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मोदी की खिचड़ी में क्या कुछ नहीं

वेदप्रताप वैदिक 

जवाहरलाल नेहरू से लेकर अब तक जितने भी प्रधानमंत्री हुए हैं, उन सबके भाषण सुनने का और नेहरूजी और शास्त्रीजी के अलावा सभी प्रधानमंत्रियों से निकट संपर्क का मौका मुझे मिला है, लेकिन जो सपने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जगाए हैं, मुझे याद नहीं पड़ता कि किसी और प्रधानमंत्री ने कभी जगाए। नेहरूजी ने समाजवादी समाज, शास्त्रीजी ने जय जवान-जय किसान और इंदिराजी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया। अटलजी ने अपने आखिरी दौर में ‘चमकते भारत’ का नारा दिया, लेकिन ये सब नारे ही रहे। इन नारों के तहत कुछ लक्ष्य भी पूरे हुए, लेकिन किसी भी प्रधानमंत्री ने देश की विभिन्न समस्याओं के समाधान के ठोस आश्वासन नहीं दिए। कई समस्याओं का समाधान उन्होंने किया, लेकिन ढेरों समस्याएं न तो उन्होंने एक साथ उठाईं और न ही उन्हें हल करने का वादा किया।

हर राजनीतिक दल और हर नेता चुनाव के दौरान वादों के अंबार लगा देता है, क्योंकि उसे वोट लेने होते हैं, लेकिन सत्तारूढ़ होने पर उन वादों को भूलने की प्रक्रिया भी शुरू हो जाती है। खुशी की बात है कि नरेंद्र मोदी ने उन वादों को प्रधानमंत्री बनने के बाद तो दोहराया ही, राष्ट्रपति के अभिभाषण में भी उन्हें शामिल करवाया। संसद में बोलते हुए उन्होंने कहा कि अपने वादों को हम अपने बुजुर्ग साथियों के मार्गदर्शन में पूरा करेंगे। उन्होंने अपने विरोधियों के इस आरोप का भी उत्तर दिया कि इन वादों को वे कैसे पूरा करेंगे।

हालांकि, उनके जवाब से प्रतिपक्ष के नेता संतुष्ट नहीं दिखे। जहां तक आम जनता का सवाल है, वह फिलहाल अपनी बहादुरी और बुद्धिमानी पर ही सम्मोहित है। वह इस खुशी में डूबी हुई है कि उसने राजवंश को उखाड़ फेंका। भ्रष्टाचारी सरकार को ऐसी मार लगाई कि जिसकी वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी। जनता में यह सोचने की क्षमता नहीं है कि मोदी जो वादे कर रहे हैं, उन्हें वे पूरा कैसे करेंगे? वे सपने तो दिखा रहे हैं, लेकिन इन्हें वे जमीन पर कैसे उतारेंगे? जनता ही रास्ता बता सकती होती तो फिर नेताओं की जरूरत ही क्या रहती?

आइए, हम देखें कि मोदी ने क्या-क्या सपने दिखाए हैं? इन सब सपनों को अगर हम एक जगह रख दें तो कौन-सा सैद्धांतिक या वैचारिक ढांचा खड़ा होता है? क्या उसे हम पूंजीवादी या समाजवादी या गांधीवादी या हिंदुत्ववादी ढांचा कह सकते हैं? मोदी के सपनों का मूल हमें खोजना हो तो हमें भाजपा के घोषणा-पत्र की ओर लौटना होगा। जो घोषणा-पत्र में कहा गया है, मोदी ने उसे ही अपने भाषणों में उतारा है। उन्होंने सरल और बेहतर ढंग से जनता को जनता की भाषा में समझाया है। भाजपा का घोषणा-पत्र क्या मोदी ने तैयार किया है? नहीं, कोई भी नेता अकेला इतना सक्षम नहीं है कि वह घोषणा-पत्र लिख सके। नेहरू और नरसिंह राव के अलावा किसी भी प्रधानमंत्री से यह क्षमता अपेक्षित नहीं रही है। इसका अर्थ यह हुआ कि स्वयं मोदी को अपने घोषणा-पत्र को अब ध्यान से पढऩा होगा और उसकी बारीकियों को समझना होगा। यह बात आगे की है। भाषण देने और सूत्रों को दोहराने से अब काम नहीं चलेगा। यह प्रक्रिया पीछे छूट गई है।

