वेद वर्णित ईश्वर की न्याय व्यवस्था आज भी सर्वत्र प्रभावी है

ओ३म्

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
हमारा यह संसार स्वयं नहीं बना अपितु एक सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, अनादि, नित्य, न्यायकारी तथा दयालु सत्ता जिसे ईश्वर कहते हैं, के द्वारा बनाया गया है। इस संसार में एक त्रिगुणात्मक अर्थात् सत्व, रज तथा तम तीन गुणों वाली सूक्ष्म प्रकृति का अस्तित्व भी है जो प्रलयावस्था में सर्वत्र फैली व एक प्रकार से व्याप्त हुई रहती है। परमात्मा सर्वातिसूक्ष्म, सर्वव्यापक, एकरस व अखण्ड सत्ता है। परमात्मा प्रकृति एवं जीवों के भीतर व बाहर भी व्यापक रहता है। ईश्वर सर्वव्यापक सत्ता है तथा जीव व प्रकृति ईश्वर से व्याप्त सत्तायें हैं। परमात्मा अनादि काल से अनन्त बार जड़ता के गुणवाली प्रकृति से अनादि, नित्य व अविनाशी जीवों का कल्याण करने के लिए इस सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व अन्य ग्रहों आदि से युक्त सृष्टि व ब्रह्माण्ड की रचना करते व उसका पालन करते आ रहे हैं।

प्रकृति से इस सृष्टि की उत्पत्ति करना व उसका पालन करना ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कोई सत्ता नहीं कर सकती। मनुष्य बुद्धि से युक्त प्राणी है। उसने विश्व के अनेक वैज्ञानिक व खगोलीय रहस्यों की खोज की है परन्तु वह आज तक इस सृष्टि की रचयिता व पालक शक्ति को खोज नहीं पाया। ईश्वर की खोज करने की आवश्यकता भी नहीं है, उसको जानने की इच्छा करना तथा वेदादि शास्त्रों का अध्ययन करने से मनुष्य को ईश्वर सहित जीव व प्रकृति एवं जीव के जन्म-मरण व कर्तव्य आदि सभी बातों का विस्तृत व भ्रान्ति रहित ज्ञान हो जाता है।

परमात्मा ने इस सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को उत्पन्न करने के साथ उन्हें चार वेदों का ज्ञान उपलब्ध कराया था जिसमें ईश्वर, जीव व सृष्टि के पदार्थों का सत्य सत्य वर्णन करने सहित मनुष्य के भी जन्म से मृत्यु पर्यन्त तक के सब कर्तव्य कर्मों का विधान किया गया है। मनुष्य को जो कार्य नहीं करने चाहिये उनका दिग्दर्शन भी वेद व वैदिक साहित्य में हमारे वेदों के मर्मज्ञ ऋषियों ने कराया है। वेदों का अध्ययन करने पर मनुष्य पूर्ण ज्ञानवान बन जाता है। उसकी सभी शंकायें व भ्रान्तियां दूर हो जाती है। वह ईश्वर सहित आत्मा के यथार्थस्वरूप को जान लेता है और भ्रान्तिरहित होकर अन्य मनुष्यों का कल्याण करते हुए उनको उपदेश देकर उनका मार्गदर्शन करता है। सृष्टि के आरम्भ से ही ऐसा होता आया है। आज भी हम वेद व ऋषियों के बनाये वेदानुकूल ग्रन्थों से ही परमात्मा व आत्मा सहित इस सृष्टि व अपने कर्तव्य कर्मों का ज्ञान प्राप्त करते हैं और वेदाज्ञाओं का पालन करने से ही मनुष्य जीवन का कल्याण व उद्धार होता है। यह बात विचार, युक्ति व तर्कों से प्रमाणित व सत्य सिद्ध होती है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में इन सब विषयों पर प्रकाश डाला गया है। सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर मनुष्य सत्य व असत्य का निर्णय कर निभ्र्रान्त हो सकता है। सत्यार्थप्रकाश के समान महत्वपूर्ण पुस्तक संसार में अन्य नहीं है। सबको सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन कर अपने ज्ञान में वृद्धि करनी चाहिये तथा अपनी आत्मा व परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर अपने विवेक से उपासना एवं अन्य कार्यों को करना चाहिये। किसी अविद्यायुक्त मत-पन्थ में फंसकर अपना अमृत जीवन व्यर्थ नहीं करना चाहिये। इस तथ्य का प्रमाण मनुष्य को सत्यार्थप्रकाश सहित समस्त वैदिक साहित्य जिसमें वेद, उसके अंग-उपांग तथा उपनिषदें भी आती हैं, को पढ़कर प्राप्त हो जाता है। मनुष्य वेद की सभी शिक्षाओं व विषय वस्तु से पूर्ण सन्तुष्ट हो कर ऋषि दयानन्द के शब्दों में कह उठता है कि वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है एवं सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेदों का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना ही सब मनुष्यों व वेदानुयायी आर्यों व मनुष्यों का परम धर्म है।

