Categories
धर्म-अध्यात्म

गुरुकुल पौंधा में डॉक्टर सोमदेव शास्त्री द्वारा 11 उपनिषदों पर 11व्याख्यानों की वीडियो रिकॉर्डिंग का कार्य संपन्न

ओ३म्

============
प्रसिद्ध वैदिक विद्वान डा. सोमदेव शास्त्री, मुम्बई दिनांक 30 अक्टूबर, 2020 को मुम्बई से देहरादून पधारे थे। दिनांक5-11-2020 को वह देहरादून से रायपुर होते हुए गुरुकुल आमसेना उड़ीसा के लिए प्रस्थान कर गये हैं। देहरादून प्रवास में रहकर उन्होंने एक महत्वपूर्ण कार्य यह किया कि प्रतिदिन दो उपनिषदों का सार अपने लगभग 1 घंटे के प्रवचन में प्रस्तुत किया। गुरुकुल इन उपनषिदों पर डा. सोमदेव शास्त्री के व्याख्यान को यूट्यूब तथा फेस बुक के माध्यम से आनलाइन प्रसारित कर रहा है। लगभग सभी11 उपनिषदों की कथायें यूट्यूब तथा व्हटशप आदि के द्वारा प्रसारित की जा चुकी हैं। यह तथ्य है कि ऋषि दयानन्द ने10 उपनिषदों को वेदमूलक एवं प्रामाणिक माना है। ग्यारहवीं उपनिषद् श्वेताश्वतरोपनिषद् अर्वाचीन है जिसमें कुछ अवैदिक मान्यताओं का भी प्रतिपादन है। आचार्य डा. सोमदेव शास्त्री जी ने गुरुकुल पौंधा में दिनांक5-11-2020 को इसी उपनिषद की कथा को कहा जिसकी वीडियो रिकार्डिंग कर ली गई और इसे यूट्यूब पर प्रसारित किया जा रहा है। जब यह रिकार्डिंग की जा रही थी तो गुरुकुल के लगभग130 ब्रह्मचारी, स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती, वैदिक विद्वान श्री विरजानन्द दैवकरणि, आचार्य डा. यज्ञवीर जी, आचार्य डा. धनन्जय जी, आचार्य चन्द्रभूषण शास्त्री, आर्यसमाज डोभरी-देहरादून की सदस्य सदस्यायें तथा इन पंक्तियों का लेखक गुरुकुल में उपस्थित थे। यह भी बता दें कि एक-दो सप्ताह पूर्व ही डा. सोमदेव शास्त्री जी ने सम्पूर्ण वाल्मीकि रामायण की कथा को एक एक घण्टे के आर्यसन्देश टीवी चैनल के कार्यक्रमों के द्वारा प्रस्तुत किया है। जनता चाहती है कि टीवी चैनल द्वारा इस कथा के सभी एपीसोडों को यूट्यूब पर डाल दिया जाये जिससे लोग इससे लाभान्वित हो सकें। ऐसा हमें हमारे अनेक मित्रों ने कहा है।

श्वेताश्वतरोपनिद् सन्देश की कथा आरम्भ करते हुए आचार्य डा. सोमदेव शास्त्री जी ने कहा कि यह श्वेताश्वतरोपनिषद् अन्य 10 उपनिषदों की तुलना में अर्वाचीन प्रतीत होती है। प्राचीन वैदिक पद्धति में ग्रन्थारम्भ में ‘अथ’ या ‘ओ३म्’ शब्दों का प्रयोग किया जाता है जबकि इस उपनिषद् का आरम्भ हरिओम् शब्द से किया गया है। हरिओ३म् शब्द से ग्रन्थारम्भ की प्रथा पौराणिक है। इसका अर्थ है कि जब यह उपनिषद रची गई, उस समय पौराणिक परम्परायें आरम्भ हो चुकी थी। इस उपनिषद में सृष्टि में विद्यमान जड़ व चेतन पदार्थों की चर्चा की गई है। इस विशाल सृष्टि का रचनाकार कौन है? इस प्रश्न पर विचार कर इसमें बताया गया है कि काल अर्थात् समय सृष्टि का सबसे बड़ा कारण है। आचार्य जी ने काल की भी व्याख्या की और कहा किसी भी रचना में काल व्यतीत होता है व एक नियत काल पर ही कोई कार्य पूर्ण होता है। इसी प्रकार से सृष्टि की रचना में भी काल का महत्व होता ही है। इस प्रसंग में उन्होंने कहा कि कुछ अन्न व वनस्पतियां सर्दी में, कुछ गर्मी में तथा कुछ वर्षा काल में उत्पन्न में होती हैं। अतः उपनिषद् में इस प्रसंग में काल को ही सृष्टि का कर्ता माना गया है, अन्य किसी चेतन कारण को कर्ता नहीं माना गया है।

