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कभी भारतीय वर्ष परंपरा का पहला महीना था अग्रहायण अर्थात मार्गशीर्ष

प्रथम मास था : अग्रहायण : मार्गशीर्ष
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गीता में कहा है :
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ॥
(गीता १०-३५)
आकाश में तारों के मध्य जिस मार्ग पर सूर्य गति करता प्रतीत होता है उसे क्रान्तिवृत्त (ecliptic) कहते हैं जो पृथ्वी की कक्षा का आकाश पर पात है। क्रान्तिवृत्त के उत्तर-दक्षिण में ९-९ अंश के विस्तार से बनी १८ अंश चौड़ी पट्टी को भचक्र (zodiac) कहते हैं। सौर मण्डल के अन्य ग्रह इसी पट्टी में पश्चिम से पूर्व की ओर गति करते दीखते हैं। पृथ्वी की विषुवत् रेखा का आकाश पर पात क्रान्तिवृत्त को जिन दो बिन्दुओं पर काटता है उन्हें संपात कहते हैं। २१ मार्च व २३ सितम्बर में सूर्य की स्थिति संपातों में होती है और तब पृथ्वी के दोनों ध्रुव सूर्य से समान दूरी पर होते हैं जिससे पृथ्वी पर सर्वत्र दिन-रात की अवधियाँ लगभग समान होती हैं (दिन ६-७ मिनट बड़ा होता है)। तब उत्तरी गोलार्ध में क्रमशः वसन्त व शरद् ऋतु होती है।

घूर्णन व परिक्रमण गतियों के अतिरिक्त पृथ्वी में एक और गति होती है जिसे अक्षीय डोलन कहते हैं। पृथ्वी का लगभग साढ़े तेईस अंश झुका हुआ अक्ष पूर्व से पश्चिम की ओर डोलन करता है। वर्तमान गति के आकलन के अनुसार एक डोलन प्रायः २६००० वर्षों का होता है। फलतः विषुवत् रेखा के आकाशीय पात की स्थिति परिवर्तित होती जाती है परिणामस्वरूप क्रान्तिवृत्त में संपात भी पूर्व से पश्चिम की ओर गति कर रहे हैं। संपातों के पिछड़ने के कारण प्रति ७०-७१ वर्ष उपरान्त कोई ऋतु एक दिन पूर्व ही आरम्भ होने लगती है (२६०००वर्ष÷३६५=७१वर्ष) तदनुसार प्रायः २००० वर्षों के अन्तराल पर सभी ऋतुएँ एक मास (३०दिन) पूर्व ही आरम्भ होने लगती हैं (७०वर्ष×३०=२१००वर्ष)।

चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन (कौमार), कार्तिक, मार्गशीर्ष (अग्रहायण), पौष, माघ व फाल्गुन क्रमशः आने वाले चान्द्र मास हैं जिनके कारक तारे भचक्र पर क्रमशः पश्चिम से पूर्व की ओर पड़ते हैं। संपात पूर्व से पश्चिम की ओर गति कर रहे हैं अर्थात् २००० वर्ष पूर्व किसी ऋतु का आरम्भ वर्तमान मास के पश्चात् आने वाले मास में होता था। यथा सम्प्रति फाल्गुन-चैत्र में वसन्त संपात पड़ता है तो २००० वर्ष पूर्व वह चैत्र-वैशाख में पड़ता था और उसके २००० वर्ष पूर्व वैशाख-ज्येष्ठ में पड़ता था आदि।

