टंट्या भील जिसने प्रभावित किया था तात्या टोपे को

 

*✍️ आज की कहानी है एक ऐसे वीर की जिन्होंने अपनी वीरता और अदम्य साहस की बदौलत तांत्या टोपे को प्रभावित किया।* जिसके बाद तांत्या टोपे ने उन्हें गुरिल्ला युद्ध में पारंगत बनाया। ततपश्चात वो वीर अंग्रेजों के शोषण तथा विदेशी हस्तक्षेप के खिलाफ उठ खड़े हुए, देखते ही देखते वे गरीब आदिवासियों के मसीहा बनकर उभरे। वे निर्भिक होकर अंग्रेजों को लूटते थे और गरीबों की भूख मिटाते थे। हम बात कर रहे है इंडियन रॉबिनहुड के नाम से पहचाने जाने वाले टंट्या भील की।जो देश की आजादी के वीर सिपाही और आदिवासियों के सबसे प्रमुख नायक बनकर उभरे। टंट्या भील ने गरीबी-अमीरी का भेद हटाने के लिए हर स्तर पर प्रयास किए, जिससे वे छोटे-बड़े सभी के मामा के रूप में भी जाने जाने लगे। इतिहासकार लिखते हैं कि टंट्या भील के समय, मामा संबोधन इतना लोकप्रिय हो गया कि प्रत्येक भील आज भी अपने आपको मामा कहलाने में गौरव का अनुभव करते हैं।

*✍️ कौन थे टंट्या भील*

टंट्या भील का जन्म तत्कालीन सीपी प्रांत के पूर्व निमाड़ (खंडवा) जिले की पंधाना तहसील के बडदा गांव में सन 1842 में हुआ था। टंट्या के पिता माऊ सिंग और माँ (उनकी माता का नाम ज्ञात नहीं है) ने बचपन में नवगजा पीर के दहलीज पर कसम लेकर कहा था कि उनका बेटा अपनी भील जाति की बहन, बेटियों, बहुओं के अपमान का बदला अवश्य लेगा। दुर्भाग्यवश टंट्या की माँ बचपन में उन्हें अकेला छोड़कर स्वर्ग सिधार गई। पिता भाऊसिंह ने बच्चे के लालन-पालन के लिए दूसरी शादी भी नहीं की, क्यों कि उन्हें लगा कि सौतेली माँ टंट्या को वो प्रेम नहीं देगी जिसके वो हकदार हैं। पिता ने ही टंट्या को लाठी-गोफन व तीर-कमान चलाने का प्रशिक्षण दिया। इसके बाद टंट्या ने धर्नुविद्या में दक्षता हासिल कर ली, लाठी चलाने और गोफन कला में भी महारत प्राप्त कर ली। युवावस्था आते-आते उन्हें पारिवारिक बंधनों में बांध दिया गया।कागजबाई नाम की युवती से उनका विवाह कराकर पिता ने खेती-बाड़ी की जिम्मेदारी उसे सौप दी। समय बीत रहा था, इस बीच टंट्या की आयु तीस बरस की हो चली थी, वह गाँव में सबके दुलारे बन गए थे, युवाओं के अघोषित नायक बन गए थे। उनके व्यवहार कुशलता और विन्रमता ने उन्हें जल्द ही आसपास के इलाके में लोकप्रिय बना दिया।

*✍️ ….और टंट्या बन गए विद्रोही*

टंट्या के ऊपर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा, इधर पिता की मृत्यु हुई और उधर भीषण अकाल पड़ा। टंट्या एवं उनके परिवार के सम्मुख खाने की दिक्कत हो गयी। ऐसे समय में उन्हें ‘पोखर’ की याद आई जहां उनके पिता भाऊसिंह के मित्र शिवा पाटिल रहते थे और जिन्होंने सम्मिलित रूप से जमीन खरीदी थी, जिसकी देखरेख शिवा पाटिल करते थे। शिवा पाटिल ने टंट्या का आदर-सत्कार तो किया परन्तु भूमि पर उसके अधिकार को मंजूर नहीं किया। शिवा के मुकरने के बाद टंट्या न्यायालय पहुंचे लेकिन झूठे साक्ष्यों के आधार पर शिवा की विजय हुई। इसके बाद टंट्या ने रौद्र रूप धारण कर लिया। लाठी डंडे से वार कर शिवा के नौकर को भगा और उसके खेत पर कब्ज़ा कर लिया। लेकिन शिवा ने पुलिस में टंट्या के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई। पुलिस ने गिरफ्तार करके मुकदमा कायम किया, जिसमे उसे एक वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गयी। जेल में बंदियों के साथ अमानुषिक व्यवहार होता देख टंट्या विक्षुब्ध हो गए, उनके मन में विद्रोह की भावना बलवती होने लगी। जेल से छूटने के बाद पोखर में मजदूरी करके जीवन निर्वाह करने लगे किन्तु वहा भी उसे चैन से जीने नहीं दिया गया। कोई भी घटना घटती तो टंट्या को उसमे फंसा देने षड्यंत्र रचा जाता, कभी कभी तो इसमें उनके अपने लोग भी शामिल रहते। द्रवित होकर उन्होंने पोखर के बजाय हीरापुर में अपना डेरा जमाया, लेकिन दुर्भाग्य से चोरी के आरोप में उन्हें वहाँ भी गिरफ्तार कर लिया गया। बिजानिया भील और टंट्या ने तलवार से कई सिपाहियों को घायल कर दिया, इस प्रकरण में उन्हें तीन माह की सजा हुई। लेकिन जैसे ही वो जेल से छूटे, एक अपराधी ने चोरी के मामले में उनका नाम ले लिया, अब फिर से पुलिस उसे खोजने लगी।

