सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया का सार [हिन्दू राजनैतिक दल की आवश्यकता लेखमाला ] भाग -7

५१ . 1858 के बाद कई भारतीयों को पटाकर अंग्रेज शासक वर्ग चलने लगा .
५२ . पहले के राममोहन रे (कहाँ के राजा ,कहाँ के जोगी,कंपनी के नौकर )आदि ने सेवा कर पृष्ठ भूमि बना ही दी थी .सब कुछ्प्रेम और कपट चाल साथ साथ चल रहा था
५३ . देशी राज्य भारतीय परंपरा के प्रभाव से नए ज्ञान के प्रति खुले थे christians की तरह बंधे नहीं थे और नए अंग्रेजों का बड़ा हिस्सा घोर चर्च विरोधी था ,यूरोप में रूसो ,डार्विन ,वाल्टेयर , बर्नार्ड शॉ अदि चर्च के प्रचंड विरोधी थे ही . इसलिए नए ज्ञान के प्रति भारतीयों में सहज प्रेम था .
५४. शांति से शासन के इच्छुक अंग्रेजों के साथ भारत के अभिजन भी शांति पूर्ण दांव पेंच चल रहे थे . सबसे प्रबुद्ध भारत के धर्मनिष्ठ ब्राह्मण रहे हैं .उनके नेतृत्व में गौ रक्षिणी सभाएं ,धर्म महामंडल आदि चले जिन्हें खुफिया विभाग में ठगी और डकैती शाखा के अंतर्गत दुष्ट अंग्रेज अंकित कर रहे था और सामने भय से मीठा बोलते थे .मेरी पुस्तक “सांस्कृतिक अस्मिता की प्रतीक गौ माता ” में उनके गोपनीय दस्तावेजों के विस्तृत अंश दिए हैं जहाँ वे दस्तावेज दर्शाते हैं कि शांत दिख रही नई क्रियाएं कभी भी हमारा शासन उखाड फेंक सकती है और हम शांत ज्वाला मुखी पर बैठे हैं. यह १८८० से १९९१० तक की लागातर रिपोर्ट हैं जिनमे स्वामी दयाम्नंद जी जैसों को भी डकैती विभाग की फाइल में ही दर्ज किया गया है ,ऐसे कमीने और दोगले ये थे ,कई कांग्रेस नेताओं ने इनसे ही यह सब सीखा
५४ . इन पंडितों से अंग्रेज इतने आतंकित थे कि जब २० वीं शताब्दी में दिल्ली दरबार लगा तो सनातनधर्म के महापंडित दिन दयालु शर्मा जी को सादर बुलाया गया जिसमे प्रश्न यह उठा कि पंडित जी तो रानी और प्रिंस के सम्मान में खड़े नहीं हो सकते क्योंकि वे महान पूज्य हैं और सम्राट का उठकर मिलना भी प्रजा में सही सन्देश नहीं देगा तो दो कैंप एक ही मैदान के दो छोर पर लगे और तय समय पर दोनों तरफ से दोनों (इधर से पंडित जी ओर उधर से प्रिंस और महारानी ) निकलकर बीच में खड़े खड़े मिले ,बातें की और दोनों वापस लौट गए अपने अपने शिविर में .
५५ . उधर युवक युवतियों के समूह प्रचंड देशभक्ति से भरकर आततायी अजनबी बाहरी घुसपैठियों के रूप में आये अंग्रेजों को मर मार कर भगाने लगे ,स्वयं लंदन में घुसकर आततायियों को मारा .अंग्रज डर से कांपने लगे और प्रतिशोध से जल उठे .
५६ . लोकमान्य तिलक , विपिनचंद्र पाल ,लाला लाजपतराय का नेतृत्व पा कर ठंडी राजनीति के लिए रचित कांग्रस दहकने लगी .भारताग्नि प्रदीप्त हो उठी .
५७ . अंगेज अति सक्रिय हो गए . चुनिन्दा अंग्रेज स्त्रियों को कतिपय भारतीय युवकों से प्रेम की प्रेरणा दी और उन पति पत्नी और कतिपय मुसलमानों को पटाकर ताशकंद में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना करायी .
५८ . फिर और तलाश में लगे रहे ,नेहरु को पहले तवज्जो नहीं दी पर गाँधी जी बड़े काम के और मेधावी लगे तो उन पर खूब मेहनत की
.
५९ . गांधीजी चतुर और अति महत्वावाकांक्षी थे सो उन्होंने भी अंग्रेजो से चतुराई भरे ही सम्बन्ध बनाये ,वे किसी के एजेंट हो ही नहीं सकते थे ,स्वयं अपने ही एजेंट वे थे .
६० . गांधीजी ने अफ्रीका में अंग्रेजो से अति मधुर सम्बन्ध बनाये और उनसे सहयोग लेने लन्दन गए . १९०६-१९०७ में . वहां संधि हुयी ,अंग्रेज गांधीजी को वजन देंगे ,गांधीजी क्रांतिकारियों से अंग्रेजों की रक्षा के लिए जो संभव होगा ,करेंगे ,इसी संधि में से “हिन्द स्वराज “नामक बुकलेट रची गयी ,जैसा प्रख्यात विदुषी केडिया जी ने लिखा है : : गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका में हैं जहाँ भारतीय क्रन्तिकारी हैं ही नहीं और हिन्द स्वराज का प्रारंभ क्रांतिकारियों को भटके भूले बताने से होता है ,यह एक मंजे हुए और महत्वाकांक्षी ३६ वर्षीय युवक का दांव है जो अंग्रेजों से संधि कर लन्दन से उस समय लौटा है जब मदन लाल धींगरा और ऊधमसिंह जैसे सिंह शावकों से लन्दन दहल रहा है.

आगे है भारतीय वीरता से छल की कहानी और सत्ता हस्तांतरण की मीठी चा लें जिन में नेहरु अंततः गाँधी को छल कर सत्ता के शीर्ष पर जाकर हिन्दू धर्मं के सुनियोजित विनाश के लिए अल्प संख्यकों और communists से साठगाँठ करते हैं और फिर उनकी ही राजनीति समकालीन भारत का चालू मॉडल बन जाती है । (क्रमशः)
(साभार) प्रस्तुति -श्रीनिवास आर्य

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