श्वेताश्वतरोपनिषद में सृष्टि की रचना पर विचार कर स्वभाव को सृष्टि रचना का दूसरा कारण कहा गया है। प्रत्येक पदार्थ का अपना अपना स्वाभाव होता है। अग्नि का गर्मी तथा वायु का स्पर्श गुण होता है। इसी प्रकार यह सृष्टि भी अपने स्वभाव से उत्पन्न होती है। इसे किसी अन्य कर्ता की रचना नहीं माना जा सकता, स्वभाव को ही रचयिता माना जाता है। इस उपनिषद में सुख व दुःख की भी चर्चा की गई है। इसमें मनुष्य जीवन में मिलने वाली सफलता पर भी विचार किया गया है तथा भाग्य पर भी विचार किया गया है। इसमें कहा गया है कि कुछ लोग नियति के आधार पर सृष्टि की रचना होना मानते हैं। आचार्य जी ने कहा कि प्रारब्ध कर्म के फल को कहते हैं। आचार्य जी ने क्रियमाण, संचित तथा प्रारब्ध कर्मों की व्याख्या की। उन्होंने कहा कि हमारे सुख व दुःख का कारण प्रारब्ध होता है। यही भाग्य कहलाता है। क्रियमाण, संचित तथा प्रारब्ध कर्मों के आचार्य जी ने सरल उदाहरण देकर इन्हें स्पष्ट किया। आचार्य जी ने बताया कि उपनिषद में यह उल्लेख है कि कुछ विद्वान सृष्टि की उत्पत्ति नियति आदि कारण से मानते हैं। आचार्य जी ने कहा कि सृष्टि की उत्पत्ति का एक सिद्धान्त यह भी प्रचलित है कि सृष्टि यदेच्छा से उत्पन्न होती है। सृष्टि व जड़ चेतन जगत को देखकर ज्ञान होता है कि यह पंच भूतों से बना है। वह मानते हैं कि संसार की उत्पत्ति के कारण पंच महाभूत हैं। कुछ ऐसे लोग भी है जो इस सृष्टि को स्त्री व पुरुष के सहयोग से बना हुआ मानते हैं। आचार्य डा. सोमदेव शास्त्री जी ने कहा कि उपनिषद् के आरम्भ में पांच छः विचारधारायें सृष्टि उत्पत्ति विषयक प्रस्तुत की गई हैं। इन विचारों को प्रस्तुत कर उपनिषद् में इन सबका समाधानात्मक उत्तर दिया गया है।

प्रथम ब्रह्म को सृष्टि का कारण माना गया है। आचार्य जी ने कहा कि जड़ पदार्थ को गति देने वाली एक सत्ता चेतन हुआ करती है। जल, अग्नि, सूर्य आदि का जो स्वभाव है, इन पदार्थों में उस स्वभाव को उत्पन्न करने वाली सत्ता को ब्रह्म कहते हैं। आचार्य जी ने कहा कि स्त्री व पुरुष सन्तान को जन्म देते हैं। परन्तु स्त्री व पुरुष से सन्तानों के शरीरों की रचना करने वाली भी एक अन्य सत्ता विद्यमान होनी चाहिये। आचार्य जी ने कहा कि सुख व दुःख जीवन में आते व जाते रहते हैं। अनेक चिकित्सा पद्धति तथा डाक्टरों के होते हुए भी वह किसी की मृत्यु को रोक व टाल नहीं सकते। अतः मनुष्य जीवन व उसकी मृत्यु की एक नियामक सत्ता होना सिद्ध होती है। आचार्य जी ने कहा कि समस्त संसार एक नियन्ता के नियंत्रण में चल रहा है। पृथिवी व सूर्य के बीच की जो दूरी है, उसे किसी चेतन सत्ता ने सोच विचार कर निर्धारित किया है। यदि किसी कारण यह कुछ कम या अधिक होती तो इससे पृथिवी पर मनुष्य व प्राणियों के जीवन में बाधा आती। ऐसा होने पर सृष्टि का सन्तुलन बिगड़ जाता। आचार्य जी ने कहा कि पृथिवी की गति उसकी आवश्यकता के अनुसार है। यह कभी कम व अधिक नहीं होती। समय पर दिन निकलता है और समय पर ही सूर्यास्त होकर रात्रि होती है। यह सब एक नियम के अनुसार निर्बाधरूप से हो रहा है। आचार्य जी ने सूर्य व चन्द्र ग्रहण की भी चर्चा की। उन्होंने कहा कि यह कार्य निर्विघ्न सम्पन्न होने से ज्ञात होता है कि सृष्टि में एक नियन्ता सत्ता विद्यमान है।

