्वारा उद्धृत जिस वंशावली का जिक्र किया गया है, वह कितनी सही थी इसका अनुमान इसी तरह हो सकता है कि उसमें महीने तक भी दिए हुए हैं। इसके अतिरिक्त उसमें यहां चरितार्थ हुई तीन बार की प्रजासत्तात्मक सत्ताप्रणाली का भी वर्णन है, जिससे एक तो यह बात अच्छी तरह सिद्घ हो जाती है कि उस वंशावली के समस्त लोग इसी देश में हुए हैं। ऐसा नही है कि आर्यों के कहीं बाहर से आने का भी समय उसी में मिला हो। दूसरे प्रजा की तादाद जैसी उदार नीति का भी पता मिलता है, जिससे आर्यों की तत्कालीन उच्च सभ्यता में कोई शंका नही रह सकती। मिश्र की सभ्यता के लिए विद्वानों के हृदय में जो स्थान है, वह वहां के पिरामिडों और उनमें रखी हुई ममी (मुर्दों) ही कारण है। पर स्मरण रखना चाहिए कि उनकी इस सभ्यता में भी भारतीय आर्यों का सहयोग है। मिश्र के इन में जो नील का रंग लगा हुआ है और इन मुर्दों को गाडऩे में जो इमली की लकड़ी काम में लाई गयी है, वे दोनों के अर्थ वहां इसी देश से गये हैं। नील और इमली भारत के सिवाय संसार में और कहीं होती ही नहीं। इसीलिए नील को डगो कहते हैं, जिस का अर्थ भारतीय होता है और इमली को टेमेरिंड कहते हैं, जो ‘तमरेहिंद’ का अपभ्रंश है।
क्रमश: