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राजनीति

चुनावी रणनीति तक सीमित रह कर नहीं हराया जा सकता फासीवाद को

बिहार विधानसभा चुनाव-2020 :
पूँजीवादी और संशोधनवादी चुनावबाज़ पार्टियों का गठबन्धन मेहनतकशों-मज़दूरों के पक्ष की नुमाइन्दगी नहीं कर सकता!
चुनावी क्षेत्र में भी मज़दूर वर्ग के स्वतंत्र क्रान्तिकारी राजनीतिक पक्ष के बिना, फ़ासीवाद से निपटा नहीं जा सकता!

बिहार विधानसभा चुनावों में भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन जीत गया है। महागठबन्धन बहुमत से क़रीब 12 सीटें दूर रह गया। चुनावों में सबसे ज़्यादा फ़ायदा फ़ासीवादी भाजपा को हुआ है। जबकि सबसे ज़्यादा नुक़सान भाजपा की ही सहयोगी नीतीश कुमार की जनता दल (यू) को हुआ, जो कि भाजपा और लोजपा के चिराग पासवान की मेहरबानी से ही हुआ। भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनते-बनते रह गयी और राष्ट्रीय जनता दल एक सीट के अन्तर से अभी भी सबसे बड़ी पार्टी है। लेकिन कांग्रेस को पिछली बार की तुलना में 8 सीटों का नुक़सान उठाना पड़ा। वहीं संशोधनवादी पार्टियों विशेषकर माकपा, भाकपा और भाकपा (माले) लिबरेशन को इन चुनावों में काफ़ी फ़ायदा पहुँचा है। वजह यह रही कि इस बार उन्हें अपने पारम्परिक दलित मेहनतकश वोट के अलावा, राजद का वोट बैंक भी महागठबन्धन का अंग होने के कारण मिला। इनमें भी ख़ास तौर पर भाकपा (माले) लिबरेशन को सबसे अधिक फ़ायदा पहुँचा है। ज़ाहिर है, इसके कारण चुनावों में महागठबन्धन की हार के बावजूद, भाकपा (माले) लिबरेशन के कार्यकर्ताओं में काफ़ी ख़ुशी का माहौल है, मानो फ़ासीवाद को फ़तह कर लिया गया हो!
इन नतीजों का बिहार के मेहनतकश व मज़दूर वर्ग के लिए क्या महत्व है? यह समझना आवश्यक है क्योंकि उसके बिना भविष्य की भी कोई योजना व रणनीति नहीं बनायी जा सकती है।


पहला सवाल यह है कि भयंकर आर्थिक तबाही, कोरोना संकट व लॉकडाउन के विनाशकारी प्रभावों, विकराल बेरोज़गारी और महँगाई के बावजूद भाजपा को वोटरों के ग़ुस्से का सामना उस हद तक क्यों नहीं करना पड़ा जिसकी तमाम प्रेक्षक अपेक्षा कर रहे थे? यह बात समझने के लिए यह समझना ज़रूरी है कि भाजपा एक फ़ासीवादी पार्टी है, और इसकी तुलना किसी भी अन्य पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टी से नहीं की जा सकती है। भाजपा अपनी सीटें बढ़ाने में और अपने प्रति नाराज़गी की लहर से बच पाने में कामयाब रही, तो इसकी प्रमुख वजहें हैं कि उसके पास एक काडर-आधारित संगठन है, दूसरा, उसके पीछे एक संगठित प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन है और तीसरा यह कि उसके पास इस समय भारत के पूँजीपति वर्ग का एकमत समर्थन है। ईवीएम फ्रॉड, वोटों की गिनती में हेराफ़ेरी करवाना, तमाम नकारात्मकों के लिए नीतीश कुमार को ज़िम्मेदार ठहराने में कामयाब होना, आदि गौण कारक हैं, जो बेशक मौजूद हैं, लेकिन वे निर्णायक कारक नहीं हैं और वास्तव में प्रमुख कारक का ही एक लक्षण हैं।
हम इस सवाल पर आगे आयेंगे कि ऐसी फ़ासीवादी पार्टी और उसके पीछे मौजूद प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन को केवल चुनावी रास्ते से हराया नहीं जा सकता है। अगर भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन यह चुनाव हार भी गया होता तो इसे फ़ासीवाद की पराजय समझने की मूर्खता वही व्यक्ति कर सकता है जो कि भयंकर पस्तहिम्मती का शिकार होकर राजनीतिक तौर पर अन्धा हो चुका है, जो भूल चुका है कि आर्थिक संकट के दौर में ग़ैर-फ़ासीवादी पूँजीवादी पार्टियों और संशोधनवादी पार्टियों के पापों के नतीजे के तौर पर ही एक धुर दक्षिणपन्थी पूँजीवादी व टटपुँजिया प्रतिक्रिया के तौर पर फ़ासीवादी उभार होता है। केवल असुधारणीय सुधारवाद और संशोधनवाद की शिकार संसदीय वामपन्थी पार्टियाँ ही ये ग़लतफ़हमी जनता के बीच पैदा कर सकती हैं कि कांग्रेस, राजद, आदि से तालमेल करके चुनावी तौर पर भाजपा को हरा देने का अर्थ फ़ासीवाद को हराना होगा। 2004 में जब भाजपा लोकसभा चुनाव हार गयी थी तो भी संसदीय वामपन्थियों ने इसी तरह के दावे किये थे। उसके बाद जब 2009 में भाजपा दोबारा लोकसभा चुनाव हारी तो भी तमाम लिबरलों व संसदीय वामपन्थियों ने इसी प्रकार के दावे किये थे। लेकिन 2008 में वैश्विक मन्दी की शुरुआत और 2010-11 तक उसके प्रभाव के भारतीय अर्थव्यवस्था पर पहुँचने के साथ ही भारत के पूँजीपति वर्ग के सामने भी मुनाफ़े की गिरती दर का संकट पैदा हो चुका था और उसे फ़ासीवादी भाजपा और मोदी जैसे “मज़बूत नेता” की ज़रूरत महसूस होने लगी थी। 2011 से ही भारत के पूँजीपति वर्ग ने मोदी के पक्ष में एकजुट होना, उसे आर्थिक तौर पर पूरी मदद पहुँचाना और अपने मीडिया के ज़रिये मोदी के पक्ष में राय बनाना शुरू कर दिया था। नतीजतन, 2014 में मोदी अभूतपूर्व बहुमत के साथ सत्ता में पहुँचा और 2019 में यह बहुमत और भी विस्तारित हो गया। 2024 में अगर मोदी चुनाव हार भी जाता है, जिसकी गुंजाइश अभी कम ही दिखती है, और भाजपा की जगह किसी प्रकार का कांग्रेस-नीत मोर्चा या कोई संयुक्त मोर्चा सरकार बनाता है, तो वह फ़ासीवाद की निर्णायक हार नहीं होगी। उल्टे होगा यह कि ऐसी सरकार की नीतियाँ संकटग्रस्त पूँजीपति वर्ग को उसके संकट से निजात नहीं दिला पायेंगी। गहराते संकट में मज़दूरों, मेहनतकशों, आदिवासियों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों, दलितों आदि के आर्थिक और सामाजिक हक़ों पर हमला कर संकट से कुछ राहत पाने के लिए भारत के टाटा, बिड़ला, अम्बानी, अडानी आदि बड़े पूँजीपति वर्ग को फिर से एक “मज़बूत नेतृत्व” की ज़रूरत पड़ेगी और एक बार फिर अपनी अकूत पूँजी के अभूतपूर्व समर्थन से किसी मोदी या उससे भी ज़्यादा पाशविक और बर्बर फ़ासीवादी नेता, जैसे कि योगी को सत्ता में पहुँचाने की लहर पैदा की जायेगी।
इसलिए चुनावों में यदि फ़ासीवादी पार्टी हार भी जाये, तो उसे फ़ासीवाद की हार समझने की भूल करना मज़दूर वर्ग के लिए आत्मघाती होता है। यही भूल तमाम संशोधनवादी पार्टियाँ कर रही हैं। हालाँकि महागठबन्धन बनाकर भी बिहार विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन को हराया नहीं जा सका। बावजूद इसके कि बिहार में प्रवासी मज़दूरों की लॉकडाउन के दौरान लाखों की संख्या में वापसी हुई थी, उन्हें अपने राज्य में कोई रोज़गार नहीं मिला था, उन्हें भयंकर तकलीफ़ और किल्लत के दिन देखने पड़े थे और अन्तत: कोरोना संकट के माहौल में ही वापस शहरों की ओर पलायन करना पड़ा था और इस वजह से उनमें काफ़ी ग़ुस्सा भी था। इसके कई कारण थे, जिन्हें तभी समझा जा सकता है जबकि एक फ़ासीवादी पार्टी के तौर पर भाजपा और उसके पीछे खड़े टटपुँजिया वर्गों के प्रतिक्रियावादी आन्दोलन के चरित्र को समझा जा सके।
पहली बात तो यह कि भाजपा के पीछे संघ परिवार का एक संगठित काडर ढाँचा खड़ा है। यह ढाँचा केवल चुनावों के दौरान सक्रिय नहीं होता, बल्कि यह फ़ासीवादी विचारधारा से प्रेरित है और एक स्वचालित यंत्र के समान लगातार काम करता रहता है। इस ढाँचे ने देशभर में छोटी-छोटी शाखाओं से लेकर स्कूलों, अस्पतालों, व तमाम सुधार की संस्थाओं के रूप में संस्थाओं का एक पूरा तानाबाना खड़ा किया है। इसके अलावा, बजरंग दल, दुर्गा वाहिनी, विश्व हिन्दू परिषद के रूप में इनके पास आतंक फैलाने की अपनी ब्रिगेड्स हैं, जो समाज में सतत् सक्रिय रहती हैं और आर्थिक व सामाजिक असुरक्षा झेल रहे निम्न मध्य वर्ग के युवाओं के ग़ुस्से और प्रतिक्रिया को मुसलमानों, दलितों, कम्युनिस्टों आदि के रूप में एक नकली शत्रु मुहैया कराती हैं और इसी नकली शत्रु के विरुद्ध उन्हें इकट्ठा करती हैं। यह जो पूरा सांगठनिक ढाँचा है, यह फ़ासीवादी संघ परिवार और भाजपा की सबसे बड़ी शक्ति है और इसे परास्त करने का काम किसी चुनावी जीत के ज़रिये हो ही नहीं सकता और एक बार जब यह ढाँचा अपने आपको सत्ता में सुदृढ़ीकृत कर लेगा, तो साम, दाम, दण्ड, भेद से यह सत्ता में टिके रहने का रास्ता भी निकाल लेगा और इसे चुनावों में हरा पाना भी मुश्किल होता जायेगा। अगर अगले लोकसभा चुनावों में मोदी सरकार की हार भी होती है, तो यह फ़ासीवाद के अगले ज़्यादा आक्रामक दौर की पूर्वपीठिका ही तैयार करेगा, ठीक उसी प्रकार, जैसे वाजपेयी सरकार के बाद संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की सरकार के दो कार्यकालों ने मोदी के उभार की पूर्वपीठिका तैयार की थी।
दूसरी बात जिसे समझना यहाँ ज़रूरी है वह यह है कि संघ परिवार और भाजपा के पीछे टटपुँजिया वर्गों का एक पूरा प्रतिक्रियावादी आन्दोलन खड़ा है। ये निम्न मध्यवर्ग और मध्यवर्ग भाजपा और संघ परिवार की ओर क्यों आकर्षित होते हैं, जबकि भाजपा सरकार की नीतियाँ इन्हें ही उजाड़ने का काम करती हैं? इसकी वजह यह है कि ये वे वर्ग हैं, जो कि संकट के दौर में न तो पूरी तरह आबाद होते हैं और न ही पूरी तरह बर्बाद। इनका एक हिस्सा उजड़कर मज़दूरों-मेहनतकशों की क़तारों में शामिल होता है, लेकिन एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा मज़दूर तो नहीं बनता, मगर उसके सिर पर मज़दूर बनने का ख़तरा हमेशा मँडराता रहता है। उसके सामने एक सामाजिक और आर्थिक असुरक्षा और अनिश्चितता लगातार मौजूद रहती है। यह असुरक्षा और अनिश्चितता उसके भीतर एक अन्धी प्रतिक्रिया पैदा करती है क्योंकि वह यह नहीं समझता कि इसके पीछे मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था और उसका संकट है। अपनी वर्ग प्रवृत्ति से वह मज़ूदर वर्ग से दूरी महसूस करता है और उसका सपना अधिक धनी और पूँजीपति बनने का होता है। बल्कि कहना चाहिए कि मज़दूर बन जाना उसका सबसे भयावह दु:स्वप्न होता है। ऐसे में, इन वर्गों की अन्धी प्रतिक्रिया को संघ परिवार मुसलमानों या किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में एक नकली दुश्मन देता है और बताता है कि, मिसाल के तौर पर, “चौदह करोड़ मुसलमान मतलब चौदह करोड़ बेरोज़गार हिन्दू”, इत्यादि (मानो, सभी मुसलमानों को रोज़गार प्राप्त हो! जबकि सच्चाई यह है कि बेरोज़गारी की दर मुसलमानों के बीच कहीं ज़्यादा है); उनके भीतर एक नकली भय पैदा किया जाता है कि मुसलमान