डा. सोमदेव शास्त्री ने कहा कि संसार में परमात्मा की बनाई व्यवस्थायें चल रही हैं। जीवात्माओं का जन्म होता है, जिसका जन्म होता वह बाल, युवा, प्रौढ़, वृद्ध होता है तथा उसकी मृत्यु भी होती है। यह व्यवस्थायें सुचारु रूप से चल रही हैं। एक व्यक्ति बीमार होता है। चिकित्सा शास्त्र, चिकित्सा और चिकित्सकों की उपस्थिति में रोगी मर जाता है। चिकित्सा व चिकित्सक ईश्वर के कार्य में बाधक नहीं बन सकते। उनमें इसकी शक्ति नहीं है। इसे ही परमात्मा की व्यवस्था का चलना कहते हैं। प्रश्न है कि परमात्मा ने यह संसार किसके लिये बनाया है? इसका उत्तर यह है कि यह संसार प्रकृति नामक जड़ पदार्थ से बना है। परमात्मा ने इसे बनाया है। परमात्मा सर्वव्यापक है तथा जीवात्मा अल्पज्ञ है। परमात्मा और जीव में समानतायें भी हैं और असमानतायें भी हैं। आचार्य जी ने कहा कि प्रकृति क्षर भी है और अक्षर भी है। प्रलय की अवस्था में प्रकृति अक्षर होती है। विद्वान आचार्य डा. सोमदेव शास्त्री ने कहा कि प्रकृति रोहित, शुक्ल तथा कृष्ण वर्ण वाली है। इसका अर्थ है कि प्रकृति में सक्रियता है, सत्व गुण है तथा अन्धंकार भी है।

आचार्य डा. सोमदेव शास्त्री जी ने कहा कि संसार में भोक्ता, भोग्य और प्रेरिता तीन सत्तायें हैं। जीव प्रकृति वा सृष्टि का भोक्ता है, प्रकृति भोग्य है और प्रेरिता परमात्मा है। जीव मनुष्य आदि जन्म लेकर अपने पूर्व कर्मों के सुख व दुःख रूपी फलों को भोगता है। प्रकृति भोग्य है। बिना भोगता के भोग्य का उपयोग नहीं होता। जीवात्मा के लिये प्रकृति से बना हुआ संसार होना आवश्यक है। प्रकृति से सृष्टि की रचना की प्रेरणा करने वाले परमात्मा का होना भी आवश्यक है। सृष्टि के बनने व संचालन में परमात्मा ही प्रेरिता है। आचार्य जी ने कहा कि परमात्मा इस सृष्टि का निमित्त कारण तथा प्रकृति उपादान कारण होती है। बिना बनाने वाले के कोई भी चीज अपने आप नहीं बनती। सृष्टि भी परमात्मा ने ही बनाई है। अन्य कोई शक्ति या सत्ता सृष्टि को नहीं बना सकती। किसी वस्तु के निर्माण ने निमित्त कारण तथा उपादान कारण दोनों की ही आवश्यकता होती है। इनसे परमात्मा और प्रकृति का अस्तित्व सिद्ध होता है। सृष्टि में जीव का भोगता के रूप में होना आवश्यक है। संसार में तीन पदार्थों से सम्बन्धित वेद एवं उपनिषद के श्लोक ..़का भी उल्लेख आचार्य जी ने किया। इस मन्त्र के अर्थ पर भी आचार्य जी ने विस्तार से प्रकाश डाला। इस मन्त्र में बताया गया है कि प्रकृति रूपी वृक्ष पर जीवात्मा और परमात्मा दोनों बैठे है। जीव वृक्षों के फलों को खा रहा है परन्तु परमात्मा फल नहीं खाता परन्तु जीव को खाते हुए देखता है। इस मन्त्र के अनुसार प्रकृति ही फल है जिसे जीव खाता अर्थात् भोक्ता है। आचार्य जी ने यह भी कहा कि परमात्मा कभी जीवात्मा का साथ छोड़ता नहीं है। दोनों के आपस में शाश्वत सम्बन्ध हैं। दोनों परस्पर सखा हैं।

