कृषि कानूनों का विरोध है या मोदी का विरोध है

 

अजय कुमार

किसानों को इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि वह विपक्ष की भाषा बोलने या उनका मोहरा बनने की बजाए अपने हितों का ध्यान रखें। किसानों को ध्यान रखना होगा कि उनके आंदोलन के चलते आम जनता को कोई परेशानी या उसके मौलिक अधिकारों का हनन न हो।

नया कृषि कानून खारिज करने की जिद पर अड़े आंदोलकारी किसान अब अपने बुने जाल में फंसते जा रहे हैं। यही वजह है कि मुट्ठी भर मोदी विरोधी विपक्ष को छोड़कर जो लोग कल तक किसानों के साथ खड़े नजर आ रहे थे, वह अब इस बात से आश्चर्यचकित हैं कि जब मोदी सरकार ने किसानों की तमाम मांगें मानने के साथ कई मुद्दों पर स्पष्टीकरण दे दिया है तो फिर कृषि कानून वापस लिए जाने की बात क्यों उठाई जा रही है।

आंदोलनकारी किसानों को यह नहीं भूलना चाहिए कि वह न तो देश के 80-90 करोड़ किसानों का प्रतिनिधित्व करते हैं, न ही वह सड़क, चक्का या रेल मार्ग जाम करके आम जनता के लिए मुसीबत खड़ी करने का हक रखते हैं। आंदोलनकारी किसान यदि किसानों की समस्याओं और उनके हक की ही आवाज उठा रहे होते तो राजस्थान पंचायत चुनाव जिसे किसानों और गांव का चुनाव माना जाता है के नतीजे कुछ और होते। राजस्थान पंचायत चुनाव में जहां कांग्रेस की सरकार है, वहां से भारतीय जनता पार्टी की शानदार जीत और कांग्रेस को करारी हार यह बताने के लिए काफी है कि सभी किसान नये कषि कानून से परेशान नहीं हैं। राजस्थान के किसानों ने पंचायत चुनाव में बीजेपी के पक्ष में जबरदस्त मतदान करके आंदोलनकारी किसानों को आइना दिखाने का काम किया है। यह बात जितनी जल्दी आंदोलनकारी समझ जाएंगे उतना अच्छा होगा। आंदोलनकारी किसानों के बीच नये कानून को लेकर अभी भी कोई दुविधा है तो वह इसे सरकार से बातचीत करके ही दूर कर सकते हैं। 14 दिसंबर को आंदोलनकारी किसानों ने टोल प्लाजा खोलने सहित मॉल, रिलायंस के पंप, भाजपा नेताओं के दफ्तर और घरों के आगे धरना देने की घोषणा करके बात बनाने की बजाए बिगाड़ने का काम किया है।

किसानों को इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि वह विपक्ष की भाषा बोलने या उनका मोहरा बनने की बजाए अपने हितों का ध्यान रखें। किसानों को इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि उनके आंदोलन के चलते आम जनता को कोई परेशानी या उसके मौलिक अधिकारों का हनन न हो। बात किसानों के हित की कि जाए तो इससे पूर्व नये कृषि कानून के खिलाफ किसानों के ‘भारत बंद’ में मोदी विरोधी नेताओं ने जर्बदस्ती कूद कर अपनी सियासत भले चमका ली हो, लेकिन इससे किसानों का भला कुछ नहीं हुआ, उलटा किसानों का उनके नेताओं की हठधर्मी के चलते नुकसान होता साफ दिख रहा है। जो मोदी सरकार ‘भारत बंद’ से पूर्व तक किसानों की मांगों को लेकर गंभीर थी, अब उसी सरकार के कई नुमांइदे यह कहने से चूक नहीं रहे हैं कि यह किसानों का नहीं, विपक्ष का राजनैतिक बंद था। किसान तो विपक्ष की सियासत का मोहरा बन गए। यह हकीकत भी है। किसान लगातार कोशिश कर रहे थे कि उनके आंदोलन पर ‘सियासी रंग’ न चढ़ पाए, इसीलिए किसान नेता लगातार उनके आंदोलन को समर्थन कर रहे तमाम राजनैतिक दलों को आइना दिखा रहे थे कि किसानों के आंदोलन या फिर ‘भारत बंद के दौरान किसी भी राजनैतिक दल का कोई भी नेता या कार्यकर्ता पार्टी के झंडे-बैनर लेकर आंदोलन में शिरकत नहीं करेगा, लेकिन ‘चतुर भेड़िए’ की तरह कांग्रेसी, सपाई, बसपाई, वामपंथी, आकाली दल आदि पार्टी के नेतागण न सिर्फ किसान आंदोलन में कूदे बल्कि किसानों के आंदोलन को पूरी तरह से ‘हाईजैक’ भी कर लिया। जगह-जगह तमाम दलों के नेता और कार्यकर्ता अपने झंडे-बैनरों के साथ अपनी सियासत चमकाने के लिए सड़क से लेकर रेल पटरियों तक पर नजर आ रहे थे। इसमें से तमाम नेता और दल ऐसे थे जिनकी सियासी जमीन पूरी तरह से खिसक चुकी है और यह लोग समय-समय पर दूसरों के मंच और आंदोलन को हथियाने की साजिश रचते ही रहते हैं। अभी यह किसानों के साथ हुआ है। इससे पूर्व नागरिकता संशोधन कानून हो या फिर एक बार में तीन तलाक अथवा कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने आदि का मसला सब जगह मोदी विरोधी नेता दूसरे का मंच हड़पने में लगे दिखाई दिए थे।

आश्चर्य होता है कि तमाम राजनैतिक दल और उनके नेता सकरात्मक राजनीति करने की बजाए हर उस मुददे को हवा देने में लग जाते हैं जिससे मोदी सरकार असहज हो सकती है। वर्ना कोई कारण नहीं था जिस कृषि कानून में बदलाव के लिए कांग्रेस के गठबंधन वाली मनमोहन सरकार से लेकर शरद पवार, मुलायम सिंह यादव, अकाली दल, राष्ट्रीय जनता दल, आम आदमी पार्टी हामी भर रहे थे, वह आज मौकापरस्ती की सियासत में उलझ कर इस कानून की मुखालफत करने में लग गए हैं। किसानों को भड़का रहे हैं कि वह मोदी सरकार पर नया कृषि कानून वापस लेने के लए दबाव बनाए, जिसके लिए मोदी सरकार कभी तैयार नहीं होगी और विपक्ष इसी का फायदा उठाने की साजिश रच रहा है।

बहरहाल, मौजूदा हालात में किसानों के लिए यह जरूरी हो गया है कि वह सियासत में फंसने की बजाए अपने दूरगामी हितों की रक्षा को अधिक प्राथमिकता दें। हठ से काम नहीं चलने वाला है। किसान नेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी क्षेत्र में किए जाने वाले सुधार प्रारंभ में कुछ कठिनाइयां जरूर पैदा करते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि किसी भी क्षेत्र में सुधार प्रक्रिया को ही ठप कर दिया जाए। आखिर यह कौन-सी बात हुई की किसान कृषि कानून की खामियों को दूर करने की बजाए इसको पूरी तरह से वापस लिए जाने की हठधर्मी करने लगें। किसान और उनके नेता जितनी जल्दी यह बात समझ जाएंगे कि मोदी विरोधी नेता और दल उनको समर्थन के नाम पर उनकी (किसानों की) पीठ में छुरा भोंकने का काम कर रहे हैं, उतना उनके लिए अच्छा होगा। आश्चर्य होता है कि किसानों को अपनी मांगें सरकार के सामने रखने के लिए योगेन्द्र यादव जैसे तथाकथित किसान नेताओं का सहारा लेना पड़ता है जिनका वजूद ही मोदी विरोध पर ही टिका है। किसानों को इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि नये कषि कानून को लेकर पंजाब और हरियाणा के ही किसान क्यों ज्यादा उद्वेलित हैं।