न सिर्फ़ उनके आर्थिक भविष्य के लिए ख़तरा हैं, बल्कि उनके धर्म, उनकी ‘संस्कृति’, उनकी सभ्यता आदि के लिए भी ख़तरा हैं! यहाँ तक कि यह भय भी फैलाया जाता है कि मुसलमान उनकी “बहू-बेटियों” के लिए भी ख़तरा हैं! अनिश्चितता और असुरक्षा से थका हुआ टटपुँजिया दिमाग़ तर्क करने और इस प्रचार के झूठ को समझ पाने में असमर्थ होता है और उसकी अन्धी प्रतिक्रिया और हताशा को एक निशाना मिल जाता है और उसकी प्रतिक्रिया उसके ऊपर ही फूट पड़ती है। विडम्बना की बात है कि टटपुँजिया वर्गों की यह प्रतिक्रिया उनके भी हितों के विपरीत होती है और बड़ी इज़ारेदार पूँजी के हितों को फ़ायदा पहुँचाती है। लेकिन यह प्रतिक्रिया अन्धी प्रतिक्रिया ठीक इसीलिए तो कहलाती है। इसके अलावा, मध्यवर्गों व उच्च मध्यवर्गों में ही एक हिस्सा छोटे पूँजीपतियों, मालिकों, ठेकेदारों, धनी किसानों, सूदखोरों, आदि का भी है, जोकि मज़दूर वर्ग का किसी भी टाटा, बिड़ला, अम्बानी, अडानी से ज़्यादा बेरहमी से शोषण करते हैं। मज़दूर वर्ग के साथ इनका तीखा अन्तरविरोध इन्हें फ़ासीवादी प्रतिक्रिया की ओर ले जाता है। निश्चित तौर पर, फ़ासीवादी भाजपा और संघ परिवार मुख्यत: बड़ी इज़ारेदार पूँजी की सेवा करते हैं, लेकिन वे मज़दूर वर्ग के हक़ों को छीनने, उनके आन्दोलन को कुचलने और पूँजी के सामने उन्हें कमज़ोर और अशक्त बनाने का काम भी करते हैं, जो कि छोटी और मँझोली पूँजी को भी फ़ायदा पहुँचाता है। इसलिए छोटे पूँजीपति वर्ग को भी अपनी वजहों से एक “मज़बूत नेतृत्व” की ज़रूरत महसूस होती है जो कि तानाशाहाना तरीक़े से मज़दूरों का दमन कर सके। इन्हीं टटपुँजिया वर्गों के बूते फ़ासीवादी संघ परिवार के पीछे एक पूरा संगठित प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन खड़ा है, जोकि हर चुनाव में या ग़ैर-चुनावी कार्य में उसके पीछे खड़ा होता है, और इसके कई हिस्से स्वयं बेरोज़गारी, महँगाई की मार झेलने के बावजूद अपनी प्रतिक्रिया और अल्पसंख्यकों के प्रति नफ़रत से संचालित होकर संघ परिवार व भाजपा का ही समर्थन करते हैं। इसी प्रक्रिया में तथाकथित ऊँची जातियों के मध्यवर्ग व निम्न मध्यवर्ग की प्रतिक्रिया को भी फ़ासीवादी अपने पक्ष में खड़ा करते हैं और दलितों व मुसलमानों के ख़िलाफ़ उसका इस्तेमाल करते हैं।
तीसरा कारण वह कारक है, जिसके बिना उपरोक्त दो कारक भी हरकत में नहीं आ सकते हैं। यह कारक है भारत के समूचे बड़े इज़ारेदार पूँजीपति वर्ग का भाजपा, संघ परिवार और मोदी-शाह को लगभग एकमत समर्थन। कोरोना संकट के पहले से ही भारतीय अर्थव्यवस्था संकट में घिरी हुई थी। मार्च 2020 में बिना किसी योजना और तैयारी के लागू हुए लॉकडाउन ने इसकी कमर पूरी तरह से तोड़कर रख दी जबकि कोरोना महामारी पर क़ाबू पाने में भी मोदी सरकार बुरी तरह असफल रही। इन सभी कारकों ने आर्थिक संकट को अभूतपूर्व रूप से गम्भीर बना दिया। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दर पहली बार शून्य के क़रीब पहुँच गयी। आर्थिक वृद्धि में 24 प्रतिशत की गिरावट आ गयी। इसका अर्थ क्या था? इसका अर्थ हम मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए यह था कि मुनाफ़े की दर के अभूतपूर्व रूप से गिरने के कारण पूँजीपति वर्ग द्वारा वास्तविक उत्पादक अर्थव्यवस्था में निवेश बेहद कम हो गया, जिसका नतीजा छँटनी-तालाबन्दी और भयंकर बेरोज़गारी के रूप में सामने आया। कोरोना संकट की शुरुआत के बाद से क़रीब 8 करोड़ लोग अपनी नौकरियों से हाथ धो चुके हैं। पूँजीपति वर्ग को मोदी सरकार ने इस दौर में भी तरह-तरह की सौग़ातें देकर संकट के असर को उस पर कम करने का प्रयास किया, लेकिन इन सबके बावजूद पूँजीपति वर्ग अभी संकट के बोझ तले कराह ही रहा है। निश्चित तौर पर, कुछ इज़ारेदार घरानों को इस दौर में भी सट्टेबाज़ी, सरकार द्वारा मिली छूट, जनता की सम्पत्तियों व प्राकृतिक सम्पदा को कौड़ियों के दाम सौंपे जाने और ऑनलाइन ट्रेडिंग आदि से काफ़ी मुनाफ़ा हुआ, लेकिन समूचे पूँजीपति वर्ग की बात की जाये, तो वह घाटे और संकट की मार झेल रहा है। ऐसे में, पूँजीपति वर्ग को फ़ासीवादी भाजपा और संघ परिवार के सत्ता में बने रहने की ज़रूरत है और वह एक स्वर में मोदी के पीछे खड़ा है। यही कारण है कि हर चुनाव में भाजपा के पास आर्थिक संसाधनों का ऐसा अम्बार होता है कि सारी चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करना, प्रचार पर हज़ारों करोड़ बहाकर, वोटरों के बीच करोड़ों रुपये बाँटकर और प्रशासन में अपनी गोटियाँ बिठाकर चुनावों में जीत हासिल करने के लिए वह हमेशा बेहतर स्थिति में होती है। बिहार के विधानसभा चुनावों में भी भाजपा की सीटें 2015 के मुक़ाबले बढ़ने का एक अहम बुनियादी कारण पूँजीपति वर्ग का यह समर्थन भी रहा है। निश्चित तौर पर, 2019 के लोकसभा चुनावों की तुलना में भाजपा का वोट प्रतिशत घटा है, लेकिन सभी जानते हैं कि लोकसभा चुनावों व विधानसभा चुनावों में एक ही तर्क काम नहीं करता है।