वेद एवं वैदिक साहित्य में परमात्मा को न्यायकारी कहा गया है। ऋषि दयानन्द वेदों के मर्मज्ञ ऋषि थे। उन्होंने वेदों के आधार पर आर्यसमाज के दूसरे नियम की रचना की है। यह नियम है ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ इस नियम में परमात्मा का एक गुण व कार्य उसका न्यायकारी होना व न्याय करना बताया गया है। परमात्मा वस्तुतः सृष्टि के आरम्भ से वा अनादि काल से अनेकानेक बार सृष्टि को बनाकर ईश्वरेतर सभी जीवों को न्याय प्रदान कर रहा है। यह बात साधारण लोगों की समझ में नहीं आती परन्तु यह पूर्ण सत्य है। वेदों में परमात्मा के लिए अर्यमा शब्द का प्रयोग हुआ है। अर्यमा शब्द का अर्थ न्याय करना ही होता है। न्याय करते हुए वह मनुष्यों वा उनकी आत्माओं को शुभ व पुण्य कर्मों का फल सुख तथा अशुभ व पाप कर्मों का फल दुःख के रूप में कृत कर्म के स्वरूप व उचित मात्रा में प्रदान करते हैं। परमात्मा की न्याय व्यवस्था, मुनस्मृति के विधानों का अनुकरण कर व विचारों से जो उपयुक्त प्रतीत हुआ, उस न्याय व्यवस्था को देश देशान्तर में मनुष्यों ने बनाया है। परमात्मा का प्रथम कार्य तो अनन्त संख्या वाले सूक्ष्म जीवों के निवास व कल्याण के लिये इस सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व पृथिवी पर विद्यमान अग्नि, जल, वायु व आकाश को बनाना होता है। वही परमात्मा हमारी पांच ज्ञान इन्द्रियों के विषयों रूप, रस, गन्ध, शब्द तथा स्पर्श आदि अनेकानेक पदार्थों की रचना कर उसका नियमन करता है। सृष्टि में समस्त वनस्पतियों व ओषधियों को भी परमात्मा ही बनाता है। इनकी आवश्यकता जीवों के निवास व सुखी जीवन व्यतीत करने में होती है। मनुष्यों सहित सभी प्राणियों के शरीर भी परमात्मा ने ही बनाये हैं। मनुष्यों के शरीरों में जीवात्मा को भी परमात्मा ही स्थापित करता है। परमात्मा के बनाये विधान को हम जीव विज्ञान आदि विषयों को पढ़कर कुछ कुछ जान सकते हैं परन्तु इसका विशेष ज्ञान वैदिक साहित्य को पढ़कर ही होता है। जीवन में बहुत सी बातें होती हैं जो विज्ञान से नहीं जानी जा सकती, परन्तु वैदिक साहित्य व ऋषियों के वचनों से उनका ज्ञान होता है। परमात्मा ने ही इस सृष्टि को बना कर रात्रि, दिवस, महीने व वर्ष सहित पल, क्षण आदि समय व्यतीत होने व गणना का विधान किया है। संसार में इन कार्यों को अन्य कोई सत्ता नहीं कर सकती और यह सब कार्य बिना कर्ता के स्वमेव हो भी नहीं सकते। अतः इससे ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध होता है।

ईश्वर ने यह सब कार्य अपनी शाश्वत प्रजा ‘जीवों’ को सुख देने व उनका कल्याण करने के लिये किये हैं। ईश्वर के यह कार्य उसकी न्याय व्यवस्था से संचालित होते हैं। वह अनन्त सभी जीवों के मनुष्य योनि में किये गये शुभ व अशुभ भेद से किये जाने वाले सभी कर्मों का न्याय करते हुए उनके सुख व दुःख रूपी फल देता है। यदि वह ऐसा न करता तो फिर इस सृष्टि का कोई महत्व नहीं था। इसमें किसी प्रकार का नियम, विधान व व्यवस्था देखने को नहीं मिलती। ऐसा नहीं है, ईश्वर का प्रत्येक कार्य एक निश्चित विधान के अनुसार जो उसने बनाया है, सृष्टि का संचालन कर रहा है। परमात्मा सब जीवों को सुख देने के साथ उनका कल्याण करना चाहते हंै। वह अपनी ओर से कदापि किसी को दुःख नहीं देते मनुष्य व अन्य प्राणियों को जो भी दुःख आदि कष्ट प्राप्त होते हैं वह उनके कर्मों व आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक कारणों से प्राप्त होते हैं। परमात्मा मनुष्यों व प्राणियों को जो दुःख देता है उसका कारण उन जीवों का सुधार करना होता है जिससे वह असत्य व अन्यायरूप पाप के आचरण का त्याग कर सत्य व न्याययुक्त कर्मों को करें जिससे वह उन्नत मनुष्य योनि में जन्म लेकर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति को करने में सफल हो सकें। मोक्ष ही वह अवस्था होती है जिसमें जीवात्मा सभी प्रकार के दुःखों से सर्वथा मुक्त होकर तथा ईश्वर को प्राप्त व उसमें विद्यमान अक्षय सुख व आनन्द को प्राप्त हो जाता है और मोक्ष की अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक रहता है। अतः कर्म फल रहस्य को जानकर मनुष्यों को वेदादि ग्रन्थों के अध्ययन सहित वेद की शिक्षाओं के अनुरूप कर्म करने में अपना जीवन व्यतीत करना चाहिये जिससे वह दुःखों के कारण असत्य व अशुभ कर्मों को करना छोड़ कर दुःखों से बच सके और वैदिक मान्यताओं के अनुसार साधना, तप, परोपकार, यज्ञ, दूसरों की सेवा आदि कर्म करके मोक्ष के अधिकारी बन सकें।