गीता में श्रीभगवान् कहते हैं कि “मैं मासों में मार्गशीर्ष हूँ तथा ऋतुओं में कुसुमाकर हूँ।” कुसुमानाम् आकर इति कुसुमाकरः। जिस ऋतु में सर्वत्र कुसुम दृश्य होते हैं वह कुसुमाकर है अर्थात् वसन्त। श्रीभगवान् के कथन परस्पर विरोधी नहीं हो सकते अतः यदि ऐसा माना जाय कि जिस समय ये कथन कहे गए उस समय मार्गशीर्ष मास में वसन्त संपात होता था तो सम्प्रति वसन्त संपात का मास फाल्गुन लेने पर मार्गशीर्ष से उसका अन्तर ९ मास का है तदनुसार उक्त कथन प्रायः १८००० वर्ष प्राचीन मानने होंगे। अब समस्या यह है कि पारम्परिक मान्यतानुसार श्रीकृष्णावतार प्रायः ५००० वर्ष पूर्व हुआ था तो क्या परम्परागत मान्यता भ्रामक है? इसका उत्तर जानने के लिए मासगणना की प्राचीन परम्परा को जानना अपेक्षित है। सम्प्रति वसन्त ऋतु के मास से मासगणना का आरम्भ होता है अतः चैत्र प्रथम मास है किन्तु प्राचीन काल में शरद् ऋतु के मास से मासगणना का आरम्भ होता था। जिस प्रकार ऋतुओं में वसन्त को श्रेष्ठ माना जाता था उसी प्रकार मासों में प्रथम मास को श्रेष्ठ माना जाता था जो शरद् ऋतु का होता था।

मार्गशीर्ष प्रथम मास था इसी कारण उसका एक नाम ‘अग्रहायण’ है। अग्रहायण शब्द से भी यही अर्थ प्रकट होता है (अग्र = प्रथम मास ; हायण = वर्ष)। सम्प्रति शरद् संपात का मास भाद्रपद लेने पर मार्गशीर्ष से उसका अन्तर ३ मास का है तदनुसार उक्त कथन प्रायः ६००० वर्ष प्राचीन हैं जो श्रीकृष्णावतार की प्राचीनता की परम्परागत मान्यता से मेल खाते हैं।
✍🏻प्रचण्ड प्रद्योत

मृगशीर्ष λ Orionis or Head of Orion
वास्तविक रेखांश ५९°५०’५९”
मृग मण्डल के ऊपरी भाग में तीन मन्दकान्ति तारों से एक छोटा त्रिकोण बनता है, यह मृग का शिर है .
जब पूर्ण चन्द्रमा इस नक्षत्र में दीखता है वह
मार्गशीर्ष (अग्रहायण) मास कहलाता है.
एक सीध में तीन तारे , इन्हें ही त्रिकाण्ड कहते हैं .
माध्यन्दिन शतपथ २.१.२

मित्र और वरुण
मित्र (सूर्य) , वरुण शतभिषा के अधिपति।
दोनों के वाहन मकर और मीन हैं। कुम्भ से भी नाता है और इनके अगस्त्य तथा वसिष्ठ नाम की दो सन्तानें भी हैं।
क्या आप यह बता सकते हैं कि सूर्य के कुम्भ राशिगत होने पर कब अगस्त्य उदित होते थे?
मार्गशीर्षे भवेन्मित्रः पौषे विष्णुः सनातनः ।
वरुणो माघमासे तु सूर्यः……
कूर्मपुराण के अनुसार मार्गशीर्ष मास के आदित्य का नाम मित्र है।
ऋग्वेदसंहिता के सप्तम मण्डल का छाछठवाँ सूक्त इन्हीं देवद्वय को समर्पित है।
पश्ये॑म श॒रदः॑ श॒तं जीवे॑म श॒रदः॑ श॒तं ॥

शतपथ ब्राह्मण ८.३.४.१० में
इष, ऊर्ज, रयि व पोष,
(क्वांर/आश्विन), (कार्तिक), (अग्रहायण/मार्गशीर्ष), (पौष) ?

इन चार को अन्न रूपी पशु के चार पाद कहा गया है.
इष और ऊर्ज शरद ऋतु के मास हैं .
ज्वार, बाजरा , तिल आदि की प्राप्ति .
रयि (सम्पदा, समृद्धि) मार्गशीर्ष में धान की फसल आ जाने से होगी.
पोष … पौष मास पुष्य , पुष्टिकर्ता होने से .
.
वेदमन्त्रों में अश्विन के साथ इष की , ऊर्ज के साथ नपात् शब्द की बहुधा आवृत्ति है ।
नपात् का सम्बन्ध शरद सम्पात से है .
हो भी या नहीं भी ।