✊ लेकिन इस बार टंट्या ने बदला लेने का संकल्प लिया, उन्होंने तय कर लिया कि अब साहुकारो-मालगुजारो एवं शासन से पीड़ित लोगों को एकजुट करना होगा। उन्होंने भीमा भील के साथ मिलकर गिरोह बनाया जो लूटपाट और डाका डालता था। लेकिन उन्होंने कभी भी निर्दोष लोगों पर हमला नहीं किया। उनकी लड़ाई तो ऐसे लोगों से थी जो आदिवासी एवं अन्य गरीबों का शोषण करते हैं। उनके विद्रोही तेवर ने कम समय में उन्हें प्रसिद्धि दिलवा दी। अब उन्हें गरीबों का सबसे बड़ा मसीहा कहा जाने लगा। टंट्या एक गाँव से दूसरे गाँव घूमते रहते थे। साथ ही अब वो लोगों के सुख-दुःख में सहयोगी बनने लगे।गरीबों की सहायता करना, गरीब कन्याओं की शादी कराना, निर्धन व असहाय लोगो की मदद करने से ‘टंट्या मामा’ सबके प्रिय बन गए थे। वह शोषित-पीड़ित भीलों का रहनुमा बन गए, कई गाँव में उनकी पूजा होने लगी। किसी राजा की तरह उनका सम्मान होने लगा सेवा और परोपकार की भावना ने उन्हें ‘जननायक’ बना दिया। उनकी शक्ति निरंतर बढ़ने लगी। साथ ही उन्होंने अब युवाओं को संगठित करना शुरू कर दिया।

*✍️ 1857 क्रांति के बाद अंग्रेजों को ललकारा*

1857 की क्रांति के बाद टंट्या मामा एक ऐसे जननायक के रूप में उभरे जिन्होंने अंग्रेजी सत्ता को ललकारा था। पीडितो-शोषितों का यह मसीहा मालवा-निमाड में लोक देवता की तरह पूजे जा रहे थे, साथ ही अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए सेनानायक टंट्या अखबारों की सुर्खियों में शामिल होने लगे। उनकी ख्याति तांत्या टोपे तक भी जा पहुंची। इतिहासकार के.सी.शर्मा लिखते हैं कि टंट्या मामा से तांत्या टोपे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने टंट्या मामा को गुरिल्ला युद्ध में प्रशिक्षित करवाया। इस तकनीक के बाद अब वो निडरता से गरीबों की मदद करने के लिए निकलते थे। वो अब दुगुनी ताकत से अंग्रेज़ों का सामना करते,उन्हें लूटते एवं लूटी गई वस्तुओं को गरीबों में बांट दिया करते। टंट्या मामा ने अपने बागी जीवन में लगभग चार सौ डाके डाले और लुट का माल हजारों परिवारों में वितरित किया। टंट्या अनावश्यक हत्या का प्रबल विरोधी थे। हालांकि जो विश्वासघात करते थे, उनकी नाक काटकर दंड अवश्य देते थे। इस बीच टंट्या को गिरफ्तार करने के लिए इश्तिहार छापे गए, जिसमें उनके ऊपर इनाम घोषित किया गया। टंट्या मामा को पकडने के लिए इंग्लेंड से एक नामी पुलिस अफसर आए, जिसकी नाक टंट्या ने काट दी। टंट्या का प्रभाव अब मध्यप्रांत, सी-पी क्षेत्र, खानदेश, होशंगाबाद, बैतुल, महाराष्ट्र के पर्वतीय क्षेत्रो के अलावा मालवा के पथरी क्षेत्र तक फ़ैल गया। टंट्या ने अकाल से पीड़ित लोगो को सरकारी रेलगाड़ी से ले जाया जा रहा अनाज लूटकर बंटवाया।टंट्या मामा के रहते कोई गरीब भूखा नहीं सोयेगा, यह विश्वास भीलो में पैदा हो गया था। लेकिन अब इस विद्रोही छवि के कारण टंट्या मामा के सैकड़ों दुश्मन बनने लगे। वो अब सेठ/साहूकारों के अंग्रेज़ी सत्ता के भी आंखों की किरकिरी बन गए थे। पुलिस अब उनके गिरोह के पीछे हाथ धोकर पड़ गयी थी। ऐसे में उन्हें भूखे-प्यासे रहकर जंगलो में भागना पड़ा। कई दिनों तक उनको अन्न का एक दाना भी नहीं मिला और जंगली फलों को खाकर ही गुजर करना पड़ा।

