मुर्दों से काम न लें

–  डॉ. दीपक आचार्य

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काम कोई सा हो, अपना हो या पराया। हर काम की पूर्णता के लिए जरूरी है जिन्दा लोगों की मौजूदगी। जो लोग जिन्दे हैं वे ही अच्छी तरह काम कर सकते हैं। हर काम की सफलता और पूर्णता के लिए यह जरूरी है कि हम तन और मन दोनों का सौ फीसदी साथ बनाए रखें।

इनमें से एक का भी संतुलन बिगड़ जाने पर बात बिगड़ने लगती है और कामों की सफलता संदिग्ध हो उठती है। शरीर और मन-मस्तिष्क, इनमें से किसी के भी थोड़ा सा बगावत कर देने पर किसी भी काम में न हमारा चित्त लगता है, न कोई काम करने की इच्छा होती है और न ही इन कामों को सफल बनाया जा सकता है।

आजकल दो तरह के काम चल रहे हैं। एक वे हैं जो कामचलाऊ हैं। इन कामों के लिए न परफेक्शन की जरूरत होती है न किसी अपेक्षाधिक बौद्धिक या शारीरिक श्रमWork_life_balance_rat_race की। जैसा हो रहा है वह श्रेष्ठ मानकर चलते हुए कार्य संपादन करना ही ध्येय होकर रह जाता है, काम की पूर्णता या आशातीत सफलता अथवा किसी श्रेय को पाने की कामना नहीं रहती, और न ही ऎसे कामचलाऊ काम किसी प्रकार का श्रेय दे पाते हैंं।

दूसरी प्रकार के काम ऎसे होते हैं जिनमें काम की पूर्णता व सफलता के साथ उसकी गुणवत्ता और उपयोगिता भी  जुड़ी होती है और ऎसे में यह जरूरी हो जाता है कि ऎसे जो भी काम हाथ मेंं लिए जाएं उन्हें पूरी दक्षता, ऊर्जाओं और प्रामाणिकताओं के साथ पूर्ण किया जाए।

आजकल उन लोगों की संख्या में कमी होती जा रही है जिनके लिए कर्म ही पूजा हुआ करती थी। अब कामों को जैसे-तैसे निपटाना हमारी प्राथमिकताओं में शुमार हो गया है।  हम चाहते हैं कि जो काम हमारे पास आए, वह किसी तरह निपट कर दूसरे के पाले में चला जाए, और हम इससे पूरी तरह बरी होकर मुक्ति का अहसास करते हुए अपने-अपने बाड़ों में बने रहें।  कामों को खो कर देने की मनोवृत्ति छोटे से लेकर बड़े लोगों तक पर हावी है।

सभी प्रकार के कामों को देखा जाए तो आजकल हम खूब सारे ऎसे लोगों को देखते हैं जिनमें न कामों को लेकर दक्षता है,  न रुचि। बल्कि कई सारे लोग ऎसे हैं जिनके दायित्व अलग हैं, शौक अलग हैं और काम करने के क्षेत्र अपने-अपने स्वार्थ, देश, काल व परिस्थितियों तथा लाभों के हिसाब से बदलते ही रहते हैं।

इन्हीं की एक किस्म ऎसी है जो कोई सा काम करते हैं, उस वक्त सिर्फ उनका शरीर ही हलचल करता रहता है जबकि उनका मन कहीं ओर लगा होता है या भटकता रहता है। ऎसे लोगों की भौतिक उपस्थिति ही वहां पर होती है, उनका चित्त वहाँ पर नहीं होता। सिर्फ स्थूल शरीर ही वहाँ विद्यमान रहता है।

ऎसे लोगों से किसी भी प्रकार की काम की उम्मीद नहीं की जा सकती है जो लोग कामों के प्रति मन लगा न पाएं या उनका चित्त कहीं ओर भटकता रहे। ये लोग जहां कहीं रहते हैं, हमेशा किसी न किसी उधेड़बुन में लगे रहते हैं। किसी को पैसों और धंधों का ख्याल सताता रहता है, किसी को पद और प्रतिष्ठा का, कोई किसी के संबंधों में खोया हुआ होता है, तो कई सारे किसी न किसी गोरखधंधे का ताना-बाना बुन रहे होते हैं।

इन स्थितियों में जिन लोगों का शरीर एक जगह हो, मन कहीं ओर भटक रहा हो या फिर अटकने लगा हो, ऎसे लोग अपने कर्मस्थल पर मुर्दों से कम नहीं हुआ करते। इन लोगों को कोई सा काम बताना मुर्दों से काम लेने जैसा ही है।

जिस किसी कर्म को आशातीत सफलता और उपलब्धियों की सुगंध से सुवासित करना चाहें, उस कर्म में ऎसे लोगों को ही शामिल करें जो कर्म के प्रति समर्पित, एकनिष्ठ और एकाग्र हों ताकि उनके माध्यम से कार्य संपादन और गुणवत्ता दोनों प्राप्त की जा सकें।

जहाँ कहीं ऎसे मुर्दाल लोग हों, उनसे काम लेने की बजाय उन्हें उपेक्षित करते हुए सिर्फ उन कर्मों में ही लगाए रखें जहाँ सिर्फ शारीरिक श्रम की जरूरत पड़ती है, ऎसे लोग इन्हीं कामों के लायक हैं, इनके भरोसे दूसरे काम कभी संभव नहीं। इन लोगों को दिहाड़ी मजूरों से ज्यादा समझना हमारी भूल ही है।

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