ये तीन कारण हैं, जिनके चलते भाजपा और संघ परिवार ने देश के भयंकर आर्थिक हालात, विकराल बेरोज़गारी और कमरतोड़ महँगाई के बावजूद, उस हद तक वोटरों का आक्रोश नहीं झेला, बल्कि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, राम मन्दिर आदि के नाम पर वोटों की एक फ़ासीवादी गोलबन्दी करने में सफल रहे।
लेकिन यदि भाजपा इन चुनावों में हार भी जाती, तो क्या उसे संघी फ़ासीवाद की निर्णायक हार माना जाता, या उसे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन के रथ को रोक लिया जाना माना जा सकता था? नहीं! यह ग़लतफ़हमी ही है, जिसके कारण तमाम प्रगतिशील बुद्धिजीवी भी बिहार में संसदीय वामपन्थ और तेजस्वी यादव के राजद के बीच हुए गठबन्धन को सराह रहे थे और ये उम्मीद लगाये बैठे थे कि भाजपा चुनाव हार जायेगी। वैसे तो ये उम्मीदें ही खोखली साबित हुईं लेकिन अगर भाजपा इन विधानसभा चुनावों में हार भी जाती, तो आगे चलकर पहले से भी ज़्यादा आक्रामक फ़ासीवादी उभार की ही ज़मीन तैयार होती। क्यों? इसके कारणों पर थोड़ा विचार करना ज़रूरी है।
संघ परिवार और भाजपा का फ़ासीवादी उभार हुआ ही क्यों था? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना तो 1925 में हुई थी, लेकिन एक शक्तिशाली प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन के तौर पर वह 1985-86 में ही अस्तित्व में आता है। उससे पहले छह दशकों तक संघ परिवार चुपचाप समाज में अपनी संस्थाओं का तानाबाना खड़ा करता है, राज्यसत्ता के उपकरण में, जैसे कि सेना, पुलिस, नौकरशाही और यहाँ तक कि न्यायपालिका में घुसपैठ करता है, लेकिन अभी भी संघ परिवार को बनियों/व्यापारियों-दुकानदारों का ही संगठन माना जाता था। व्यापक जनसमुदायों में, यानी समूचे निम्न मध्यवर्ग व मध्यवर्ग में और लम्पट सर्वहारा वर्ग में अपनी गहरी पकड़ 1980 के दशक तक संघ परिवार नहीं बना पाया था। 1970 के दशक से ही भारतीय पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद सन्तृप्ति बिन्दु पर पहुँच रहा था और ठहराव और संकट का शिकार हो चुका था। यह संकट 1980 के दशक के शुरू होने के ठीक पहले और ठीक बाद के वर्षों में और फिर 1980 के दशक के अन्तिम वर्षों में काफ़ी गम्भीर रूप में प्रकट होने लगा था। यही वह दौर था जबकि एक ओर पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग की लूट में लगी सभी बाधाओं को हटाने, हर प्रकार के सरकारी नियंत्रण व विनियमन से छुटकारा पाने के लिए बेताब हो रहा था, और यही वह समय था जबकि 40 वर्षों के पूँजीवादी विकास के बाद टटपुँजिया वर्ग का निम्नतर हिस्सा संकट के कारण उजड़ रहा था जबकि टटपुँजिया वर्गों का ऊपरी हिस्सा सरकारी विनियमन, जिसे कि राजीव गांधी ने इंसपेक्टर राज-लाइसेंस राज-कोटा राज की संज्ञा दी थी, से छुटकारा चाहता था और बड़ा पूँजीपति बनने के सपने पाले बैठा था। अलग-अलग कारणों से ये सभी वर्ग पुराने पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद के संकट से नाराज़ और असन्तुष्ट थे। इन्हीं वर्गों के अस्पष्ट असन्तोष और अन्धी प्रतिक्रिया को राम जन्मभूमि आन्दोलन ने एक मक़सद दिया, एक अभिव्यक्ति दी, एक नक़ली दुश्मन दिया और इस प्रकार संघ परिवार एक प्रतिक्रियवादी सामाजिक आन्दोलन के रूप में उभरा। शुरू में इसे स्वदेशी का राग गाने की आवश्यकता थी, सो इसने गाया, लेकिन बड़े पूँजीपति वर्ग को इससे कोई ग़लतफ़हमी नहीं थी और वह जानता था कि इस फ़ासीवादी शक्ति को पालने-पोसने का फ़ायदा ही हुआ है और आगे भी होगा और जब ज़रूरत पड़ेगी तो इसे सत्ता में पहुँचाने का भी फ़ायदा ही होगा।
यानी फ़ासीवाद का भारत में उभार शुरू ही पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद के आर्थिक व राजनीतिक संकट से हुआ था। यह तब तक का खोखला कल्याणवाद और दिखावटी सुधारवाद ही था, जिसका ख़र्च संकट के दौर में पूँजीपति वर्ग उठाने को तैयार नहीं था और इसीलिए फ़ासीवादी संघ परिवार और उसके आन्दोलन को उसने प्रश्रय दिया। यही वह दौर था जब टटपुँजिया वर्ग के ऊपरी और निचले हिस्से अपने-अपने कारण से असन्तुष्ट थे, एक सरकारी विनियमन के कारण और दूसरा उजड़ने या उजड़ने के ख़तरे के कारण। इन वर्गों ने भी अपने भय और असुरक्षा में संघ परिवार को समर्थन दिया और उसका सबसे मज़बूत सामाजिक आधार बना।
1991 में नवउदारवादी नीतियों का आरम्भ कांग्रेस सरकार करती है। उसके बाद निजीकरण व उदारीकरण की प्रक्रिया को कांग्रेस पाँच वर्षों तक चलाती है, जिसमें कई पब्लिक सेक्टर कम्पनियाँ बेची जाती हैं, सरकारी विनियमनों को कम किया जाता है, पुराने राजकीय नियंत्रण को क्रमिक प्रक्रिया में हटाया जाता है। 1996 से 1998 का दौर संयुक्त मोर्चे की सरकारों का रहा, जिसमें यह उदारीकरण की प्रक्रिया अपेक्षाकृत कम रफ़्तार से जारी ही रही। 1997-98 में एशियाई टाइगर कहे जाने वाले दक्षिण-पूर्वी एशिया की कई मॉडल पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं के धराशायी होने का असर पूरी दुनिया और भारत की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा। इसी दौर में, वाजपेयी सरकार के रूप में भाजपा पहली बार केन्द्र में सरकार बनाती है, हालाँकि अपने दम पर नहीं। वाजपेयी सरकार के लगभग छह साल में भारतीय पूँजीपति वर्ग के लिए संघ परिवार हरसम्भव काम करता है। एक विनिवेश मंत्रालय बनाकर जनता की गाढ़ी कमाई से खड़े किये गये तमाम उद्योगों को निजी पूँजीपतियों को कौड़ियों के दाम बेचा गया। 