जिक्र और फिक्र उसी से

जिसका  उससे संबंध हो

– डॉ. दीपक आचार्य

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समय और पात्र का चयन जितना अच्छे से किया जाए, उतना कार्यसिद्धि और विचार सम्प्रेषण में मदद मिलती है। आमतौर पर जो बात हम कहना चाहते हैं उसका कोई अर्थ सामने नहीं आता। इसके दो ही कारण हैं। पहला यह कि जिसके सामने हमें बात कहनी चाहिए, उसके सामने नहीं कहते हुए उन लोगों के सामने परोस देते हैं जिनका उससे कोई संबंध नहीं होता।

कई बार पात्र को सही और सटीक हुआ करता है मगर जिस समय बात कही जाती है वह समय सही नहीं होता। कई मर्तबा ऎसा भी होता है बात का समय और पात्र दोनों उचित नहीं होते। इन सभी प्रकार की स्थितियों में हमारे सोचे हुए, कहे हुए और किए हुए सारे के सारे काम बिगड़ जाते हैं और फिर उनका कोई अर्थ ही नहीं रह जाता।

आमतौर पर हममें से काफी सारे लोगों का यही हाल है। हमारे कामों में सफलता नहीं मिल पाने के पीछे मूल कारण यही है कि हम लोग जब भी हमारा कोई काम होता है अथवा आ पड़ता है उस समय क्रोध या उद्विग्नता में जीते हुए सब कुछ भौं-भौं कर डालने को उताव2185905-girl-on-the-sunset-backgroundले रहते हैं और यह प्रयास करते हैं कि जितना जल्दी इस उबाल को बाहर फेंक दिया जाए, उतना अच्छा।

हम अक्सर क्रियावादी न होकर सदा-प्रतिक्रियावादी ही रहते हैं और यही कारण है कि हम कोई सा काम हो, ठण्डे दिमाग से सोचने की बजाय बिना सोचे-समझे उस पर प्रतिक्रिया करने लग जाते हैं, जैसे कि हम उस कार्य विशेष में खास महारथ हासिल किए हुए हों और बरसों को कोई तजुर्बा हो।

अक्सर लोग बेवक्त बेबात बतियाते रहते हैं और अपनी भड़ास परोसने के माध्यम ढूंढ़ते रहते हैं। हमेंं हर जगह उस किस्म के लोगों की तलाश बनी रहती है जो कि हमें सुने और सुनते ही रहें। निरन्तर बोलने और बकवास करने की बीमारी में हम यह भूल जाते हैं कि हम जो कुछ बोल रहे हैं उससे सामने वाले का कोई संबंध नहीं है और ऎसे में हमारा बोलना बेकार ही जा रहा है।

मगर हम आजकल इतने घोर प्रतिक्रियावादी हो चलें हैं कि हमें इसके अंजाम से कोई अर्थ नहीं है। थोड़ी सी बात सामने आ जाने पर बिना सोचे-समझे हम बोलना और प्रतिक्रिया व्यक्त करना आरंभ कर देते हैं।  घर-आँगन से लेकर मन्दिरों, चौराहों, सार्वजनिक कार्यक्रमों, बसों, रेलों और सभी स्थानों ऎसे बहसी और वहशी लोग आजकल आसानी से मिल ही जाते हैं।

हम सामने वालों के समक्ष अपना दुखड़ा या प्रतिक्रिया दिल खोलकर ऎसे परोस दिया करते हैं जैसे कि सामने वाला हमारा संकटमोचक या ईश्वर ही हो, और उसके सामने सब कुछ बेपरदा बयाँ कर देने से हमारी समस्याओं का हल होकर हमें सुकून मिलने ही लगेगा।

ऎसे में हममें से काफी लोग या तो तमाशबीन कहे जाते हैं या सीधे सरदर्द ।  हर इलाके में ऎसे खूब सारे सरदर्द हर मोड़ पर मिल जाते हैं जिनके बारे मेंं कहा जाता है कि ये अपने जीवन की हर घटना पर प्रतिक्रिया ऎसे ही व्यक्त करते हैं जैसे कि दुःखद घटनाओं के कोई सिद्ध कथावाचक या फिर माथाखाऊ।  ऎसे लोग अनचाहे ही एनासिन या सेरिडान जैसी दवाइयों के विज्ञापन के रूप में भी प्रसिद्ध हो ही जाते हैं।

अपने जीवन की कोई सी बात हो, समस्या हो या राय लेनी हो, उन लोगों से ही चर्चा करें जिनका उससे किसी न किसी प्रकार का कोई संबंध हो। ऎसा होने पर ही हमारे अपने लिए कोई न कोई मार्ग सूझने लगेगा या मार्गदर्शन मिल सकेगा।  तय हमें ही करना है कि हमें फालतू का बकवास करते हुए तमाशबीन होकर जीना है या फिर अपने लिए जीने की अच्छी राह पानी है।

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