ஜ٠•●●•٠ஜश्रीभगवानुवाचஜ٠•●●•٠ஜ

ततः प्रभाते द्वादश्यां कार्यो मत्स्योत्सवो बुधैः |

मार्गशीर्षे शुक्लपक्षे यथाविध्युपचारतः||

मत्स्य देश में मत्स्योत्सव मनाने की लोक परम्परा का निर्वहन आधुनिक काल तक हो रहा है। मात्स्य जनपद जहाँ राजा विराट का शासन था और पाण्डवों ने अज्ञातवास किया था।
मत्स्य उत्सव कैसे मनाया जाये इसका कहीं विस्तृत विवरण पढ़ने को नहीं मिला। हाँ स्कन्दपुराण में इसे ३ दिन का उत्सव कहा गया है, अर्थात् दशमी से द्वादशी तक।
२५ वर्ष पूर्व मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की दशमी से मत्स्योत्सव मनाने का उपक्रम आरम्भ हुआ तथा द्वादशी तिथि को हर्षोल्लास के साथ सम्पन्न हुआ था।
आपने ठीक समझा ६-१२-१९९२ दिन रविवार को आग्रहायण शुक्ला द्वादशी अर्थात् मत्स्य-द्वादशी ही थी। गीता-जयन्ती के ठीक आगे का दिवस ।

👉कुछ मछलियाँ सोने और चाँदी के काँटे में ही फसती हैं।

इन्वका को खोजते यहाँ तक पहुँचे । इन्वका मृगशीर्ष है, ओरॉयन के पाँच तारे।
इल्वलारि अगस्त्य हैं। सम्भवतः पहले मार्गशीर्ष की समाप्ति पर अगस्त्योदय होता होगा । शरद ऋतु का मास । शर का अर्थ ५ भी होता है।
इळा , इला , ऐळ ऐल । ऐला ? इलायची का देश ।
इलविला
भविष्यपुराण ३.३.१२.१०१( ऐलविली : योग सिद्धि युक्त कामी राक्षस, चित्र राक्षस का अवतार, कृष्णांश आदि द्वारा वध ), ३.४.१५.१( इल्वला : विश्रवा मुनि की तामसी शक्ति, यक्षशर्मा द्वारा आराधना, जन्मान्तर में यक्षशर्मा का कर्णाटक – राजा व इल्वला – पुत्र कुबेर बनना ),
भागवत पुराण ४.१.३७( इडविडा : विश्रवा – पत्नी, कुबेर – माता ), ९.२.३१( इडविडा : तृणबिन्दु व अलम्बुषा की कन्या, विश्रवा – भार्या, कुबेर – माता ),
वायु पुराण ७०.३१/२.९.३१( इडिविला : तृणबिन्दु – कन्या, विश्रवा – भार्या, कुबेर – माता ), ८६.१६/२.२४.१६(द्रविडा : तृणबिन्दु – पुत्री, विश्रवा – माता, विशाल – भगिनी ; तुलनीय : इडविडा),
विष्णु पुराण ४.१.४७( तृणबिन्दु व अलम्बुषा की कन्या ),
विष्णुधर्मोत्तर ३.१०४.५९( मृगशिरा नक्षत्र का नाम, आवाहन मन्त्र ),
लक्ष्मीनारायण संहिता २.८४+( पुलस्त्य – पत्नी ऐलविला ।
इडविड और द्रविड एक ही है?
✍🏻अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी

हमारे यहां कितने संवत्सर रहे? कहां कहां रहे? कितने प्रकार से रहे? कितने स्तर पर किन – किन पंचांग करने वालों ने अपनाए हैं और क्यों ? चैत्र की मान्यता कब अाई? क्यों अाई और कैसे अाई ? चैत्र से गणना है और पहला मास है तो नया बरस क्यों बताया गया जबकि लगभग हर मास से भी कोई न कोई संवत् शुरू होता है !

मालवा, मेवाड़, गुजरात, महाराष्ट्र आदि में श्रावणादि, कार्तिकादि से भी वर्ष चले हैं और आज तक चलन में हैं, महिलाएं बहुत अच्छे से जानती हैं। अग्रहायण से संवत्सर की गणना की स्मृति अभी भी संधान विधि और औषध सेवन से जुड़ी हुई है और घर घर में मान्य है। नर्मदा के इस और उस पार में संवत् बदले हैं, अष्टोत्तरी और विंशोत्तरी तय की है! जानते हैं न!

