तिरंगे की प्रथम निर्माता भीकाजी कामा की जयंती पर विशेष

24 सितम्बर/जन्म-दिवस

आज स्वतन्त्र भारत के झण्डे के रूप में जिस तिरंगे को हम प्राणों से भी अधिक सम्मान देते हैं, उसका पहला रूप बनाने और उसे जर्मनी में फहराने का श्रेय जिस स्वतन्त्रता सेनानी को है, उन मादाम भीकाजी रुस्तम कामा का जन्म मुम्बई के एक पारसी परिवार में 24 सितम्बर, 1861 को हुआ था। उनके पिता सोराबजी फ्रामजी मुम्बई के सम्पन्न व्यापारी थे। भीकाजी में बचपन से ही देशभक्ति की भावना कूट-कूटकर भरी थी।

1885 में भीकाजी का विवाह रुस्तमजी कामा के साथ हुआ; पर यह विवाह सुखद नहीं रहा। रुस्तमजी अंग्रेज शासन को भारत के विकास के लिए वरदान मानते थे, जबकि भीकाजी उसे हटाने के लिए प्रयासरत थीं। 1896 में मुम्बई में भारी हैजा फैला। भीकाजी अपने साथियों के साथ हैजाग्रस्त बस्तियों में जाकर सेवाकार्य में जुट गयीं। उनके पति को यह पसन्द नहीं आया। उनकी रुचि सामाजिक कार्यों में बिल्कुल नहीं थी। मतभेद बढ़ने पर मादाम कामा ने उनका घर सदा के लिए छोड़ दिया।

अत्यधिक परिश्रम के कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया। अतः वे इलाज कराने के लिए 1901 में ब्रिटेन चली गयीं। वहाँ प्रारम्भ में उन्होंने दादा भाई नौरोजी के साथ काम किया; पर उनकी अनुनय-विनय की शैली उन्हें पसन्द नहीं आयी। अतः भीकाजी उग्रपन्थी श्यामजी कृष्ण वर्मा और सरदार सिंह राव के साथ भारत की स्वतन्त्रता के प्रयासों में जुट गयीं। लन्दन का ‘इण्डिया हाउस’ तथा ‘इण्डिया होम रूल सोसायटी’ उनकी गतिविधियों का केन्द्र थे। वीर सावरकर, मदनलाल धींगरा आदि क्रान्तिकारी भी इन संस्थाओं से जुड़े थे। 1907 में वे पेरिस आ गयीं।

1907 में जर्मनी के स्टुटगर्ट नगर में एक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन हो रहा था। वहाँ जाकर उन्होंने भारत की स्वतन्त्रता का विषय उठाया। वहाँ सब देशों के झण्डे फहरा रहे थे। लोगों ने मादाम कामा से भारत के झण्डे के विषय में पूछा। वहाँ अधिकांश देशों के झण्डे तीन रंग के थे, अतः उन्होंने अपनी कल्पना से एक तिरंगा झण्डा बनाकर 18 अगस्त, 1907 को वहाँ फहरा दिया।

इसमें सबसे ऊपर हरे रंग की पट्टी में आठ कमल बने थे। ये तत्कालीन भारत के आठ राज्यों के प्रतीक थे। बीच की पीली पट्टी में देवनागरी लिपि में वन्दे मातरम् लिखा था। सबसे नीचे लाल रंग की पट्टी पर बायीं ओर सूर्य तथा दायीं ओर अर्द्धचन्द्र बना था। इस सम्मेलन के बाद वे अमरीका चली गयीं। वहाँ भी वे भारत की स्वतन्त्रता के पक्ष में वातावरण बनाने के लिए सभाएँ तथा सम्मेलन करती रहीं।

1909 में वे फ्रान्स आ गयीं तथा वहाँ से ‘वन्दे मातरम्’ नामक समाचार पत्र निकाला। प्रथम विश्व युद्ध के प्रारम्भ होने तक यह पत्र निकलता रहा। इन सब कार्यों से वे ब्रिटिश शासन की निगाहों में आ गयीं। ब्रिटिश खुफिया विभाग उनके पत्रों तथा गतिविधियों पर नजर रखने लगा; पर वे बिना भयभीत हुए विदेशी धरती से चलाये जा रहे स्वतन्त्रता के अभियान में लगी रहीं।

उनकी इच्छा भारत आने की थी; पर उनकी गतिविधियों से भयभीत ब्रिटिश शासन ने उन्हें इसकी अनुमति नहीं दी। धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया। उनकी इच्छा थी कि वे अन्तिम साँस अपनी जन्मभूमि पर ही लें। 1935 में बड़ी कठिनाई से वे भारत आ सकीं। एक वर्ष बाद 30 अगस्त, 1936 को मुम्बई में उनका देहान्त हो गया।

(संदर्भ : पांचजन्य 29.9.2013, रामेश्वर जी आदि)
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