भाजपा के घोषणा-पत्र और मोदी के भाषणों को अगर आप ध्यान से पढ़ें तो उनमें से किसी सैद्धांतिक मॉडल को ढूंढऩा असंभव है। मोदी को सबसे कट्टरपंथी हिंदुत्ववादी माना जाता था लेकिन ‘हिंदू, हिंदी और हिंदुस्तान’ का नारा कहां है? मोदी ने हरिद्वार के अपने पहले चुनावी भाषण में ही ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ का उद्घोष कर दिया था। सबका सुख, सिर्फ हिंदुओं का नहीं। कहा जा सकता है कि सच्चा हिंदुत्व यही है। हिंदू राजा के लिए सब प्रजा समान है। उसके लिए न कोई हिंदू है न मुसलमान, न कोई छोटा है न बड़ा, न कोई ऊंची जाति है न कोई नीची-जाति। सबकी सेवा और रक्षा करना उसका धर्म है। इसे ही मैंने 2002 में गुजरात दंगों के समय राजधर्म की संज्ञा दी थी, जिसे प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने बार-बार दोहराया था। मोदी के भाषणों में कहीं भी संकीर्णता या ओछापन दिखाई नहीं दिया। 2002 के मोदी और 2014 के मोदी में जमीन-आसमान का अंतर दिखाई दिया। उन्होंने अपने देश में मुसलमानों की दुर्दशा का मार्मिक वर्णन किया है। उन्हें रोजगार और शिक्षा देने के विशेष कार्यक्रम शुरू करने की बात कही है। जहां तक धारा 370 और कश्मीर का सवाल है, श्यामाप्रसाद मुखर्जी (जनसंघ के संस्थापक) के नारे हमने मोदी की किसी सभा में भी नहीं सुने। बल्कि सुना यही कि समान आचार संहिता और कश्मीर के मामले में मोदी की सरकार संबंधित पक्षों की राय लिए बिना कोई फैसला नहीं करेगी यानी कश्मीरियों की भावना का पूरा ध्यान रखा जाएगा। मोदी ने संसद के अपने भाषण में पुणे के एक मुसलमान युवक की हत्या पर दुख व्यक्त किया, यह बहुत ध्यान देने लायक बात है।

जहां तक भाषा का सवाल है, मोदी ने ‘हिंदी’ को विवादों के ऊपर उठा दिया है। उन्होंने कहा है कि अन्तर्जाल की सारी तकनीक वे भारतीय भाषाओं में लाएंगे। उन्होंने सिर्फ ‘हिंदी’ नहीं कहा है। वे भारत की भाषा-समस्या का मर्म समझ गए हैं। इस बहुभाषी देश में वे किसी पर हिंदी थोपना नहीं चाहते। यदि देश की सभी भाषाओं को समुचित महत्व मिले तो वे हिंदी को सहर्ष स्वीकार करेंगी। मोदी ने विदेशी अतिथियों से हिंदी में बात करने और प्रधानमंत्री कार्यालय को हिंदी में काम करने का आदेश देकर न केवल राजभाषा का मान बढ़ाया है, बल्कि गांधी के सपने को साकार करने की दिशा में कदम बढ़ाया है।
इसमें शक नहीं कि विदेशी विनियोग को छूट देना, नए शहर बसाना, जापान-जैसी रेलें चलाना, नए-नए हवाई अड्डे बनाना, उद्योग-व्यापार को विशेष छूटें देना आदि ऐसे वादे हैं, जिनसे लगता है कि पूंजीवाद का नया दौर शुरू होने वाला है, लेकिन इसके साथ-साथ हमने यह भी सुना है कि हर आदमी को रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और पक्का मकान देने का वादा भी है। हर गांव को सड़कों से जोडऩे का इरादा भी है। नदियों की सफाई और सिंचाई का संकल्प है। यह सब क्या है? यह समाजवाद नहीं तो क्या है? औरतों को 33 प्रतिशत आरक्षण देना और गरीबी दूर करने का भरोसा दिलाना वे घोषणाएं हैं, जिन्हें सुनकर अगर डॉ. लोहिया होते तो मोदी को गले लगाते। दक्षेस के नेताओं का पहली बार भारत आना एक अर्थ में लोहिया के भारत-पाक महासंघ, गुरु गोलवलकर के अखंड भारत और विनोबा के एबीसी त्रिकोण को साकार करना है। इन देशों के साथ मैं ईरान, म्यांमार, मध्य एशिया के पांच गणतंत्रों और मॉरिशस को भी जोड़ता हूं। इसे मैं विशाल आर्यावर्त का सपना कहता हूं। यदि इन सब राष्ट्रों का साझा बाजार, साझा संसद और महासंघ बन जाए तो दक्षिण एशिया दुनिया का सबसे मालदार इलाका बन जाए।

सच पूछा जाए तो मोदी की खिचड़ी में पूंजीवाद, समाजवाद, गांधीवाद और दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद आदि के विभिन्न तत्व एक साथ पक रहे हैं। इस खिचड़ी को मोदी ने बहुत खदबदा दिया है। अब देखना है कि यह खिचड़ी देश को खाने के लिए कब मिलेगी और जब मिलेगी तो वह पचेगी भी या नहीं?

लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।

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