जब जब जिसका प्रभाव रहा और जैसा प्रचार रहा, वैसा साल माना और मनाया गया… आज भी एेसा ही है न!
साल का मतलब धान्य, फसल होता है न। सब का नाता फसल से है, अकबर के काल में “फसली” ही लिखा गया तो माना गया कि साल का कोई नया प्रयोग हुआ जबकि बात फसल आधारित अवधि की थी…।

भारत का कभी कोई आग्रह नहीं रहा, हम सब मानते हैं और कुछ भी नहीं मानते हैं… 🙂 आप सब मित्रों को नित्य बधाई।
मंगल, बधाई तो जब मिले तब अच्छी, सबसे बड़ा निमित्त और प्रस्थान काल के लिए अति उत्तम सगुन है। सारे ही पुराण, शकुन शास्त्र इसकी पुष्टि कर रहे हैं :

मंगलाभिवर्धनवचनं नित्यं प्रशस्तम्।
🌄
( चश्मा उतारो, फिर देखो यारो!
दुनिया नई है, चेहरा पुराना 🙂 )

जाड़े की दस्‍तक और गुड का स्‍वाद…

जाड़े ने दस्‍तक दे दी है। सिर पर पंखों की पंखडि़यां थमती जा रही है और रजाई या कंबल चढ़ती जा रही है। मार्गशीर्ष आरंभ। आयुर्वेद तो कहता है : मार्गशीर्षे न जीरकम्। जीरा इस दौरान नहीं खाएं मगर कहने से कौन मानेगा, जीरा सेक कर गुड़ में मिलाकर खाएं तो खांसी जाए। हां, शक्‍कर से दूरी रखी जाए। गुड़ से याद आया कि इस दौर में तिल और गुड़ खाने और गन्‍ने चूसने की इच्‍छा हाेती है। ये इच्‍छा कालिदास की भी हाेती थी। तभी तो ऋतु वर्णन में उन्‍होंने इस बात का इजहार किया है :

प्रचुर गुडविकार: स्‍वादुशालीक्षुरम्‍य। (ऋतुसंहार 16)

हमारे यहां गुड के कई व्‍यंजन बनाए जाते हैं। गुड़ में तिल को मिलाकर घाणी करवाई जाती है। आज घाणी को कोल्‍हू के नाम से जाना जाता है। कई जगह खुदाइयों में घाणियां मिली है। इसे तेलयंत्र के नाम से नरक के वर्णनों में लिखा गया है। शिल्‍परत्‍नम् में घाणी बनाने की विधि को लिखा गया है।
घाणी में पिलकर तिलकूटा तैयार होता है… गजक तो खास है ही। गजकरेवड़ी, बाजरे का रोट और गुड़, गुड़धानी, गुडराब… और न जाने क्‍या-क्‍या। आपके उधर भी बनते ही होंगे। मगर, खास बात ये कि गुड एक ऐसा शब्‍द है जो संस्‍कृत में मीठे के लिए आता है।

दक्षिण के कुछ पाठों में ‘गुल’ शब्‍द भी मिलता है मगर वह गुड़ ही है। अनुष्‍ठानों में देवताओं की प्रसन्‍नता के लिए गुड़, गुडोदन, गुडपाक, गुलगुले आदि के चरु चढ़ाने का साक्ष्‍य कई अभिलेखों में भी मिलता है। सल्‍तनकालीन संदर्भों में इसके भाव भी लिखे मिलते हैं। बनारस के इलाके का गुड और खांड दोनों ही ख्‍यात थे। गुड शब्‍द देशज भी है और शास्‍त्रीय भी। मगर अपना मूल रूप मिठास की तरह ही बरकरार रखे हुए है, इस स्‍वाद का गुड़ गोबर नहीं हुआ। यदि अंधेरे में भी यह शब्‍द सुन लिया जाए तो भी जीभ उसकी मीठास जान लेती है, है न।
✍🏻डॉ श्रीकृष्ण जुगनू

भदई या कुआरी फ़सल तो कट चुकी, अब अगहनी के कटने की बारी है. अगहनी या जड़हन या चहोरा या सैंदी धान बोआ और रोपा दोनों किस्म का होता है. अगहनी धान को ही संस्कृत में शालि और रोपा अगहन को कलमशालि कहते हैं. जिस खेत में धान पैदा होता है, उसे धनहर, धनखर, धनकियारी कहते हैं.