2002 में वाजपेयी सरकार ने श्रम क़ानूनों को बर्बाद करने के लिए श्रम आयोग स्थापित किया, लेकिन उसके पहले ही वाजपेयी सरकार ने श्रम क़ानूनों की “बाधा” को पूँजीपतियों के रास्ते से हटाने की शुरुआत कर दी थी। उदारीकरण की प्रक्रिया को और भी तेज़ करते हुए अन्य प्रकार के विनियमनों से भी पूँजीपति वर्ग को वाजपेयी के शासन के दौरान छूट दी गयी। छह वर्षों में वाजपेयी सरकार ने वह काम “मज़बूती” से किया जिसके लिए पूँजीपति वर्ग ने उसे सत्ता में पहुँचाया था। इसी बीच नरेन्द्र मोदी ने गुजरात दंगों के दौरान मुसलमानों के राज्य-प्रायोजित नरसंहार को भी अंजाम दिया, जिसने कि धुर दक्षिणपन्थी प्रतिक्रिया के लिए एक नया ‘पोस्टर बॉय’, ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ और भावी नेता पैदा कर दिया था। गुजरात में अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ फ़ासीवादी आतंक फैलाने के अलावा, मज़दूरों के हर आन्दोलन को बर्बरता से कुचलने और पूँजीपतियों के लिए पूरे गुजरात को लूट का खुला चरागाह बनाने में भी गुजरात की मोदी सरकार नये प्रतिमान क़ायम कर रही थी।
यहाँ भी हम देख सकते हैं कि यह आर्थिक संकट, छोटे मिल्कियों का उजड़ना, निम्न मध्यवर्ग व मध्यवर्ग का अधिक असुरक्षा और अनिश्चितता में जाना ही था, जिसने फ़ासीवादियों की गठबन्धन सरकार को सत्ता में पहुँचाया।
वाजपेयी सरकार के छह वर्षों के निजीकरण और उदारीकरण की आँधी ने तेज़ी से बेरोज़गारी और महँगाई को बढ़ावा दिया। साथ ही सन 2000 से 2002-3 का समय एक नयी वैश्विक मन्दी का दौर था। इसका भी असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ना ही था और पड़ा भी। नतीजतन, अलोकप्रियता के कारण भाजपा 2004 का चुनाव हार गयी। 2004 से 2009 तक का दौर पहली संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार का था जब नवउदारवादी नीतियों को जारी रखते हुए, उसकी रफ़्तार कुछ कम की गयी, और साथ ही उसमें कल्याणवाद और सुधारवाद का मिश्रण भी किया गया। कल्याणवाद और सुधारवाद को मिश्रित करने में मुख्य योगदान माकपा और भाकपा का था जो कि कांग्रेस की संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार को समर्थन दे रहे थे। इन्हीं की राय और सलाह से मनमोहन सिंह सरकार ने ग़रीबों को मूर्ख बनाने के लिए और दिखावटी कल्याणवाद और सुधारवाद करने के क़दम उठाये जैसे कि सामाजिक सुरक्षा क़ानून, शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार और मनरेगा। इन सब नीतियों का दिखावटी चरित्र आज देश की मेहनतकश जनता के सामने है। मनरेगा जैसी नीति इसलिए भी ज़रूरी थी क्योंकि गाँवों से शहरों की ओर प्रवास की गति और दर पर कुछ नियंत्रण करना था और मनरेगा ने कम-से-कम कुछ राज्यों में यह किया भी। लेकिन वास्तव में इसने गाँवों में बेरोज़गारी पर कोई ख़ास असर नहीं डाला। यह भुखमरी के स्तर पर गाँव के ग़रीबों को ज़िन्दा रखने और गाँवों में रोके रखने का एक क़दम था।
लेकिन 2008 में वैश्विक संकट की शुरुआत हुई और 2011-2012 तक भारतीय अर्थव्यवस्था भी संकट के भँवर में प्रवेश कर चुकी थी। संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार का दूसरा कार्यकाल इस समय चल रहा था। लेकिन अब कांग्रेस और संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन भारत के पूँजीपति वर्ग के लिए अधिक से अधिक अप्रासंगिक होते जा रहे थे। पूँजीपति वर्ग के विभिन्न धड़ों के बीच संकट के दौर में अन्तरविरोध बढ़ रहे थे। इस दौर में हुए भ्रष्टाचार और घोटालों की घटनाओं के पीछे यह आर्थिक संकट भी था, जो कि दिखला रहा था कि संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन की सरकार समूचे पूँजीपति वर्ग के वर्ग हितों का सामूहिकीकरण नहीं कर पा रही थी और इन सामूहिक पूँजीवादी वर्ग हितों को “राष्ट्रीय हितों” के तौर पर जनता के सामने पेश नहीं कर पा रही थी। पूँजीपति वर्ग के धड़ों के बीच दरारें जनता के सामने भ्रष्टाचार और घपलों के रूप में भी प्रकट हो रही थीं। पूँजीपति वर्ग को इस समय एक अलग क़िस्म की राजनीतिक नुमाइन्दगी और नेतृत्व की आवश्यकता थी, जो अधिक कठोर हाथों से बचे-खुचे श्रम क़ानूनों को भी बेअसर कर सके और मज़दूरों के हर प्रकार के प्रतिरोध को कुचल सके, जो कि प्राकृतिक सम्पदा को आदिवासियों के प्रतिरोध को और भी बर्बरता से कुचलकर कारपोरेट घरानों के हवाले कर सके, जो हर सामाजिक व आर्थिक रूप से शोषित-उत्पीड़ित तबक़े के प्रतिरोध को कुचलकर और जाति-धर्म के नाम पर बाँटकर कमज़ोर कर सके। गुजरात में इस प्रकार के नेतृत्व का मॉडल मोदी की फ़ासीवादी सरकार पेश कर चुकी थी। यही वजह थी कि देश के पैमाने पर मोदी की भाजपा सरकार बनाने के प्रति पूँजीपति वर्ग की एकराय बनने लगी। यह प्रक्रिया 2012 से स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है।
