जिस प्रयोजन के लिए परमात्मा ने जीवन दिया है उसे करना ही धर्म एवं कर्तव्य है

ओ३म्

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मनुष्य जन्म लेता है परन्तु उसे यह पता नहीं होता कि उसके जन्म लेने व परमात्मा के जन्म देने का प्रयोजन किया है? जन्म के प्रयोजन का ज्ञान हमें वेदों सहित ऋषियों के दर्शन व उपनिषद आदि ग्रन्थों सहित ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं आर्य विद्वानों के ग्रन्थों से होता है। निष्कर्ष यह है कि ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति इस जगत् में तीन अनादि व नित्य सत्तायें हैं। यह सदा से हैं और सदा रहेंगी। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकर, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वन्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। वही सब मनुष्यों का उपासनीय एवं भक्ति करने योग्य है। वह परमात्मा सब जीवों को जन्म देने वाला तथा उनका पालन करने वाला है। हमारे जन्म का आधार हमारे अतीत के जन्मों के कर्म हुआ करते हैं। अपने कर्मों का फल भोगने के लिये ही हमें जन्म यह मनुष्य जन्म व अन्य योनियों में जन्म मिला करता है। मनुष्य जन्म में हम अपने कर्मों का भोग करते हुए ज्ञान प्राप्ति कर कर्मोपासना से मृत्यु से तर कर मोक्ष रूपी आनन्द की स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं। जन्म व मरण दोनों ही दुःख देने वाले होते हैं। इन से मुक्ति के लिये प्रयत्न करना व उसे प्राप्त करना ही हम मनुष्यों का प्रमुख कर्तव्य व धर्म होता है। इसी लिये हमारा मनुष्य जन्म हुआ है व होता है।

संसार में देखने को मिलता है कि मनुष्य जीवन भर अपने जीवन के उद्देश्य व सत्कर्तव्यों को भूला रहता है। उसे माता-पिता व आजकल के आधुनिक आचार्यों द्वारा उसके जीवन का वास्तविक उद्देश्य बताया ही नहीं जाता। उसे जो शिक्षा मिलती है वह यही होती है कि उसे पढ़ना है और एक बड़ा साधन सम्पन्न अधिकारी बन कर धन कमाना व समाज में सम्मानित स्थान प्राप्त करना है। धन प्राप्ति का उद्देश्य जीवन को वैभवपूर्ण व सुख सुविधाओं से युक्त करना होता है। बहुत से लोग इस कार्य में सफल भी होते हैं। वह पढ़ लिखकर बड़े-बड़े पदों पर आसीन हो जाते हैं, कुछ बड़े उद्यमी बन जाते हैं तो कुछ इंजीनियर, डाक्टर, वकील आदि बन जाते हैं और प्रभूत धन कमाते हैं। सारा जीवन धन कमाते हैं और उसे सुख सुविधाओं व रोगों के उपचार में व्यय करते हैं। कुछ कम आयु में और कुछ60 व 80-85 वर्ष की आयु में काल कवलित हो जाते हैं। असंख्य लोगों की यही जीवन कथा होती है। ईश्वर को वह या तो मानते ही नहीं या परम्परागत खाना पूर्ति करते हैं। ऐसे व्यक्तियों के पास शिक्षा विषयक उपाधियां तो बहुत होती होती हैं परन्तु इनको ईश्वर व आत्मा के यथार्थस्वरूप व गुण, कर्म व स्वभाव का ज्ञान नहीं होता। इनको यदि कोई बताना भी चाहे तो वह उस पर ध्यान नहीं देते। इनकी प्रवृत्ति ही भोग वा सुख भोगने में रहती है। सदुपदेश व स्वाध्याय तथा सत्संगों का सेवन का समय इनको प्राप्त नहीं होता। आजकल के जो सत्संग होते हैं उनमें भी अनेकानेक विषय होते हैं। उपदेशक अनेक विषयों को प्रस्तुत करते हैं परन्तु ईश्वर व आत्मा की सत्ता व मनुष्य के वेद विहित कर्तव्यों पर शायद ही कोई युक्तिसंगत प्रकाश डालता हो?