धान की किस्में अनगिनत हैं. महीन या बारीक धान की कुछ मशहूर किस्मों के नाम इस प्रकार हैं- बासमती, कनकजीर, धनियां, तुलसीफूल, महाजोगिन, मर्चा, गौरिया, जूही बंगाल, बर्माभूसी, लालकेसर, रामजीरा, श्यामजीरा, काला नमक, बहरनी, राम अजवाइन, गोपालभोग, रामभोग, ठाकुरभोग, सुगापंखी, बतासफेनी, दूधगिलास, कमोदी, दौनाफूल, हंसराज, भाटाफूल, बांसफूल, कमोच, कनकचूर, गोकुलसार, श्रीमंजरी, मालदेही, लौंगचूरा, जलहोर. मोटे धानों की किस्मों के कुछ नाम ये हैं- करंगा, जगरनथिया, दूधराज, मेघनाद, राटिन, ललदेइया, गहुमा, गड़ेर, मुटुरी, नन्हिया, मनसरी, रमुनी सरिहन, सिलहट, बैतरनी, भेड़काबर, मुटुनी दोलंगी, मुड़रा, गजपत्ता, सेल्हा, जोंगा, कजरधर, दलगंजन, सौंदी. चबेना के काम आने वाले धान हैं अनन्दी और देवसार. नयी देसावरी किस्में तो नम्बरों से अधिकतर जानी जाती हैं. धान का नया पौधा सुई, रोपा जाने वाला बान, जड़ नेरुआ, बाली झंपा, कच्चा धान गदरा या गड़रा, तैयार धान सुरका, खड़े धान का चावल अरवा, उबाले का उसिना या भुजिया (भूनकर मुरमुरी, मुड़ी, लाई बनती है), भुना धान खील या लावा (लाजा) छिलका भूसी, भीतरी कोराई, टूटा चावल कन, बहुत टूटने वाला टुटहन, खुदिगर और पिसा चावल चौरठ कहा जाता है.

धान की कटनी या कटिया या लवनी कातिक के अंत में शुरू होकर पूस तक जाती है. जड़ से कटिया की प्रक्रिया जड़कट्टा, या जरछोरा बिलकुल ऊपर वाली बाली काटने की प्रक्रिया बलकट, टुंगनी, कटुई, पंगाई, नन्हकटनी या सिसकटनी कही जाती है. कभी-कभी लोग खेत तैयार न होने पर भी चराई या हईं के डर से भदरा या कचरा या गदरा ही काट लेते हैं. नवान्न के लिए समहुत (सुमुत) पहले काटा जाता है, मुहूर्त्त या साइत के रूप में. कटनी के लिए हंसुआ, पछरिया, बधरा, बधरिया, दाब, संगिया, चिलोही (ये सभी बड़े होते हैं) या हेसुली या कत्ता (छोटे) काम में आते हैं. दांतों वाला हंसिया दातें या कचिया कहा जाता है.

धान काटकर खेत में मूठों, पूलों या गुट्ठों में बटोर कर पांती-पांती रखे जाते हैं. सूख जाने पर इन्हें गतार या रस्सी से बांधा जाता है, चार मुट्ठे का पांजा होता है जिसे जगह-जगह औल्हा, अदांसा, आहुल, अंटिया और पसही कहते हैं, चार पांजों का एक बोझा होता है, सोलह बोझे की सोरही, इक्कीस की इकैसी, 16 सोरही का सोरहा. बोझ एक के ऊपर एक सरिया कर (सहेज कर) खलिहान में रखे हैं. इसे डांठ, गांज, जांगी, बांही भी कहते हैं. खलिहान छीला जाता है, बराबर किया जाता है, लीपा जाता है, तब उसमें डांठ रखा जाता है. खलिहान में अनाज अलग करने के लिए फैलाई फ़सल पैर या लांक कहलाती है. इसके बीच में एक मेह होता है. मेह के पास वाला (अर्थात् जिसे सबसे कम दूरी घूमनी होती है) मेंहिया कहा जाता है और सबसे बाहर वाला अगदाई या पागड़ा या पागड़िया या आगिल कहा जाता है. बैलों के गले में पड़ी रस्सी गैनी में फंसी हुई बड़ी रस्सी दांवरी या दौंरी कही जाती है. ऊपर अच्छी तरह टूट जाने पर नीचे वाली पैर या लांक उलटी जाती है या उखाड़ी जाती है, इसी को तरपैरी करना कहते हैं. दांव घूमते समय बैल जो डांठ इधर-उधर कर देते हैं, उसको किसान सोकी से बैलों के पैरों के नीचे डालता चलता है, यह प्रक्रिया पागड़ मारना है. अच्छी तरह रुंदा हुआ डांठ खुरदायां हुआ डांठ कहा जाता है.