यही दौर देश में बेरोज़गारी और महँगाई की दरों में भारी बढ़ोत्तरी का भी दौर था, जोकि 2011 से भारतीय अर्थव्यवस्था के संकट के गहराने की ही अभिव्यक्ति था। एक बार फिर से सामाजिक और आर्थिक असुरक्षा, राजनीतिक चेतना से रिक्त टटपुँजिया व लम्पट मेहनतकश वर्ग में एक अन्धी प्रतिक्रिया को बढ़ावा दे रही थी। उसे अलग कारणों से एक “मज़बूत नेतृत्व” की आकांक्षा थी। उसे लगता था कि मोदी सरकार साफ़-सुथरी, मज़बूत सरकार होगी जो कि भ्रष्टाचार को समाप्त कर देगी, जादू की छड़ी घुमाकर महँगाई दूर कर दी जायेगी, अपराध ख़त्म कर दिया जायेगा, बेरोज़गारी दूर कर दी जायेगी! वह यह कभी नहीं सोचता कि यह महँगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार आदि के ढाँचागत कारण क्या हैं और वह कैसे दूर हो सकती है! व्यक्तिवाद और नेतृत्व-पूजा उसके वर्ग की विचारधारा का एक अंग होता है और उसे वर्ग स्वभाव से लगता है कि एक तानाशाह जैसा मज़बूत नेता आकर सबकुछ ठीक कर देगा! मध्यवर्ग को लगता है कि वह अपने रोज़मर्रा के दफ़्तरी काम ज़्यादा आसानी से करवा लेगा, उसे घूस नहीं देनी पड़ेगी, उसका बिजली का बिल जल्दी जमा हो जायेगा, उसके घर की स्त्रियों को कोई नहीं छेड़ेगा, अपराध ख़त्म हो जायेगा, मुसलमानों, दलितों और औरतों को उनकी जगह दिखला दी जायेगी, पूर्ण अनुशासन और शान्ति होगी…यानी कि उसके सपनों का “रामराज्य” आ जायेगा! यह सपना भी उसे फ़ासीवादी शक्तियाँ ही दिखलाती हैं और उसके वर्ग स्वभाव और पितृसत्तात्मक मूल्यों के कारण उसे यह सपना काफ़ी भाता भी है। लम्पट सर्वहारा वर्ग का एक हिस्सा अपनी मज़दूर वर्गीय चेतना के पूर्ण अभाव के कारण इस फ़ासीवादी लहर में शामिल होता है। उसके जीवन में एक लक्ष्यहीनता और शून्य होता है। “राष्ट्रवाद”, “रामराज्य” और एक नक़ली दुश्मन के जुमले उसे लक्ष्य देते हैं और उसके जीवन के शून्य को भरते हैं।
मोदी के 2014 में और फिर 2019 में सत्ता में आने के पीछे ये ही दो कारक थे: बड़े पूँजीपति वर्ग का समर्थन और टटपुँजिया वर्गों का प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन। ये दोनों कारक पैदा ही पूँजीवाद के संकट और उदार पूँजीवादी जनवाद के संकट के कारण होते हैं। इसलिए फ़ासीवाद को चुनाव में हराकर उसकी जगह वापस उदार पूँजीवादी जनवाद को स्थापित करना और कल्याणवाद और सुधारवाद का रास्ता अपनाना, लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था की चौहद्दियों को चुनौती न देना, मज़दूर वर्ग की सक्रियता को पूँजीवादी जनवादी दायरे में सीमित करना और उसे तमाम गैर-फ़ासीवादी पूँजीवादी व संशोधनवादी पार्टियों का पिछलग्गू बनाना, और कुछ नहीं, बल्कि कालान्तर में और भी ज़्यादा आक्रामक फ़ासीवादी उभार की ज़मीन ही तैयार करता है। क्या अभी तक हम यह देखते नहीं आये हैं? जब आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित किया गया, तो हमारे देश के लिबरल भावुक होकर वाजपेयी को याद करने लगे; जब मोदी की सरकार बनी और उसने अपने असली रंग दिखाने शुरू किये, तो ये ही लिबरल आडवाणी के साथ कुछ ज़्यादा ही सहानुभूति महसूस करने लगे और कहने लगे कि कम-से-कम आडवाणी “इतना फ़ासीवादी” नहीं था; अगर कालान्तर में मोदी की चुनावी हार होती है, और किसी ग़ैर-फ़ासीवादी पूँजीवादी सरकार के पाँच साल के बाद पूँजीवादी संकट के और गहराने के कारण मोदी से भी ज़्यादा बर्बर, असभ्य फ़ासीवादी प्रतिक्रिया पैदा होती है, मसलन, योगी के नेतृत्व के रूप में, तो ये ही लिबरल नॉस्टैल्जिक होकर मोदी सरकार को भी याद कर सकते हैं और कह सकते हैं कि “कम-से-कम मोदी सरकार इतनी बुरी तो नहीं थी!” ये लिबरल प्रगतिशील बुद्धिजीवियों तक की ख़ासियत है।
सबसे अच्छी बात यह होती कि बिहार विधानसभा चुनावों में महागठबन्धन जीत जाता। इसके कारण संसदीय वामपन्थ जितना नंगा हो सकता था, उतना नंगा वह अब नहीं हो पायेगा और उसको लेकर प्रगतिशील दायरों में विभ्रम ज़्यादा दिनों तक बरक़रार रहेगा। जो सही मायने में क्रान्तिकारी तत्व हैं और समझदार वर्ग चेतना वाले मज़दूर हैं, वे तो आज भी समझ रहे हैं कि फ़ासीवाद को हराने के नाम पर उस राजद के साथ हाथ मिलाना जो लिबरेशन के ही छात्र नेता चन्द्रशेखर की हत्या के लिए ज़िम्मेदार है, जिसमें आज भी अनन्त कुमार सिंह जैसे आपराधिक तत्व शामिल हैं, किसी भी रूप में सर्वहारा क्रान्तिकारी लाइन नहीं है। लेकिन तमाम ऐसे प्रगतिशील लिबरल बुद्धिजीवी जो मोदी राज से त्रस्त हो चुके हैं, जिनके पास कोई ऐतिहासिक दृष्टि नहीं है, जो यह नहीं समझते कि फ़ासीवाद को चुनावी खेल में हराने का अर्थ फ़ासीवाद को हराना नहीं है, बल्कि फ़ासीवाद पूँजीवाद के अन्तकारी संकट के दौर में परजीवी व मरणासन्न पूँजीवादी प्रतिक्रिया है, जोकि पूँजीवादी व्यवस्था के रहते ख़त्म नहीं हो सकता है; उन्हें ही यह लगता है कि तात्कालिक तौर पर किसी भी अवसरवादी चुनावी मोर्चे से पूँजीवादी चुनावों में फ़ासीवादी पार्टी को हराकर फ़ासीवाद को हराया जा सकता है। वह यदि सत्ता में नहीं रहता तो वह पूँजीपति वर्ग के वफ़ादार कुत्ते का काम करता है और पूँजीवाद के रहते उसके निरन्तर गहराते संकट का हर भँवर पहले से ज़्यादा आक्रामक फ़ासीवादी प्रतिक्रियावादी लहर को पैदा करता है, जैसा कि हम वाजपेयी से योगी तक की यात्रा में देख सकते हैं।
