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प्रमुख समाचार/संपादकीय

आज का चिंतन-02/04/2014

हम सब कर रहे हैं

आत्महत्या किश्तों-किश्तों में

– डॉ. दीपक आचार्य

9413306077

dr.deepakaacharya@gmail.com

  अपने जीवन के महत्त्व से अपरिचित होकर आजकल हम जो कुछ कर रहे हैं वह जीवन न होकर मृत्यु का मार्ग है जिस पर हम सारे के सारे बिना सोचे-समझे आँखें मूँद कर आगे बढ़ते ही चले जा रहे हैं। हमारे लिए कमाई और मौज का क्षणिक आनंद ऎसा आकर्षण बन बैठा है कि हमें पता भी नहीं चल रहा है कि हम धीरे-धीरे मौत के मुँह में जा रहे हैं जहाँ हमारे हाथों की लकीरों में सेहत और सुकून नहीं बल्कि किश्तों-किश्तों में आत्महत्या जरूर लिखी हुई है। जीवनचर्या और सामाजिक लोक व्यवहार को हम इतना भुला बैठे हैं कि हमें यही आकांक्षा हरदम होती है कि जहाँ भी देखें, वहाँ हम ही हम नज़र आएं,दूसरों की छाया भी हम सहजता से स्वीकार नहीं कर पाते हैं।  हम जो कुछ कर रहे हैं, उन तमाम गतिविधियों का विश्लेषण किया जाए तो साफ तौर पर यह निष्कर्ष सामने आएगा कि हमने किश्तों-किश्तों में अपनी आत्महत्या के तमाम इंतजाम कर लिये हैं और वह भी खुशी-खुशी। हमारी बुद्धि, विवेक और पुराने जमाने से चली आ रही सीख को हमने जाने किस आकर्षण, दुर्बुद्धि या अभीप्सा के मारे कsucideu_041112हीं गिरवी रख दिया है और वो सारी आदतें अपना ली हैं जो हमें मौत की दिशा में ले जा रही हैं।  आमतौर पर इसका अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता लेकिन अपनी बेशकीमती जिंदगी में थोड़े पल निकाल कर गंभीरता से सोचें तो आँखें अपने आप खुल जाएंगी। लेकिन वह भी तब जबकि हम अपने बारे में सोचने-समझने और कुछ करने का संकल्प ग्रहण करने की ईमानदार मानसिकता बनाएं। हमें बाहरी चकाचौंध, रूप के आकर्षणों और रसों की भीनी-भीनी मदमाती महक से फुरसत ही नहीं मिलती कि अपने बारे में कुछ पल निकाल सकेंं। वो जमाना चला गया जब इंसान की आयु शताधिक से लेकर हजारों सालों तक की होती थी और ऎसे में वह अपने आपको संवार कर बेहतर व्यक्तित्व बनाने, समाज और देश को कुछ देकर जाने और सदियों तक यादगार छाप छोड़ने के लिए पूरा समय पाता था और हर इंसान कुछ न कुछ बनकर निखरता और नाम कमाता था। आज इंसान की आयु है ही कितनी, तिस पर हम न मन-मस्तिष्क पर अपेक्षित ध्यान दे पा रहे हैं, न अपने शरीर पर। मानसिक उद्वेगों और शारीरिक विकारों ने आज के लगभग हर इंसान को बीमारियों का घर बना डाला है और ऎसी-ऎसी बीमारियों का प्रकोप हावी है जो पहले कभी नहीं सुनी गई। शरीर भी धर्म की तरह है जो उसकी रक्षा करता है, शरीर उसका ध्यान रखता है। हमने जीवनपद्धति के अनुशासन और मर्यादाओं को छोड़ दिया है और उन्मुक्त, स्वच्छन्द और व्यभिचारी जीवनपद्धति को अपना लिया है जहाँ हमें कुछ सूझ ही नहीं पड़ती है, जो और लोग करते हैं, हम भी नकलची बंदरों की तरह बिना सोचे-समझे करने लग जाते हैं। हमें इस बात की भी चिंता नहीं है कि कौनसी वस्तु हमारे शरीर के लिए उपयोगी है और कौनसी वज्र्य। एक इंसान ही ऎसी प्रजाति है जो चाहे जो खा-पी सकती है, चाहे जो कर सकती है, न दिन देखती है, न रात। हमारे जागरण से लेकर शयन तक सब कुछ रामभरोसे ही हो गया है। देर रात तक जगना, सूर्योदय के बाद उठना, खाने-पीने में पौष्टिकता और शरीर निर्माण के लिए उपयोगी तत्वों से भरे खाद्य और पेय पदार्थों की बजाय सिर्फ  जीभ के स्वाद और खान-पान सामगर््री की पैंकिंग पर आसक्त होकर अंधाधुंध उपयोग, बासी भोजन, यूरिया, ऊर्वरकों और रसायनों से पके फल, सब्जियों और अनाज का इस्तेमाल, पूरे शरीर और अंगों के लिए तेजाब की तरह काम करने वाले पेय पदार्थों का उपयोग, अभक्ष्य भक्षण, बेवक्त भोजन, जुगाली करते हुए गुटकों और तम्बाकू का आनंद पाना आदि सारे वे लक्षण हैं जो हमारे पूरे जीवन के लिए हानिकारक हैं। शरीर की ऊर्जाओं को दीर्घ काल तक चलाये रखने के लिए कर्मेन्दि्रयों का यथोचित और आवश्यकतानुसार उपयोग ही लिया जाना चाहिए लेकिन आज देखने, सुनने और बोलने के साथ ही फालतू का सोचने का जो भयावह शौक इंसान में देखा जा रहा है उससे लगता है कि कुछ साल बाद आज के युवाओं की आँखें,कान, मुँह और ताकत सब कुछ जवाब दे जाने वाली है क्योंकि विभिन्न उपकरणों के माध्यम से अपने अंगों का शोषण होने लगा है। यह बात आज किसी को समझ में नहीं आ पाएगी। आज सारे के सारे लोग पाश्चात्य झूठन में स्वाद तलाशकर मजे से अंधानुकरण कर रहे हैं, फैशन के महासागर में नंगे होकर नहा रहे हैं, मगर इनका आने वाला कल कैसा होगा, इसकी कल्पना भी रौंगटे खड़े कर देने वाली है। जीवन की मर्यादाओं और स्वास्थ्य के सूत्रों को दरकिनार कर जो लोग आधुनिक होने का दम भर रहे हैं, वह दिन दूर नहीं जब इनका दम-खम और बातें बेदम हो जाने वाली हैं और तब इन्हें अहसास होगा अपनी गलतियों का। हम सारे के सारे लोग मौत के मुँह में जा रहे हैं। हमारे सामने सुरसा की तरह मुँह फाड़े हजारों प्रलोभन और स्वाद हैं जो हमें अपनी ओर खींच रहे हैं। और हम हैं कि इनके आकर्षण के मारे उधर ही उधर भागते जा रहे हैं। यह और कुछ नहीं बल्कि सनातन सत्य है कि हम लोग किश्तों-किश्तों में आत्महत्या की ओर बढ़ रहे हैं और वह भी अत्यन्त प्रसन्नता और आनंद के साथ। ईश्वर हमारी रक्षा करे।

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