अधिकांश लोग वेदेतर मत-मतान्तरों में फंसे हैं। उनके आचार्य अपने अनुयायियों को वेदों में उपलब्ध तत्वज्ञान व यथार्थज्ञान जो कि सत्ज्ञान होता है, उसमें प्रेरित नहीं करते। उनके अपने मत की जो बातें व परम्परायें होती हैं, उतना जानना ही पर्याप्त माना जाता है। वह मानते हैं कि उतना ही जान करके वह सुख व स्वर्ग आदि को प्राप्त हो जायेंगे जबकि यह सब बातें अविद्या से युक्त होती हैं। बिना विद्या को प्राप्त हुए मनुष्य सत्कर्मों में प्रवृत्त नहीं होता। मनुष्य को वेदज्ञान, सच्चे उपदेशक व आचार्यों सहित ऋषियों के ग्रन्थों के स्वाध्याय की प्रवृत्ति होनी चाहिये। ऐसा करके ही सद्ज्ञान व विवेक को प्राप्त हुआ जा सकता है। जो मनुष्य ऐसा करते हैं और अपने समान गुण, कर्म व स्वभाव के लोगों को अपना मित्र बनातें हैं, उनका अनुगमन करते हैं वही मनुष्य सत्यधर्म व सत्याचरण को प्राप्त होते हैं। यह शिक्षा वेद, उपनिषद, दर्शन, विशुद्ध मनुस्मृति के अध्ययन सहित ऋषि दयानन्द जी के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय तथा उनके जीवन चरित का अध्ययन करने से मिलती है। इन ग्रन्थों के स्वाध्याय से आत्मा सन्तुष्ट व तृप्त होती है। स्वाध्याय करने वालों को वैदिक वचनों की सत्यता में विश्वास होता है तथा मत-मतान्तरों की शिक्षा की निर्बलता व विकृतियों का ज्ञान भी हो जाता है। इससे वह उनसे बाहर निकल जाते हैं और उनकी भावना होती है कि अज्ञान व अविद्या में फंसे हुए सभी मनुष्य विद्या को प्राप्त होकर सत्याचरण करते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को सिद्ध करें। सृष्टि के आरम्भ से हमारे सभी ज्ञानी पूर्वज, ऋषि-मुनि तथा विद्वान इसी शिक्षा को मानते व प्रचारित करते आये हैं। हमें भी अपने विद्वान पूर्वजों के मार्ग पर ही चलना चाहिये। ऐसा करके हम अपना व दूसरों का भला कर सकते हैं।

बहुत से लोग मानते हैं कि मरने के बाद जीवन व जन्म-मरण का सब खेल समाप्त हो जायेगा। यह बात सर्वथा असत्य एवं भ्रामक है। मृत्यु के बाद मनुष्य का शरीर अवश्य नष्ट हो जाता है परन्तु उसकी सनातन आत्मा शरीर छोड़कर दूसरे शरीर को धारण करने चली जाती है। परमात्मा ही जीवात्मा को पुराने रोगी व अशक्य शरीर से पृथक करते तथा नया जन्म व शरीर देते हैं। पुराना शरीर पुराने वस्त्रों के समान होता है। जिस प्रकार हम पुराने जर्जरित वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करने में प्रसन्नता अनुभव करते हैं उसी प्रकार से हमारी, मुख्यतः ज्ञानी जनों की, आत्मा भी पुराने जर्जरित शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण करने में ही सन्तुष्ट होती है। अतः मृत्यु के बाद आत्मा का खेल समाप्त नहीं होता अपितु पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार ही हमें नया जन्म व सुख-दुःख आदि मिलते हैं। हमने जो निन्दनीय पाप व अशुभ कर्म किये होते हैं उनका फल व दण्ड भोगना पड़ता है और जो शुभ, पुण्य व प्रशंसनीय कर्म किये होते हैं उनका भी सुखदायी फल हमें परमात्मा की व्यवस्था से मिलता है। यही व्यवस्था संसार में देखने को मिलती है। अतः मनुष्य को कर्म करते हुए उसके सत्य व असत्य होने तथा सत्य को करणीय व असत्य कर्म को अकरणीय मानकर व्यवहार व आचरण करना चाहिये। इसके लिये ही हमें शास्त्रों से मार्गदर्शन प्राप्त होता है। हम स्वाध्याय की प्रवृत्ति व आदत डालकर अपने जीवन को सजा व संवार सकते हैं। सत्ज्ञान व सत्कर्मों से ही मनुष्य जीवन सजता व संवरता है तथा इसके विपरीत अज्ञान व दुष्टकर्मों से जीवन बिगड़ता व दुःखों को प्राप्त होता है।

मनुष्य की सबसे बड़ी पूंजी वेद एवं ऋषियों के बनाये वेदानुकूल ग्रन्थ हैं। वेद ईश्वरकृत होने के करण स्वतः प्रमाण हैं। वेदों का ज्ञान सूर्य के समान प्रकाशमान तथा अन्धकार से रहित हैं। सूर्य की उपस्थिति में दीपकों का महत्व नहीं होता। अतः वेदों की उपस्थिति में मनुष्यों के बनाये दीपक समान ग्रन्थों का महत्व नहीं होता। वेदों के बाद महत्ता की दृष्टि से उपनिषद, दर्शन तथा मनुस्मृति सहित ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि आदि ग्रन्थों का सर्वोपरि स्थान है। इन ग्रन्थों का स्वाध्याय कर मनुष्य कुछ ही समय में ज्ञानी, विद्यावान तथा अपने कर्तव्य-कर्मों का ज्ञाता बन जाता है। स्वाध्याय से ज्ञान में वृद्धि तो होती ही है, इसके साथ ही असत्य व दुष्ट कर्मों में निवृत्ति, सत्कर्मों में प्रवृत्ति एवं उनके करने ईश्वर से प्रेरणा व बल की प्राप्त भी होती है। ऐसा करके ही मनुष्य असत्य मार्ग से दूर होकर सत्य मार्ग के पथिक बनते हैं। सभी मनुष्यों व मत-मतानतरों के अनुयायियों को अपने मत के सिद्धान्तों व परम्पराओं सहित वैदिक मत के सिद्धान्तों एवं परम्पराओं का अध्ययन करना चाहिये। विद्वानों से चर्चा एवं शंका समाधान करने चाहियें। इससे वह सत्य ज्ञान, सत्य कर्म व सत्य धर्म को प्राप्त हो सकते हैं और अपने जीवन को अविद्या से मुक्त कर अपने जीवन के उद्देश्य के अनुसार सन्मार्ग पर चलते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं। यही हम सबके लिये करणीय है।

जब तक हम मत-मतान्तरों की अविद्यायुक्त बातों में फंसे रहेंगे हमारा कल्याण होना सम्भव नहीं है। बिना ईश्वर का सत्य वेदज्ञान प्राप्त किये तथा सत्य विधि से उपासना कर उसमें सफलता प्राप्त किये किसी मनुष्य की उन्नति व मुक्ति नहीं होती। इस रहस्य को यदि मनुष्य जन्म लेकर नहीं जाना तो यह जीवन नष्ट ही कहा जायेगा और आगे मनुष्य जीवन मिलेगा या नहीं, इसकी भी कोई गारण्टी व विश्वास नहीं है। मनुष्य का पुनर्जन्म अवश्य ही होगा और वह जन्म मनुष्य की आत्मा को इस जन्म के कर्मों व ज्ञान आदि के अनुसार किये गये उपासना व यज्ञीय कार्यों के आधार पर होगा। अतः सन्मार्ग का चयन कर उस पर चलना ही सबके लिये हितकर एवं कल्याणप्रद है। मनुष्य को मनुष्य जन्म परमात्मा से विद्या प्राप्त कर ईश्वर को जानने, उपासना करने, देवयज्ञ अग्निहोत्र आदि परोपकार के कर्म करने आदि के लिये ही मिला है। इसी को करने से मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य ‘मोक्ष’ प्राप्त होता है। यही करणीय एवं प्राप्तव्य हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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