पाकिस्तान और भारत की विदेश नीति , भाग — 2

 

 

वर्तमान भारत के प्रधानमन्त्री श्री नरेंद्र मोदी अपने पड़ोसी देशों के प्रति पूर्व के प्रधानमंत्रियों से कुछ अलग दृष्टिकोण रखते हैं। उनकी प्राथमिकता है कि पड़ोसी देशों के साथ मित्रता पूर्ण सम्बन्ध बनाकर घरेलू व्यापार में वृद्धि की जाए और विकास के लिए विदेशी निवेश ,व्यापार और प्रौद्योगिकी प्राप्त करने के साधन के रूप में विदेश नीति का उपयोग किया जाए। स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री श्री मोदी देश की विकास की गति को बढ़ाना चाहते हैं। श्री मोदी अपनी विदेश नीति को इसी रूप में कुछ नए सन्दर्भों व नए अर्थों के साथ प्रस्तुत करना चाहते हैं। यद्यपि शत्रु देश भारत के एक विश्व शक्ति के रूप में उभरते स्वरूप को मिटाने की हर युक्ति खोज रहे हैं। जिससे भारत की विदेश नीति को इस समय अभूतपूर्व चुनौतियों से गुजरना पड़ रहा है। इसके उपरान्त भी हमें धैर्य बनाए रखकर अपनी मंजिल की ओर बढ़ना चाहिए। क्योंकि यह एक कटु सत्य है कि जब आप ऊंचाइयों को छूने की ओर आगे तेजी से बढ़ते जा रहे हों, तब आपको अप्रत्याशित तूफानों का सामना करना ही पड़ता है। इसके साथ ही यह भी सत्य है कि जो इन तूफानों का सामना कर लेते हैं मंजिल भी उन्हीं को मिलती है।