अनाज़ की इकट्ठी रास को सिली, टाल, गल्ला, ढेरी या खम्हार भी कहते हैं, इसमें अभी कुछ-न-कुछ पयाल मिला होता है, इसकी ओसौनी शुरू होती है. जो भूसा उड़कर निकलता है, उसे पम्मी, भौंटा, पांकी कहते हैं, इसके बाद अधभरी या पइया अनाज़ निकलता है. भारी अनाज बीच में राशि के रूप में इकट्ठा होता जाता है, दूर बिखर जाने वाला अनाज अगवार या पछुआ हलवाहों का हिस्सा होता है. रास बटोरने के लिए फरई या अखइन काम में लाये जाते हैं. रास के ढेर पर झाडू (सुनैती या सरेती) फेरा जाता है. (छबड़ा की जाती है). रास चद्दर, जाजिम, पाल आदि से ढककर दबा दी जाती है. रास के साथ खेत की मिट्टी का एक ढेला (स्याबड़ < सीतावर्त्त) भी आता है. कुछ अनाज दान के लिए अलग रखा जाता है. उसको भी स्याबड़ी कहते हैं, इसी में से नाई, पुरोहित, बढ़ई या पवनी को किसान अपनी सालाना जजमानी भी अदा करता है. हर किस्म के धान की मोजर (मंजरी) इकट्ठी करके उसकी बंदनवार आंगन में चारों ओर तानी जाती है.
(हिंदी की शब्द–सम्पदा, राजकमल प्रकाशन, से साभार)
✍🏻अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी

अन्नपूर्णा जयंती
* एस. बी. मूथा जी
मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा तिथि को अन्नपूर्णा जयंती मनाई जाती है. लोक मान्यता है कि मास की पूर्णिमा तिथि को पार्वती ने अन्नपूर्णा का अवतार लिया था. इस दिन भगवान शिव ने पृथ्वीवासियों के कल्याण के लिए भिक्षुक का रूप धारण किया था. अन्नपूर्णा जयंती को मां अन्नपूर्णा की विधि विधान से पूजा अर्चना की जाती है, जिससे सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होती है. व्रत रखने से भक्तों के घर अन्न, खाने-पीने की वस्तुओं और धन-धान्य से भर जाता है.

एक बार किसी कारण से पृथ्वी बंजर हो गई.फसलें, फलों आदि की पैदावार नहीं हुई. पृथ्वी पर जीवों के सामने प्राणों का संकट आ गया. तब भगवान शिव ने पृथ्वीवासियों के कल्याण के लिए भिक्षुक का स्वरूप धारण किया और माता पार्वती ने मां अन्नपूर्णा का अवतार लिया.

इसके बाद भगवान शिव ने मां अन्नपूर्णा से भिक्षा स्वरूप अन्न मांगे. उस अन्न को लेकर पृथ्वी लोक पर गए और उसे सभी प्राणियों में बांट दिए. इससे धरती एक बार फिर धन-धान्य से परिपूर्ण हो गई. इसके बाद से ही मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा तिथि को अन्नपूर्णा जयंती मनाई जाने लगी.

अगर भोजन बनाते समय माँ अन्नपूर्णा का स्मरण करते हुए “ॐ अन्नपूर्णायै नमः” मन्त्र का मन में जाप किया जाए ; तो भोजन सात्विक, पोषक और अनोखे स्वाद वाला होगा.