पिछले कुछ वर्षो का रिकार्ड उठाकर देखा जाए तो पंजाब में किसानों को लेकर जिस तरह की सियासत होती है, उसी के चलते कभी खेतीबाड़ी से समृद्धि के मामले में देश में अग्रणी रहने वाला पंजाब का किसान आज की तारीख में अन्य राज्यों के किसानों के मुकाबले पिछड़ता जा रहा है। कई राज्यों के किसानों की औसत आय पंजाब के किसानों से कहीं अच्छी हो गई है। वैसे हकीकत यह भी है कि पिछले कु़छ दिनों में मोदी सरकार ने जिस तरह से नये कृषि कानून को लेकर किसानों में जागरूकता फैलाने की मुहिम शुरू की थी, उसके चलते बड़ी संख्या में किसानों की आंखों के सामने से झूठ का पर्दा हटने लगा है। किसानों की आंखें धीरे-धीरे खुलने लगी है। उधर, किसानों से जबरन कराए गए ‘भारत बंद’ की विफलता के बाद किसान हितों की आड़ में अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे दलों को भी इस बात का आभास हो गया है कि जनता ही नहीं पूरी तरह से किसान भी उनके बहकावे में नहीं आए। इसीलिए तो भारत बंद के दौरान हरियाणा के कैथल जिले में किसानों के बीच पहुंचे कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव रणदीप सुरजेवाला को किसानों के जबर्दस्त विरोध के चलते वहां से बैरंग लौटना पड़ गया। इससे पूर्व सुरजेवाला स्वयं ही वहां पहुंच कर धरना दे रहे किसानों के बीच बैठ गए थे, लेकिन किसानों को यह नागवार गुजरा। विशेष तौर पर युवाओं ने रणदीप सिंह सुरजेवाला से भी सवाल-जवाब शुरू कर दिए। थोड़ी ही देर में हंगामा होने लगा और किसानों ने रणदीप सुरजेवाला के खिलाफ नारेबाजी शुरू कर दी। कुछ देर तो सुरजेवाला किसानों के बीच जमीन पर ही बैठे रहे, लेकिन जब वे उठे तो हालात बेकाबू हो गए और उन्हें बेहद मुश्किल से वहां से बचाकर निकाला गया।

आखिर कांग्रेस का यह कौन-सा तर्क है कि मोदी सरकार नए कृषि कानूनों को रद कर नए सिरे से कानून बनाए। क्या इसका यही मतलब नहीं हुआ कि एक तरफ तो कांग्रेस कृषि सुधारों की आवश्यकता महसूस कर रही है दूसरी ओर वह सियासी फायदा उठाने का मौका भी नहीं छोड़ना चाहती है। कांग्रेस यदि कृषि कानून में बदलाव नहीं करना चाहती है तो उसने बीते लोकसभा चुनाव के घोषणा पत्र में कृषि कानून में सुधार की बात क्यों कही थी? कांग्रेस को मोदी सरकार के सूत्रों से आ रहे उन दावों की भी हकीकत बतानी चाहिए जिसमें कहा जा रहा है कि मोदी सरकार द्वारा लाए गए कृषि कानून में कांग्रेस कार्यकाल के दौरान की एक समिति के सुधार उपाय शामिल किए गये हैं। इस समिति की अध्यक्षता हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने की थी जो आज विपक्ष में रहते कृषि कानून की मुखालफत करने में लगे हैं। बेहतर हो कि किसान संगठन कांग्रेस, राकांपा और तृणमूल कांग्रेस सरीखे मौकापरस्त दलों के असली चेहरे की पहचान करें और यह समझें कि इन दलों का उद्देश्य उनकी आंखों में धूल झोंकना ही है। यदि नए कृषि कानूनों में कहीं कोई खामी है तो उस पर बात करने में हर्ज नहीं। खुद सरकार भी इसके लिए तैयार है, लेकिन इसका कोई तुक नहीं कि कृषि कानूनों को रद करने की बात की जाए। इस तरह की बातें कुल मिलाकर किसानों का अहित ही करेंगी, क्योंकि खुद किसान भी यह अच्छी तरह जान रहे हैं कि पुरानी व्यवस्था को अधिक दिनों तक नहीं ढोया जा सकता है। उचित यह होगा कि किसान संगठन कांग्रेस सरीखे तमाम दलों से पल्ला झाड़ कर अपने हितों की चिंता करें और इस क्रम में यह देखें कि किसी भी क्षेत्र में सुधार एक सतत प्रक्रिया का हिस्सा होते हैं और समय के साथ व्यवस्था सही आकार लेती है। विभिन्न क्षेत्रों में किए गए आर्थिक सुधार यही बयान भी कर रहे हैं। किसानों को अपने हितों की चिंता करते समय इस पर भी गौर करना होगा कि उन्हें अपने दूरगामी हितों की रक्षा को अधिक प्राथमिकता देनी होगी। किसी भी क्षेत्र में किए जाने वाले सुधार प्रारंभ में कुछ कठिनाइयों को जन्म देते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सुधारों को अपनाने से बचा जाए और अप्रासंगिक नियम-कानूनों और तौर-तरीकों को बनाए रखने की जिद पकड़ ली जाए।

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