परमात्मा के बनाये सूर्य, चन्द्र तथा पृथिवी उसके बनाये नियमों का पालन करते हुए गति कर रहे हैं। उसके विधान के अनुसार ही समय पर सूर्योदय व सूर्यास्त होता है तथा ऋतु परिवर्तन आदि हो रहे हैं। मनुष्य व अन्य प्राणियों का जन्म भी उसके कर्म फल विधान के अनुसार होता है और सभी अपनी अपनी आयु का भोग करते हैं जो परमात्मा जीव के पूर्वजन्मों के आधार पर निर्धारित करते हैं। यह ज्ञातव्य है कि हम जो कर्म करते हैं उसी के आधार पर हमारे अगले जन्म की जाति, आयु व भोग निर्धारित होते हैं। जाति का अर्थ यहां मनुष्य, पशु, पक्षी आदि जातियों से है। मनुष्य जाति एक ही जाति है। इसमें जन्मना जाति का जो भेद पाया जाता है वह कृत्रिम है और मनुष्यों द्वारा अपनी अज्ञानता से प्रचलित किया गया है। संसार में हम मनुष्य का जन्म व मृत्यु, जीवन में सुख व दुःख तथा सभी की कुछ समान व कुछ भिन्न परिस्थितियां देखते हैं। इसका कारण एक ही हो सकता है और वह है कि जीवों के पूर्वजन्म के कर्म। यदि कर्म न होते तो फिर जन्म व जीवन में भिन्नता के लिए ईश्वर पक्षपाती सिद्ध होता। पक्षपात करना साधारण अज्ञानी व अविवेकी मनुष्यों का काम होता है। परमात्मा सर्वज्ञ एवं पूर्ण ज्ञानी है। वह पक्षपात न तो करता है, न कर सकता है और न पक्षपात करने वालों पर कृपालु हो सकता है।

परमात्मा की कृपा व दया प्राप्त करने के लिये हमें भी उसके सभी गुण, कर्म व स्वभाव को जानकर मनुष्यों के पालन करने योग्य कर्मों का आश्रय लेना चाहिये व उनका आचरण करना चाहिये। वेद की आज्ञाओं का पालन कर ही हम स्वस्थ, सुखी, निरोग, उन्नत, सन्तुष्ट एवं कल्याण को प्राप्त हो सकते हैं। यह सत्य है कि ईश्वर पूर्ण न्यायकारी है। मनुष्य जो भी पाप व पुण्य करता है उसको परमात्मा की व्यवस्था से न्याय मिलता है। शुभ कर्मों का फल सुख तथा अशुभ कर्मों का फल दुःख होता है। कर्मों का फल जन्म व जन्मान्तर में भोगना पड़ता है। बिना कर्म का फल भोगे कर्म क्षय को प्राप्त नहीं होते। हम जो अनुचित व अनैतिक कार्य करते हैं उनसे हम संसारी न्याय व्यवस्था से भले ही बच जायें, परन्तु परमात्मा की व्यवस्था से कर्मों का फल भोगे बिना नहीं बच सकते। मनुष्येतर जितनी भी योनियां हैं वह सब भोग योनियां हैं। वहां वह मनुष्य जन्म में किये गये अशुभ व पाप कर्मों का फल ही भोग रहे हैं। जब उनका भोग समाप्त हो जायेगा तो पाप पुण्य समान व पुण्य अधिक होने पर उनका मनुष्य योनि में जन्म होगा। परमात्मा की कर्म फल व्यवस्था वेदों में वर्णित है जो आज भी अपने मूल स्वरूप के अनुसार संसार में विद्यमान व संचालित है। हमें ईश्वर की न्याय व्यवस्था से डरना चाहिये और कोई भी अशुभ कर्म नहीं करना चाहिये। इसी में हमारा कल्याण हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य

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