ऐसे में आज मज़दूर वर्ग की रणनीति क्या होनी चाहिए? पूँजीवादी व्यवस्था जब संकट के अभूतपूर्व दौर में फँसी हुई है, जब पूँजीपति वर्ग मुनाफ़े की गिरती दर के संकट से बिलबिला रहा है और जब यह स्पष्ट है कि वैश्विक पैमाने पर बिना किसी व्यापक युद्ध के ज़रिये मानवता और उत्पादक शक्तियों के भारी पैमाने पर विनाश के बिना पूँजीवादी व्यवस्था वापस तेज़ी के दौर में प्रवेश कर ही नहीं सकती है, तो उस समय मज़दूर वर्ग को अपना क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा करने की आवश्यकता है। पूँजीवादी संकट पूँजीवादी व्यवस्था की सीमाओं को हमारे सामने उजागर कर रहा है। ऐसे में मज़दूर वर्ग अपना लक्ष्य महज़ कुछ सुधार, कुछ कल्याण या कुछ आर्थिक अधिकारों को नहीं रख सकता है। यदि वह रखेगा तो वह और भी भयंकर पूँजीवादी फ़ासीवादी प्रतिक्रिया की ज़मीन तैयार करेगा। उसे अपने रोज़मर्रा के इन हक़ों की लड़ाई को समूची पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध समाजवादी क्रान्ति के संघर्ष से जोड़ना होगा। इस समाजवादी क्रान्ति के लक्ष्य के लिए आज सबसे ज़रूरी और पहला कार्यभार है, देशभर में एक क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी का निर्माण और गठन। ऐसी पार्टी के बिना पूँजीवादी संकट के रूप में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की घड़ियाँ आती रहेंगी और मज़दूर वर्ग इन मौक़ों को गँवाता रहेगा और हर बार उसकी सज़ा और भी ज़्यादा आक्रामक और बर्बर फ़ासीवादी लहर होगी।
पूँजीवादी चुनावों में भी मज़दूर वर्ग को अनिवार्यत: क्रान्तिकारी टैक्टिकल हस्तक्षेप करना ही होगा। यानी, यह विभ्रम पाले बिना कि पूँजीवादी चुनावों के ज़रिये ही समाजवाद के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है, मज़दूर वर्ग को चुनावों में अपनी क्रान्तिकारी पार्टी के उम्मीदवार खड़े करने होंगे। क्यों? इसलिए कि यदि मज़दूर वर्ग का क्रान्तिकारी हिरावल यह समझता है कि चुनावों के रास्ते ही समाजवाद नहीं आ सकता है, तो उसके आधार पर यह नहीं माना जा सकता है कि पूरा मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी भी पूँजीवादी चुनावों, संसदों आदि की अप्रासंगिकता को समझती हो; इनकी ऐतिहासिक और राजनीतिक अप्रासंगिकता समूचे मेहनतकश अवाम के सामने क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी द्वारा इन चुनावों में रणकौशलात्मक हस्तक्षेप के ज़रिये ही उजागर हो सकती है। दूसरी वजह यह है कि यदि सर्वहारा वर्ग पूँजीवादी चुनावों के क्षेत्र में अपने स्वतंत्र राजनीतिक पक्ष को खड़ा नहीं करता है, तो सर्वहारा वर्ग के व्यापक जनसमुदाय भी इस या उस पूँजीवादी व संशोधनवादी (यानी नाम से कम्युनिस्ट, मगर वास्तव में पूँजीवादी) पार्टियों का पिछलग्गू बनता रहेगा। इन दोनों कारणों से निश्चित ही मज़दूर वर्ग को भी पूँजीवादी चुनावों में रणकौशलात्मक हस्तक्षेप करना चाहिए।
लेकिन सवाल यह है कि फ़ासीवाद के विरुद्ध मोर्चे के नाम पर क्या क्रान्तिकारी मज़दूर पक्ष राजद जैसी पार्टियों के साथ मोर्चा बना सकता है? क्या वह संशोधनवादी पार्टियों के साथ मोर्चा बना सकता है? चुनाव में पूँजीवादी शक्तियों से फ़ासीवाद-विरोध के नाम पर ऐसे अवसरवादी मोर्चा बनाना तो दिमित्रोव की ‘पॉपुलर फ़्रण्ट’ की कार्यदिशा भी नहीं है, जिसका हवाला कई संशोधनवादी और लेफ़्ट-लिबरल बुद्धिजीवी आजकल दे रहे हैं! और वैसे भी आज के दौर में दिमित्रोव की ‘पॉपुलर फ़्रण्ट’ की फ़ासीवाद-विरोधी रणनीति लागू भी नहीं हो सकती है। अलग-अलग मुद्दों पर फ़ासीवादियों के विरुद्ध अवश्य ही संशोधनवादी पार्टियों के साथ मोर्चे बन सकते हैं, लेकिन कोई भी आम मोर्चा, जैसेकि चुनावों में रणकौशलात्मक हस्तक्षेप का मोर्चा, उनके साथ नहीं बन सकता है। वैसे भी ये संशोधनवादी ताक़तें इन चुनावों में रणकौशलात्मक हस्तक्षेप नहीं कर रही हैं, बल्कि रणनीतिक तौर पर इसमें भागीदारी कर रही हैं। यानी वे क्रान्तिकारी रणनीति को कब का छोड़ चुकी हैं।
फ़ासीवाद-विरोधी मोर्चा किन शक्तियों के बीच बन सकता है? वह केवल और केवल उन क्रान्तिकारी शक्तियों के बीच ही बन सकता है जो कि वामपन्थी आतंकवाद की दीवालिया लाइन पर नहीं चल रही हैं, जैसे कि भाकपा-माओवादी (याद रहे कि माओवाद का भाकपा-माओवादी के “माओवाद” से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है) और दूसरा जो कि भारत को अर्द्धसामन्ती-अर्द्धऔपनिवेशिक मानने के महादीवालिया कार्यक्रम से कोई रिश्ता नहीं रखते हैं। भारत को अर्द्धसामन्ती-अर्द्धऔपनिवेशिक मानने वाले नरोदवादी कम्युनिस्टों से कोई चुनावी मोर्चा इसलिए नहीं बन सकता है क्योंकि आज के भारत में उनके अनुसार क्रान्ति की मित्र शक्तियाँ बिल्कुल अलग होंगी, जिनमें कि उनका काल्पनिक “राष्ट्रीय” पूँजीपति वर्ग भी शामिल होगा, जोकि विडम्बना