नाकारा हो गए गुरुओं के आशीर्वाद

चेलों की न चाल बदली, न चलन

– डॉ. दीपक आचार्यguru
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हर साल की तरह अभी कल ही गुरुपूर्णिमा की धूम भोर से लेकर देर रात तक रही। किसम-किसम के गुरुओं के वहाँ लगा रहा चेले-चपाटियों का मजमा। गुरु के नाम पर जो होना चाहिए वह भी हुआ, नहीं होना चाहिए वह भी होना ही था।गुरुप्रसाद के नाम पर दावतों का दौर व जोर चला और चेलों की खूब मौज उड़ी। गुरुजी की मौज और उत्साह का तो कहना ही क्या, अनगिनत लोगों ने पाँव छूए, गुरु दक्षिणा दी और आशीर्वाद पाया। कई बड़े-बड़े महारथियों,राजपुरुषों, धनाढ्यों और बहुत कम समय में समृद्धि दिलाने वाले धंधों में माहिर धंधेबाजों से लेकर धर्म के नाम पर भ्रमित और भोले-भाले लोगों की लम्बी कतारों को देख गुरुजी को विश्वास हो ही गया कि भगवान सबकी सुनता है और सबकी झोली भरता है।यों तो साल भर कोई न कोई गुरु किसी को आशीर्वाद देता हुआ अथवा कोई न कोई महान पुरुष किसी न किसी संत से पाँव छूकर, कभी दण्डवत कर अथवा कभी और कुछ कर आशीर्वाद पाता ही रहता है और फिर इनकी तस्वीरों से पता चल ही जाता है श्रद्धा और आशीर्वाद का आदान-प्रदान कहाँ- किस तरह हुआ है।लेकिन गुरुपूर्णिमा तो वह दिन हो गई है जब एक तरफ से श्रद्धा और समर्पण की बाढ़ आती है और दूसरी तरफ से आशीर्वादों के रेले उमड़ते रहते हैं। कुछ पाकर खुश हैं, धन्य समझते हैं और दूसरे प्रदान कर। परस्पर संबंधों और लेन-देन का यह सेतु इस दिन ऎसा जुड़ता है कि हर कहीं उत्सवी उल्लास का दरिया उमड़ा रहता है।पुराने से पुराने चेले अपने वरिष्ठ होने और गुरुजी के ज्यादा करीब होने का दंभ पाले फूले नहीं समाते हैं और नए-नए शिष्य अपने कान में मंत्र फूंकवा कर पावन होने का अहसास करते रहते हैं। गुरु और शिष्य का यह संबंध भवसागर की वैतरणी पार करने के लिए साल-दर-साल यों ही मजबूती और विस्तार पाता जाता है।गुरु शिष्य या भक्तजन को आशीर्वाद इस बात का देता है कि उसके जीवन में सुधार आए और बुराइयाें का अंत हो, समाज के उत्थान में आगे आए और ऎसा बने कि वह दिव्यत्व व दैवत्व की मुख्य धारा के करीब आता रहे। हर साल खूब सारे गुरु आम दिनों से लेकर गुरु पूर्णिमा के दिन हजारों-लाखों शिष्यों को दीक्षा देते हैं, मंत्र कान में फूँकते हैं और दोनोें हाथ सर पर रखकर इस भावना के साथ आशीर्वाद लुटाते हैं कि अब इसका सुधारा हो ही जाएगा,बुराइयां किनारा कर ही लेंगी और धर्म तथा समाज के लिए उपयोगी साबित होगा ही।बात बड़े-बड़े शिष्यों से लेकर आम भक्तों तक की यही है। फिर हर साल नए शिष्य भी जोड़ने की हरचंद कोशिशें की जाती हैं। जाने कितने लाखों-करोड़ों रुपए विज्ञापनों, मीडिया और दूसरे प्रचार माध्यमों पर इसीलिए खर्च किए जाते रहे हैं कि गुरुजी का आकर्षण बढ़े और शिष्यों की संख्या में अभिवृद्धि हो ताकि गुरुजी की प्रतिष्ठा और प्रभाव का आभामण्डल निरन्तर विकसित और विस्तारित होता चला जाए।

वे हर जतन किए जाते हैं जिनसे आम धर्मभीरू आदमी गुरुजी के आश्रम की ओर खींचा चला आए। हर साल पुराने और नए शिष्यों तथा वीआईपी अनुयायियों को सिद्ध, तपस्वी एवं देवता के बराबर ऊर्जाओं के स्वामी गुरुजी का दिव्य आशीर्वाद पाने के बावजूद चेलों के चाल-चलन और चरित्र में कोई सुधार नहीं दिखाई दे रहा है।न समाज से अपराध, भय और भ्रष्टाचार कम हो रहे हैं, न मूल धर्म, नैतिकता, सदाचार के मूल्यों का प्रभाव और अवलंबन बढ़ रहा है। इतनी बड़ी संख्या में आशीर्वाद लुटाने और लूट लेने के बावजूद लोगों में सुधार नहीं आ पा रहा है इसका सीधा सा यही अर्थ निकाला जा सकता है कि गुरुओं के आशीर्वाद में ही कहीं न कहीं कोई कमी आ गई है जिनकी वजह से ये प्रभावहीन हो चले हैं।इस मामले में उन लोगों की कोई गलती नहीं मानी जा सकती जो आशीर्वाद लिए हुए हैं क्योंकि गुरुजी सभी पात्रों को ही आशीर्वाद प्रदान करते हैं अथवा गुरुजी की पावन दृष्टि पड़ते ही अपात्र भी पात्र हो जाते हैं। बहरहाल जो कुछ हो, हर किसी को आशीर्वाद से नहला देने वाले गुरुओं की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है और उसी अनुपात में शिष्यों की जमात भी।साल भर गुरुओं से आशीर्वाद पाने के बाद भी उनके शिष्यों का जीवन देखा जाए तो कोई खास बदलाव नहीं आ पाया है। आशीर्वाद के बाद मानवीय मूल्यों और शुचिता का जो ग्राफ बढ़ना चाहिए वह भी कहीं बढ़ता नहीं दिखाई दे पा रहा है।बरसों से आशीर्वादों के लेन-देन का धंधा परवान पर है और इसके बावजूद समाज भी वहीं का वहीं ठहरा हुआ दिखाई देता है अन्यथा इतने आशीर्वादों की मूसलाधार बारिश तो नरक को भी स्वर्ग में बदल सकती है। कारण चाहे जो रहे हों हमें आशीर्वादों के औचित्य और प्रभाव दोनों पर गंभीर चिंतन करने की जरूरत है।

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