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खूनी राजनीति में लथपथ बंगाल का सच

अरविंद जयतिलक
पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और राज्य के अन्य शीर्ष नेताओं के काफिले पर पथराव और सुनियोजित हमला कुलमिलाकर राज्य में ध्वस्त हो चुकी कानून-व्यवस्था और बदतर हो चुकी सत्ता मशीनरी की दारुण स्थिति को ही रेखांकित करता है। उपर से दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि ममता बनर्जी और उनकी सरकार राज्य प्रशासन की चूक स्वीकारने और अपने उदंड कार्यकर्ताओं पर लगाम कसने के बजाए उल्टे इस घटना के लिए भारतीय जनता पार्टी की ही साजिश करार दे रही हंै। जिस अंदाज में ममता बनर्जी ने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के लिए कटु और अमर्यादित शब्दों का इस्तेमाल किया है वह राज्य की उदार संस्कृति, मूल्य, परंपरा और विचारों के आदान-प्रदान का अपमान है। उनकी इस अमर्यादित भाषा से तो यहीं ध्वनित होता है कि वह विधानसभा चुनाव से पहले राज्य के सियासी माहौल को विषाक्त और रक्तरंजित बना देना चाहती हैं।

शायद यहीं कारण है कि वह अपने कार्यकर्ताओं के अराजक कृत्यों पर लगाम कसने के बजाए उल्टे उनका बचाव कर उन्हें प्रोत्साहित कर रही हैं। यह उचित नहीं है। इससे लोकतंत्र की नींव कमजोर और लहूलुहान होती है। लोकमंगल और जनमत की भावना को ठेस पहुंचती है। गौर करें तो यह पहली बार नहीं है जब ममता सरकार के दौरान भाजपा के शीर्ष नेताओं के काफिले और रोड शो पर पथराव और हमला हुआ हो। याद होगा 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह जब बंगाल में रोड शो कर रहे थे तब भी उनके काफिले पर पत्थरबाजी हुई थी। तब भी ममता सरकार ने अपनी राज्य मशीनरी का बचाव करते हुए इसे भाजपा की साजिश करार दिया था। याद होगा उस समय घाटल सीट से भाजपा उम्मीदवार और पूर्व आइपीएस अधिकारी भारती घोष पर भी तृणमूल के कार्यकर्ताओं ने जानलेवा हमला बोला था। लेकिन तमाशा कहा जाएगा कि ममता सरकार ने एक भी कार्यकर्ता के खिलाफ कार्रवाई नहीं की। गौर करें तो पिछले कुछ वर्षों में राज्य में भाजपा के एक सैकड़ा से अधिक कार्यकर्ता मारे जा चुके हंै। राज्य में कानून व्यवस्था किस कदर बिगड़ चुकी है इसी से समझा जा सकता है कि उत्तरी दिनाजपुर की आरक्षित सीट हेमताबाद से भाजपा विधायक देबेंद्र नाथ रे की हत्या कर उनके शव को फंदे से लटका दिया गया। ममता सरकार द्वारा अपराधियों की धरपकड़ करने के बजाए इसे खुदकुशी करार दे दिया गया। बंगाल के मौजूदा सियासी अराजक हालात को देखते हुए तो अब ऐसा लगने लगा है मानों सत्ताधारी तृणमूल कांगे्रस ने अपने कार्यकर्ताओं को चुनाव जीतने के लिए किसी भी हद तक जाने की छूट दे दी है। अन्यथा क्या मजाल की सत्ता मशीनरी सतर्क रहे और विपक्षी दलों के काफिले पर हमला हो। देश के अन्य राज्यों में भी चुनाव होते हैं। लेकिन कहीं कहीं भी इस तरह की अराजकता और विपक्षी नेताओं को निशाना बनाने का दृश्य देखने को नहीं मिलता। लेकिन बंगाल की बात करें तो यहां जब भी चुनाव आते हैं हिंसक माहौल निर्मित होना प्रारंभ हो जाता है। 2011 में जब ममता बनर्जी सत्ता में आयी तो लगा कि शायद यहां शांति और भाईचारे के बीज प्रस्फुटित होंगे। ममता ने वादा भी किया कि वे एक नई किस्म की राजनीति की शुरुआत करेंगी। लेकिन यह भ्रम शीध्र टूट गया। तृणमूल सरकार ने वामदलों की तर्ज पर तुष्टीकरण की नीति अपनाते हुए अपने कार्यकर्ताओं को हिंसक कृत्यों के लिए उकसाना शुरु कर दिया। हद तो तब हो गयी जब हिंसक कार्यकर्ताओं को पुलिस और प्रशासन का भी संरक्षण मिलने लगा। पिछले कुछ वर्षों में विरोधी दलों के सैकड़ों नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्या इसका जीता जागता सबूत है। दुर्भाग्यपूर्ण यह कि हत्यारें सलाखों से बाहर हैं और जनता भयभीत है। बंगाल के नागरिकों की मानें तो विधि-शासन में तृणमूल कांग्रेस का हस्तक्षेप ही राजनीतिक और चुनावी हिंसा के लिए जिम्मेदार है। लोगों का कहना है कि तृणमूल कार्यकर्ताओं के मन में कानून को लेकर तनिक भी भय नहीं है। सच