की बात यह है कि क़तई नवजनवादी क्रान्तिकारी अर्थों में “राष्ट्रीय” नहीं है, बल्कि आज हमारे नरोदवादी कम्युनिस्टों का यही “राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग” मोदी सरकार और फ़ासीवाद का प्रमुख सामाजिक आधार बना हुआ है! जो क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शक्तियाँ इस बात को समझती हैं कि भारत एक अपेक्षाकृत रूप से पिछड़ा लेकिन एक पूँजीवादी देश है और वहाँ क्रान्ति की मंज़िल समाजवादी क्रान्ति है, वे ही एक सही प्रकार का क्रान्तिकारी वर्गीय संयुक्त मोर्चा बना सकते हैं, वे क्रान्ति के सही मित्र वर्गों की पहचान कर सकते हैं, हालाँकि उनमें से भी कई क्रान्तिकारी साहस के अभाव या अपने क़ौमवादी-किसानवादी भटकाव के कारण आजकल धनी किसानों-कुलकों के मंच पर कालीन के समान बिछे हुए हैं। केवल इसी प्रकार की ताक़तें पूँजीवादी चुनावों में भी फ़ासीवाद-विरोधी या आम तौर पर एक कम्युनिस्ट मोर्चा बना सकती हैं और मज़दूर वर्ग की राजनीतिक रूप से स्वतंत्र अवस्थिति को पेश कर सकती हैं।
बिहार विधानसभा चुनावों में अभी ऐसा कोई पक्ष विचारणीय रूप से मौजूद नहीं था। महागठबन्धन आम मेहनतकश जनता के पक्ष की नुमाइन्दगी क़तई नहीं करता था और अगर यह चुनावों में भाजपा को हरा भी देता तो इसे फ़ासीवाद की पराजय समझना उसी प्रकार आत्मघाती होता, जैसेकि 2004 और 2009 में भाजपा की पराजय को फ़ासीवाद की निर्णायक पराजय समझना आत्मघाती हुआ था। पूँजीवादी संकट के दौर में ग़ैर-फ़ासीवादी पूँजीवादी सरकारें केवल फ़ासीवाद के आगामी अधिक आक्रामक चक्र की शुरुआत की पूर्वपीठिका तैयार करती हैं, क्योंकि पूँजीवादी संकट अपनी नैसर्गिक गति से फ़ासीवादी प्रतिक्रिया की ज़मीन तैयार करता है। संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन या महागठबन्धन जैसी किसी भी पूँजीवादी सरकार द्वारा कितना भी अधिक कल्याणकारी कार्य किया जाये, कितना भी अधिक सुधारवादी कार्य किया जाये, पूँजीवादी संकट के दौर में फ़ासीवादी प्रतिक्रियावादी लहर को रोका नहीं जा सकता है। उल्टे जितना अधिक कल्याणवाद और सुधारवाद होता है, पूँजीपति वर्ग का संकट भी उतना ज़्यादा गहराता है और फ़ासीवादी प्रतिक्रिया भी उतनी ज़्यादा बर्बर और आक्रामक होती है।
ऐसे में मज़दूर वर्ग को चुनावी रणनीति से बाहर दीर्घकालिक तौर पर समाजवादी क्रान्ति के लिए पहले अपने आपको गोलबन्द और संगठित करना चाहिए, उसके साथ व्यापक मेहनतकश जनता को गोलबन्द और संगठित करना चाहिए, और एक क्रान्तिकारी पार्टी निर्मित करने में लग जाना चाहिए जोकि समूची मेहनतकश जनता का राजनीतिक नेतृत्व बन सके। यह बेहद मुश्किल और चुनौतीपूर्ण कार्य है, लेकिन दीर्घकालिक तौर पर यही मज़दूर वर्ग का लक्ष्य है। लेकिन सिर्फ़ इस दीर्घकालिक लक्ष्य को ध्यान में रखना पर्याप्त नहीं है। तात्कालिक तौर पर, मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी को अपनी रोज़मर्रा की माँगों के लिए अपनी क्रान्तिकारी पार्टी के अलावा अपने जनसंगठनों में भी संगठित होना होगा और इन माँगों के लिए सड़क पर उतरकर संघर्ष करना होगा; क्रान्तिकारी पार्टी को व्यापक मेहनतकश जनता में अपना मज़बूत समर्थन आधार बनाना होगा, मेहनतकश जनता के रिहायशी इलाक़ों में संगठन व संस्थाएँ खड़ी करनी होंगी और सड़कों पर फ़ासीवादी शक्तियों के हमलों के समक्ष आत्मरक्षा और संघर्ष के लिए अपने जुझारू संगठन खड़े करने होंगे। इसके बिना फ़ासीवादी शक्तियों का मुक़ाबला करना सम्भव नहीं है।
पूँजीवादी व्यवस्था पूरी दुनिया के ही पैमाने पर जिस दौर में पहुँच चुकी है, उसमें विभिन्न प्रकार की धुर दक्षिणपन्थी व फ़ासीवादी सरकारें लगातार आती-जाती रहेंगी और जो ग़ैर-फ़ासीवादी सरकारें भी आयेंगी वे पर्याप्त दमनकारी होंगी और मज़दूर वर्ग के ख़िलाफ़ फ़ासीवादी शक्तियों से सहयोग-सहकार करेंगी।
इस समस्या का पूर्ण और स्थायी इलाज तो समाजवादी क्रान्ति ही है। लेकिन तात्कालिक तौर पर भी मज़दूर वर्ग व मेहनतकश जनता को रोज़मर्रा के संघर्षों और फ़ासीवादी व प्रतिक्रियावादी शक्तियों से मुक़ाबले के लिए जुझारू और लड़ाकू तौर पर तैयार किये बिना उस दूरगामी लक्ष्य की ओर भी आगे नहीं बढ़ा सकता है, जिसकी चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं। इस दीर्घकालिक लक्ष्य और तात्कालिक कार्यक्रम के साथ मज़दूर वर्ग को अपने आपको एक स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित करना होगा और केवल तभी फ़ासीवाद को भी निर्णायक तौर पर शिकस्त दी जा सकती है और समाजवादी क्रान्ति की ओर भी आगे बढ़ा जा सकता है, क्योंकि पहले भी यह कहना बिल्कुल सही था लेकिन आज यह पहले हमेशा से ज़्यादा सही है कि समूची पूँजीवादी व्यवस्था को ख़त्म किये बिना महज़ फ़ासीवाद को ख़त्म करने की उम्मीद करना मूर्खतापूर्ण है: “जो समूची पूँजीवादी व्यवस्था के प्रश्न पर चुप है, उसे फ़ासीवाद के सवाल पर भी मुँह नहीं खोलना चाहिए।”

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2020

 

 

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