आचार्य डा. सोमदेव शास्त्री ने चारवाक मत की भी चर्चा की तथा उसके ईश्वर व प्रकृति विषयक सिद्धान्त बताये। चारवाक ईश्वर को नहीं मानता था। चारवाक सृष्टि में इससे पृथक चेतन तत्व को भी नहीं मानता था। आचार्य जी ने इसके उदाहरण दिये और इसका युक्तियों से खण्डन भी किया। आचार्य जी ने कहा कि चारवाक का जड़ से चेतन बनने वा उत्पन्न होने का सिद्धान्त है। दूसरे कुछ आचार्यों के भी ऐसे विचार हैं कि चेतन पदार्थ से जड़ पदार्थ बन जाता है। चेतन से जड़ को मानने वाले वेदान्ती परिणाम तथा विवर्त को मानते हैं। इसको समझाते हुए आचार्य जी बतयाया कि दूध से दही बनने तथा अन्धकार में रस्सी का सांप अनुमान होना परिणाम व विवर्त कहा जाता है। आचार्य जी ने कहा कि वेदान्ती मानते हैं कि ब्रह्म के स्थूल व सृष्टि रूप में दिखने का कारण माया होता है। आचार्य जी ने विक्षेप की चर्चा भी की व इस पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि संसार हमें ईश्वर की माया के कारण दिखाई देता है। आचार्य जी ने कहा कि वेदान्तियों से पूछा जाता है कि माया सत् है या असत्? इसका उत्तर वह यह देते हैं कि माया न तो सत् है और न असत् है। वह माया को अनिर्वचनीय बतातें हैं। उन्होंने कहा कि एक प्रकार से वह प्रकृति को ही माया बताते हैं। आचार्य जी ने कहा कि माया प्रकृति ही है और परमात्मा इसी से सृष्टि को बनाते हैं। विद्वान आचार्य डा. सोमदेव शास्त्री जी ने ‘ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या’ सिद्धान्त की चर्चा भी की। इसको स्पष्ट करते हुए आचार्य जी ने कहा कि संसार में तीन सत्तायें हैं। 1- पारमार्थिक, 2- प्रातिभासिक तथा 3- व्यवहारिक सत्ता। इन तीन सत्ताओं के आचार्य जी ने उदाहरण भी दिये। आचार्य जी ने वेदान्तियों के अद्वैत मत पर विस्तार से प्रकाश डाला और असत्य व अविद्यायुक्त मन्तव्यों का खण्डन किया। उन्होंने कहा कि स्वामी शंकराचार्य जी दृश्य सृष्टि व भाव पदार्थों को झूठ वा असत्य मानते हैं। इसके बाद आचार्य जी ने स्वप्न की भी चर्चा की।