अपने रसोईघर में मां अन्नपूर्णा देवी की तस्वीर लगाकर कोई भी पकाये जाने वाले भोजन या खाने का भोग पहले मां को अर्पण करने के बाद स्वयं या मेहमानों को परोसें तो तन और मन की शांति मिलती है.

संपूर्ण जगत की क्षुधा को शांत करने वाली मां अन्नपूर्णा धान्य की देवी मानी जाती हैं. मां के आशीर्वाद को ग्रहण करने वाले धन धान्य से युक्त रहते हैं उन्हें कभी कोई परेशानी नहीं आती. इनके आशीर्वाद से ही विश्व में धान्य उपलब्ध होता है.

देश में यदि कभी कहीं अकाल जैसे समस्या उत्पन्न होती है तो सभी लोग देवी अन्नपूर्णा की अराधना करते हैं उनसे इस विपदा को दूर करने की प्रार्थना करते हैं.

मां अन्नपूर्णा को भवानी का ही रूप माना जाता है. सभी जन मां के इस रूप को श्रद्धा से पूजते हैं.

स्कंद पुराण में देवी भवानी को गृहस्थी का संचालन करने वाली माना जाता है तथा ब्रह्मवैवर्त पुराण अनुसार मां भवानी ही अन्नपूर्णा स्वरूपा हैं और सभी अन्नपूर्णा को ही भवानी रूप मानकर पूजते हैं.

देवी अन्नपूर्णा की आराधना से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं. भक्तों की सभी विपदाओं को दूर करती हैं. मां अन्नपूर्णा दरिद्रता का निवारण है. मां का आशीर्वाद भक्तों को सुख प्रदान करने के साथ मोक्ष भी प्राप्त करवाता हैं.

मां अन्नपूर्णा को अष्टसिद्धि स्वामिनी माना जाता है नवरात्रों के समय भी मां के पूजन का विशेष विधान दर्शाया गया है.

पुराणों में मां अन्नपूर्णा का विशद वर्णन मिलता है जिसमें अन्नपूर्णा मां अनुपम सौंदर्य से युक्त हैं. वह त्रिनेत्रधारी हैं. उनके मस्तक पर अर्द्धचंद्र सुशोभित है. सुंदर आभूषणों से सुशोभित देवी स्वर्ण के सिंहासन पर विराजित हैं.

भारत के उत्तर प्रदेश में पवित्र पावन गंगा नदी के किनारे काशी नगरी में मां अन्नपूर्णा जी का भव्य मंदिर है. अन्नपूर्णा का मंदिर यह स्थान मां अन्नपूर्णा जी का धाम भी माना जाता है. भगवान शिव की यह नगरी सभी संकटों से दूर रहती है. सभी की चिंताओं को हर लेती है तथा सभी को पवित्रता के एहसास से भर देती है.

काशी के इस मंदिर के संदर्भ में लोगों की मान्यता है की मां अन्नपूर्णा के होते हुए यहां पर कोई भी भूखा नही रहता सभी की क्षुधा शांत होती है. यहां आने वाले सभी श्रद्धालुओं की झोलियां भर जाती हैं तथा मां अन्नपूर्णा का आशीर्वाद प्राप्त होता है.

काशी में अन्न की कमी के कारण बनी भयावह स्थिति से विचलित भगवान शिव ने अन्नपूर्णा देवी से भिक्षा ग्रहण कर वरदान प्राप्त किया था. इस पर भगवती अन्नपूर्णा ने उनकी शरण में आने वाले को कभी धन-धान्य से वंचित नहीं होने का आशीष दिया था.

इसी कामना के साथ प्रतिवर्ष अगहन माह में श्री अन्नपूर्णा जी का पूजन विशेष रूप से किया जाता है. श्री अन्नपूर्णा को माता पार्वती का स्वरूप बताया गया है.

काशी में शक्ति पूजा के समय नवगौरी यात्रा का विशेष महत्व होता है जिसमें देवी के समस्त रूपों को पूजा जाता है तथा महागौरी का दर्शन एवं पूजन अन्नपूर्णा मंदिर में ही संपन्न किया जाता है. जोधपुर शहर में जूनी मंडी गंगश्याम जी के मंदिर प्रांगण में माँ अन्नपूर्णा देवी का भी मंदिर है.
✍🏻डॉ श्रीकृष्ण जुगनू

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