कहें तो इस स्थिति ने ही तृणमूल कांगे्रस और वामपंथ के फर्क को मिटा दिया है। जिस वामपंथ का सिद्धांत रहा कि सत्ता बंदूक की नली से होकर गुजरती है, उस सिद्धांत पर अमल करते हुए ममता बनर्जी की सरकार ने भी सत्ता को बंदूक की नली से गुजार रही हैं। शायद ममता बनर्जी और उनकी पार्टी 2021 में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में अपनी संभावित हार को भांप गयी है। दरअसल उनका यह डर अनायास नहीं है। गौर करें तो 2019 के आमचुनाव में भारतीय जनता पार्टी को अपार जनसमर्थन मिला। वह राज्य की 42 लोकसभा सीटों में से 18 सीटों पर कब्जा करने में कामयाब रही। इतना ही उसने 40 फीसदी वोट भी हासिल कर 121 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त भी बनायी। संभवतः इससे डरी-सहमी तृणमूल कांग्रेस इस निष्कर्ष पर है कि अगर हालात ऐसे ही रहे तो फिर 2021 में उसके हाथ से सत्ता का सरकना तय है। दूसरी ओर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भी ममता सरकार घिरी हुई है। जिस तरह ममता बनर्जी और उनकी सरकार ने शारदा चिटफंड घोटाले की जांच में सीबीआइ का सहयोग करने के बजाए भ्रष्टाचारियों के पक्ष में खड़ी हुई उससे जनता के बीच यहीं संदेश गया कि वह भ्रष्टाचारियों को बचा रही हैं। देखा भी गया कि ममता सरकार के इशारे पर कोलकाता पुलिस ने सीबीआइ अधिकारियों के साथ बदसलूकी की और उन्हें थाने पर बिठाया। याद होगा तब ममता सरकार ने कोलकाता पुलिस आयुक्त राजीव कुमार से पूछताछ तक नहीं होने दी। भला एक राज्य में कानून-व्यवस्था की दृष्टि से इससे अधिक असहज स्थिति क्या हो सकती है। इस घटना से देश और राज्य की जनता अच्छी तरह समझ चुकी है कि पश्चिम बंगाल की पुलिस अपना उत्तरदायित्व निभाने के बजाए तृणमूल कांग्रेस के काॅडर के रुप में काम कर रही है। ममता बनर्जी के डर की एक वजह यह भी है कि उनकी पार्टी में अंदरुनी कलह चरम पर पहुंच चुका है। पार्टी के शीर्ष और कद्दावर नेताओं का ममता बनर्जी से मोहभंग हो रहा है। अब तक दर्जनों नेता इस्तीफा दे चुके हैं और कहा जा रहा है कि चुनाव आते-आते कई और विधायकों और मंत्रियों का इस्तीफा हो सकता है। ममता के लिए चिंता की बात यह है कि इस्तीफा दे रहे मंत्री-विधायक भाजपा की शरण में जा रहे हंै। इस नाते भी ममता बनर्जी बौखलाई हुई हैं। देखें तो आज की तारीख में बंगाल की सियासी भूमि भाजपा के लिए अनुकूल और उर्वर बन रही है। समाज के सभी वर्गों में उसका जनाधार बढ़ रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं अन्य शीर्ष नेताओं ने अपनी रैलियों और रोड शो के जरिए भाजपा के पक्ष में सकारात्मक माहौल निर्मित कर दिया है। संभवतः इसी चिढ़ की वजह से ममता बनर्जी मर्यादा की सारी हदें पार कर रही हैं। देखा भी गया कि लोकसभा चुनाव के दौरान ममता बनर्जी ने किस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तल्ख टिप्पणियां की। उन्होंने कभी प्रधानमंत्री को मिट्टी-कंकड़ से बनी मिठाई खिलाने की बात कही तो कभी उन्हें थप्पड़ लगाने की हुंकार भरी। हद तो तब हो गयी है जब उन्होंने संवैधानिक पदों पर आसीन राज्यपाल पर भी फब्तियां कसने से नहीं चूकी। याद होगा उन्होंने राज्य के उत्तरी चैबीस परगना में फेसबुक से फैले तनाव के लिए जिम्मेदार गुनाहगारों पर कार्रवाई करने के बजाए राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी को निशाने पर लिया। उन्होंने कहा था कि टेलीफोन पर बातचीत के दौरान राज्यपाल उनसे ऐसे बर्ताव कर रहे थे मानों वे भाजपा के ब्लाॅक प्रमुख हों। उनके एक अन्य नेता डेरेक ओ ब्रायन ने तो यहां तक कह डाला कि पश्चिम बंगाल में राजभवन आरएसएस के शाखा के रुप में तब्दील हो चुका है। गौर करें तो इस तरह की भाषा और आरोपों के जरिए ममता बनर्जी और उनकी पार्टी के नेता अपनी तो फजीहत करा रहे हैं साथ ही लोकतंत्र की गरिमा को भी धूल-धुसरित कर रहे हैं। इस तरह का दृश्य यहीं रेखांकित करता है कि राज्य में एक निर्वाचित लोकतांत्रिक सरकार नहीं बल्कि एक तानाशाह की सरकार है।

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