भारत के पड़ोस में पाकिस्तान और चीन नाम के दो परमाणु शक्ति संपन्न देशों का होना भारत की विदेश नीति के लिए कई प्रकार की चुनौतियां पैदा करता है। यह दोनों ही देश विश्व शान्ति के लिए खतरा हैं। इन्हें अपने ही पड़ोस से उभरती हुई एक आर्थिक शक्ति अर्थात भारत का आगे बढ़ना कतई स्वीकार्य नहीं है।
पाकिस्तान ने भारत के प्रधानमंत्री श्री मोदी की विदेश नीति की सफलता को असफलता में परिवर्तित करने के लिए पिछले दिनों एक नई चाल चली । उसने भारत की ओर छद्म ढंग से मित्रता का हाथ बढ़ाया। अपने इस छद्मवेश में इस देश ने ‘करतारपुर कॉरिडोर’ बनाने की घोषणा की। उसकी इस घोषणा से प्रथमदृष्टया तो ऐसा आभास होता है कि जैसे वह भारत के साथ अपने सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत करना चाहता है , पर इसके पीछे उसका उद्देश्य कुछ दूसरा ही रहा है जो अब स्पष्ट होने लगा है । पाकिस्तान ने विश्व के अन्य देशों के सामने तो ‘करतारपुर कॉरिडोर’ को इस रूप में प्रस्तुत किया है कि वह भारत से पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए इस प्रकार के संबंधों को स्थापित करना चाहता है, पर वास्तव में उसने ‘करतारपुर कॉरिडोर’ के माध्यम से भारत में सिक्ख अलगाववाद को बढ़ावा देने की रणनीति पर काम करना आरम्भ किया है। हमें यह समझ लेना चाहिए कि पाकिस्तान 1971 में अपने आप से अलग हुए बांग्लादेश को अपने लिए राष्ट्रीय अपमान के रूप में देखता है । जिसका प्रतिशोध वह भारत से लेना चाहता है । पाकिस्तान को अपनी इस रणनीति में सफलता दिलाने के लिए चीन जैसे कई भारतद्वेषी देश सहयोग कर रहे हैं।
भारत से शत्रु भाव रखने वाले देश पाकिस्तान को भारत के विरुद्ध उकसाते ही रहेंगे और पाकिस्तान 1971 की अपनी पराजय का प्रतिशोध लेने के लिए इनके उकसावे में आता रहेगा। विवादित कश्मीर क्षेत्र को विभाजित करने वाली नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान द्वारा हिंसा और गोलीबारी इसीलिए जारी रहती है कि चीन जैसे भारत के शत्रु देश पाकिस्तान को भारत के विरुद्ध एक हथियार के रूप में प्रयोग कर रहे हैं । ऐसी प्रस्तुतियों में भारत की विदेश नीति के लिए द्विपक्षीय शांति वार्ता को किसी निष्कर्ष तक पहुंचाना इस समय सबसे बड़ी चुनौती बन गया है।
पाकिस्तान के आतंकी संगठनों लश्कर-ए-तैयबा या जैश-ए-मोहम्मद ने 2008 में जिस प्रकार मुंबई हमले को अंजाम दिया था वैसे हमले पाकिस्तान स्थित आतंकवादी समूह ही कर सकते हैं।
भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठानों का मानना है कि इस तरह के किसी भी हमले की योजना पाकिस्तानी सुरक्षा प्रतिष्ठान द्वारा विशेष रूप से अपने शक्तिशाली खुफिया संगठन, इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस अर्थात आईएसआई द्वारा बनाई जाती है।
यह एक अच्छी बात है कि भारत की वर्तमान विदेश नीति पाकिस्तान को एक आतंकी राष्ट्र सिद्ध करने में अंतरराष्ट्रीय मंचों के माध्यम से सफल सिद्ध हुई है। भारत ने वर्तमान में प्रत्येक अंतर्राष्ट्रीय मंच को पाकिस्तान की पोल खोलने के लिए प्रयोग किया है। उसका परिणाम यह हुआ है कि पाकिस्तान के कई घनिष्ठ मित्र भी उसका साथ छोड़ चुके हैं । जिससे पाकिस्तान इस समय बौखला गया है। उसके नेतृत्व की अपने ही देश में स्थिति बहुत हास्यास्पद बन चुकी है, क्योंकि न केवल विपक्ष के नेता अपितु वहाँ के विदेश नीति के व्याख्याकार भी टीवी चैनलों पर बैठकर यह बात स्वीकार कर रहे हैं कि भारत की सफल विदेश नीति के चलते पाकिस्तान इस समय वैश्विक मंचों पर अलग-थलग पड़ चुका है ।
हमारे प्रधानमंत्री श्री मोदी ने बड़ी कूटनीतिक शैली में पाकिस्तान को कई वैश्विक मंचों से चुनौती दी है । उन्होंने बड़े ही सधे हुए लेकिन स्पष्ट शब्दों में पाकिस्तान को लगभग लताड़ते हुए कहा है कि बम और बंदूक की आवाज़ में बातचीत की प्रक्रिया नहीं हो सकती। उन्होंने यह भी कहा है कि आतंकवाद और वार्ता दोनों एक साथ नहीं हो सकती। प्रधानमंत्री श्री मोदी ने पाकिस्तान को यह बता दिया है कि वह या तो बम और बन्दूक को चुन ले या फिर बातचीत को चुने। प्रधानमंत्री श्री मोदी के इस प्रकार के वक्तव्य को अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी प्रमुखता से प्रकाशित किया गया है। जिसके चलते वैश्विक जनमत इस समय भारत के साथ खड़ा है । फलस्वरूप पाकिस्तान की बोलती बंद हो गई है और वहाँ के शासक इस समय किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में हैं।