अद्वैत मत की स्वप्न विषयक मान्यताओं का खण्डन करते हुए आचार्य जी ने ऋषि दयानन्द का मन्तव्य बताते हुए कहा कि ऋषि दयानन्द ने कहा है कि स्वप्न के अनुसार जाग्रत अवस्था नहीं होती अपितु जाग्रत के अनुसार स्वप्न अवस्था होती है। ऋषि दयानन्द के अनुसार यह संसार झूठा व मिथ्या नहीं है। परमात्मा ही हमारी सृष्टि की रचना करने वाली चेतन सत्ता है। आचार्य जी ने एक वेद मन्त्र का उल्लेख कर उसका अर्थ बताते हुए कहा कि परमात्मा बिना आंख के देखता तथा बिना कानों के सुनता है। हाथों के बिना वह अपने सब कामों को करता है। ऐसी सत्ता का नाम ही परमात्मा है। आचार्य जी ने कहा कि तिलों मेे तेल की भांति परमात्मा प्रत्येक पदार्थ में विद्यमान है। समिधाओं में अग्नि की तरह वह सृष्टि में विद्यमान है। उन्होंने कहा कि परमात्मा आत्म मन्थन से प्राप्त होता है। आचार्य जी ने कहा कि सत्य का आचरण, सत्य ही करना तथा सत्य बोलने से परमात्मा प्राप्त होता है। आचार्य जी ने पांच यमों अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह की भी चर्चा की। उन्होंने कहा कि जिसने ईश्वर का साक्षात्कार कर लिया है उसके जीवन में असत्य नहीं रहता। उसके जीवन में सत्य ही सत्य रहता है। आचार्य जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द ने जीवन में सत्य को कभी नहीं छोड़ा। आचार्य सोमदेव शास्त्री जी ने ऋषि दयानन्द को प्रलोभन देने की घटनायें भी प्रस्तुत कीे और कहा कि वह कभी सत्य से विचलित नहीं हुए। आचार्य जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी की आत्मकथा ‘कल्याण मार्ग का पथिक’ पुस्तक में वर्णित घटना का उल्लेख कर कहा कि बरेली के प्रसंग में ऋषि दयानन्द ने कहा था कि चाहे उन्हें तोप के मुह पर बांध दें परन्तु दयानन्द के मुंह से सत्य ही निकलेगा, असत्य कदापि नहीं।

डा. सोमदेव शास्त्री जी ने कहा कि परमात्मा देखने की नहीं अपितु अनुभव की वस्तु है। परमात्मा सर्वत्र उपलब्ध हैं परन्तु वह निर्दोष अन्तःकरण में ही प्रकाशित होते हैं। आचार्य जी ने पांच नियमों व उसके अन्तर्गत आये तप पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि यदि साधक में अनुकूलता व प्रतिकूलता को सहन करने की शक्ति नहीं है तो परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकते। आचार्य जी ने पूना में ऋषि दयानन्द जी की शोभा यात्रा निकाले जाने का भी उल्लेख किया। वहां उनको कुछ देर हाथी पर भी बैठाया गया था। दूसरी ओर दयानन्द जी के विरोधियों ने एक व्यक्ति का नाम दयानन्द धर कर उन्हें गधे पर बैठाकर यात्रा निकाली। पूना में दयानन्द जी की शोभायात्रा निकालने वाले व्यक्ति उनके भक्त महादेव गोविन्द रानाडे थे। उनके अनुसार दयानन्द जी के विरोधियों ने गधे वाली जो यात्रा निकाली थी वह उनका अपमान करना था। जब यह बात ऋषि दयानन्द जी के ध्यान में लायी गई तो उन्होंने कहा कि नकली दयानन्द का तो यही हाल होना चाहिये। आचार्य सोमदेव जी ने ऋषि दयानन्द के मान अपमान में सम रहने के कुछ उदाहरण भी दिये। उन्होंने कहा कि ध्यान की स्थिति प्राप्त होने पर ईश्वर का साक्षात्कार करने में सफलता मिलती है। आचार्य जी ने यह भी बताया कि अशुभ कर्म करने वाले मनुष्यों को परमात्मा बन्धन में डालता है। शुभ कर्मों को करने से मनुष्य के बन्धन कमजोर होते जाते हैं। उन्होंने कहा कि यम व नियम बन्धनों से दूर होने में सहायक होते हैं। जो मनुष्य बेईमानी करते हैं उनका क्षेत्र सिकुड़ता है। आचार्य जी ने एक चंचल बच्चे का उदाहरण दिया जो दूसरों की स्वतन्त्रता में बाधा डालता है। उन्होंने कहा कि परमत्मा दूसरों की स्वतन्त्रता में बाधा डालने वालों को जकड़ देता है। बन्धनों से मुक्त होने को ही उन्होंने मोक्ष बताया।

डा. सोमदेव शास्त्री जी ने कहा कि उपनिषद् में प्रश्न किया गया है कि मनुष्य के दुःखों का अन्त कब होगा? इसके उत्तर में कहा गया है कि जिस दिन मनुष्य चमड़े में आकाश को लपेट लेगा उस दिन दुःखों का अन्त हो जायेगा। आचार्य जी ने कहा कि परमात्मा को जाने बिना दुःखों का अन्त नहीं होगा। दुःखों से बचने के लिये ईश्वर की उपासना करनी अत्यन्त आवश्यक है। आचार्य जी ने यह भी कहा कि वेद में परा व अपरा दोनों विद्यायें हैं। उन्होंने कहा कि ब्रह्म को जानना व उसकी आज्ञाओं का पालन करना परा विद्या है। इसके समर्थन में आचार्य जी ने यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का उल्लेख किया और कहा कि यह वेदान्त के अन्तर्गत आता है। अपरा का उल्लेख कर उन्होंने कहा कि ब्रह्म से तृण पर्यन्त सब पदार्थों का ज्ञान व इनका यथायोग्य उपयोग लेना अपरा विद्या है। उन्होंने कहा कि यजुर्वेद से जुड़ा बृहदारण्यकोपनिषद है। अन्य अनेक उपनिषद भी हैं जो वेद से जुड़े हैं। ऐतरेय उपनिषद ऋग्वेद से जुड़ी है। केन उपनिषद सामवेद से जुड़ी है। आचार्य जी ने इस संबंध में अनेक युक्तियां दी। अपने विचारों को विराम देते हुए उन्होंने कहा कि दस उपनिषदें वेद, उनकी शाखाओं तथा आरण्यक ग्रन्थों से जुड़ी हैं। इसी के साथ आचार्य जी का श्वेताश्वतरोपनिषद पर व्याख्यान समाप्त हुआ। इससे पहले वह दस उपनिषदों पर भी व्याख्यान कर चुकें हैं जिन्हें गुरुकुल पौंधा-देहरादून ने वीडियो में रिकार्ड कर उसका यूट्यूब चैनल ‘gurukulpondhadehradun’ सहित फेसबुक पर गुरुकुल पौंधा की वाल से प्रसारण किया है।

आचार्य डा. सोमदेव शास्त्री जी द्वारा ग्यारह उपनिषदों पर एक एक घण्टे का व्याख्यान पूर्ण कर लेने पर स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी ने उनका धन्यवाद किया और उन्हें इस महत्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न करने के लिए बधाई दी। उन्होंने कहा कि वेदों का सार उपनिषदों में मिलता है। स्वामी जी ने यह भी कहा कि दर्शन ग्रन्थों के अध्ययन का आरम्भ मीमांसा दर्शन से करना चाहिये। स्वामी जी ने कहा कि धर्म कर्तव्य को कहते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि मनुष्य को अपने ज्ञान के अनुरूप कर्म और व्यवहार करना चाहिये। इसके पक्ष में स्वामी जी ने यज्ञ का उदाहरण दिया। स्वामी जी ने एक महत्वपूर्ण बात यह कही कि जो पुस्तकों के मध्य चिन्तन व शयन करते हैं अर्थात् स्वाध्याय करते हैं उनका जीवन सफल होता है। स्वाध्याय करना आवश्यक है। इस प्रवृत्ति से मनुष्य बहुत आगे जा सकते हैं। स्वामी जी ने कहा कि कभी अपनी लेखनी व पुस्तक दूसरों को नहीं देनी चाहिये। इसके समर्थन में स्वामी जी ने कुछ उदाहरण भी प्रस्तुत किये। स्वामी जी ने गुरुकुल के ब्रह्मचारियों को पुस्तकों का संकलन करने की प्रवृत्ति उत्पन्न करने की प्रेरणा की। पुस्तकों को इकट्ठा करना व पढ़ना दोनो ंही आवश्यक हैे। स्वामी जी ने कहा कि पढ़ने के साथ सुनना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। हम आचार्यों से जो सुनते हैं वह हमारे जीवन में आना चाहिये। इन पक्तियों के लेखक को इस पूरे कार्य को देख व सुनकर सन्तोष हुआ। हम चाहते है कि सभी पाठक यूट्यूब पर ‘gurukulpondhadehradun’ चैनल पर उपनिषदों पर आचार्य डा. सोमदेव शास्त्री जी के सभी व्याख्यानों का श्रवण व दर्शन करें। इससे उनका ज्ञानवर्धन होगा। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

Comment:Cancel reply

Exit mobile version