*✍️ विश्वसनीय के विश्वासघात से टंट्या पकड़े गए*

11 अगस्त, 1886 को श्रावणमास की पूर्णिमा के पावन पर्व पर जिस दिन रक्षाबंधन मनाया जाता है, गणपत नाम का उनके एक हितैषी ने अपनी पत्नी से राखी बंधवाने का टंट्या से आग्रह किया साथ ही भोजन पर आने का निमंत्रण भी भेजा। टंट्या ने इस आग्रह को मान लिया और अपने छह साथियों के साथ वो गणपत के घर बनेर गया। आवभगत करके गणपत साथियों को आँगन में बैठाकर टंट्या को घर में ले गया, जहां पहले से ही मौजूद सिपाहियों ने निहत्थे टंट्या को दबोच लिया। खतरे का आभास पाकर साथी गोलिया चलाकर जंगल में भाग गए | लेकिन टंट्या को हथकड़ीयो और बेड़ियों में जकड दिया गया। कड़े पहरे में उसे खंडवा से इंदौर होते हुए जबलपुर भेजा गया। कहते हैं जहाँ-जहाँ टंट्या को ले जाया गया, उन्हें देखने के लिए अपार जनसमूह उमड़ पड़ा। 19 अक्टूम्बर,1889 को सत्र न्यायाधीश के समक्ष टंट्या को फांसी की सजा सुनाई गयी। गरीबों को जुल्म से बचाने वाले जननायक टंट्या को एक विश्वासघाती के कारण पकड़ा जा सका,अन्यथा वो कभी पकड़ में नहीं आते। लेकिन टंट्या को फांसी दी गयी या उन्हें गोली मारी गई, इसका कोई सरकारी प्रमाण नहीं है। किन्तु जनश्रुति है कि पातालपानी के जंगल में उन्हें गोली मारकर फेंक दिया गया था। जहां पर कुछ समय के पश्चात इस ‘वीर पुरुष’ की समाधि बनाई गई। आज भी वहां से गुजरने वाली ट्रेन रूककर सलामी देती है। सैकड़ो वर्षों बाद भी ‘टंट्या मामा’ का नाम श्रद्धा से लिया जाता है। *अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ बगावत करने वाले ‘टंट्या मामा’ का नाम इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरों से अंकित है।*

*टिप्पणी* : टंट्या मामा के विद्रोही तेवर ने अल्प समय में ही उन्हें एक बड़ी पहचान दिला दी। लेकिन ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसे वीर सिपाहियों, जिन्होंने अंग्रेजी शासन के खिलाफ आदिवासी लोगों को एकजुट कर के विद्रोह का बिगुल फूंका, इनके बारे में बहुत कम या न के बराबर ही लिखा गया है। सम्भवतः यही कारण है कि इस महान वीर का योगदान भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में एक शून्यता जैसी दिखती है। जब कि सच्चाई ये है कि टंट्या मामा ने रानी लक्ष्मी बाई एवं उस समय के अन्य सेनानियों से प्रेरित होकर अंग्रेज़ के ख़िलाफ़ ऐसा विद्रोह किया कि अंग्रेज उनसे परेशान हो गए थे। अंग्रेज़ों में डर समा गया था कि अगर जल्द से जल्द टंट्या को पकड़ा नहीं गया तो आदिवासियों का आंदोलन वृहद रूप ले लेगा जिसे काबू करना आसान नहीं होगा।

“अपने कुशल नेतृत्व क्षमता से आदिवासियों को सामाजिक एकता में पिरोने वाले एवं अपनी संस्कृति को बाहरी प्रभाव से बचाने वाले वीर टंट्या मामा को हम शत शत नमन करते हैं।”

*जय हिन्द , वन्देमातरम्*

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