वर्तमान परिपेक्ष में भारत की वैश्विक जिम्मेदारियां बहुत अधिक बढ़ गई हैं। सारे संसार को इस समय आतंकवाद और पंथिक कट्टरवाद से मुक्ति प्राप्त करने की अभिलाषा है । अपनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को वैश्विक मंचों पर सार्थकता के साथ प्रस्तुत करने की जैसी ललक भारतीय नेतृत्व ने पिछले कुछ वर्षों में दिखाई है यदि यही ललक भारत की ओर से 50 – 60 के दशक में दिखाई गई होती तो निश्चित रूप से भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य कब का बन गया होता । क्योंकि उस समय अनेक देशों की यह अभिलाषा थी कि भारत को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाया जाए । आज भी संसार के अनेकों विद्वान ऐसे हैं जो इस बात को स्वीकार करते हैं कि भारत की मानवतावादी विदेश नीति को यदि संयुक्त राष्ट्र वैश्विक राजनीति और विदेश नीति का प्रमुख अंग घोषित कर दे तो निश्चित रूप से विश्व शान्ति का सपना साकार हो सकता है।
विश्व विख्यात इतिहासकार अर्नाल्ड टायनबी ने भारत के विषय में लिखा है – “मानव इतिहास के इस सबसे अधिक खतरनाक क्षण में मानव जाति की मुक्ति का यदि कोई रास्ता है तो वह भारतीय है। सम्राट अशोक और महात्मा गांधी का अहिंसा का सिद्धांत और रामकृष्ण परमहंस के धार्मिक सहिष्णुता के उपदेश ही मानव जाति को बचा सकते हैं। यहाँ हमारे पास एक ऐसी मनोवृति एवं भावना है जो मानव जाति को एक परिवार के रूप में विकसित होने में सहायक हो सकती है।” कहने का अभिप्राय है कि भारत के ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के भाव को वैश्विक सुरक्षा के दृष्टिगत संयुक्त राष्ट्र को वैश्विक राजनीति के लिए आदर्श सूत्र वाक्य की मान्यता प्रदान करनी चाहिए और सभी देशों के लिए अनिवार्य करना चाहिए कि वे वेद के इन दोनों सिद्धांतों को अपनी विदेश नीति में भी अक्षरश: पालन करने का वचन देंगे । यदि संयुक्त राष्ट्र इस प्रकार की व्यवस्था कराने में सफल होता है तो ही इस वैश्विक मंच की सार्थकता सिद्ध हो पाएगी, अन्यथा नहीं। संयुक्त राष्ट्र के समक्ष मार्टिन लूथर किंग, नेलसन मंडेला और हो ची मिन्ह जैसे महापुरुषों के आदर्श उदाहरण हैं। जिन्होंने भारत के अहिंसावादी और मानवतावादी सिद्धांतों से प्रेरित होकर विश्व का मार्गदर्शन किया। यदि यह नेता विश्व का मार्गदर्शन कर सकते थे तो संयुक्त राष्ट्र को भारत के अहिंसावादी और मानवतावादी दृष्टिकोण को अपनाकर उसे विश्व के लिए अनिवार्य दिशा निर्देश के रूप में स्थापित करने में अंततः कौन सी बाधा आ उपस्थित हुई ?
अब संयुक्त राष्ट्र के लिए यह उचित समय है कि वह उन देशों को आतंकी देश घोषित करे जो मानवता के विरोध में अपने यहाँ पर आतंकी गतिविधियों को संरक्षण और प्रोत्साहन प्रदान करते हैं। विश्व शान्ति की स्थापना की दिशा में संयुक्त राष्ट्र को एक वैश्विक आचार संहिता तैयार करनी चाहिए। उस वैश्विक आचार संहिता में भारत के ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के भाव को सार्थक भूमिका निर्वाह करने के लिए उचित स्थान प्रदान करना चाहिए।
इस वैश्विक आचार संहिता में मजहब और धर्म को भी अलग अलग करके दिखाया जाना अनिवार्य है। मजहबी या पंथिक मान्यताओं को पूर्णतया नकार कर मानवतावादी वैदिक चिंतन को संसार के मौलिक धर्म का अनिवार्य भाग घोषित किया जाना चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि पंथिक एकता न तो कभी हो सकती है और ना कभी मानव मानव के बीच में समरसता का भाव उत्पन्न होने देगी । यह तभी सम्भव है जब व्यक्ति ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के उत्कृष्ट भाव से भरा हो।

 

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक उगता भारत

 

 

 

 

 

Comment: